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नैसर्गिक न्याय

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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घने पेड़ों के झरमुट में बसा हुआ अकीलपुर गाँव,अपनी शोभा,रहन-सहन में अकेला था। नदी किनारे बसा हुआ,हरे-भरे ब़ागों से घिरा हुआ,जरूरत पूरी करने के लिए बंसवाड़ी भी लगी हुई!
लहलहाते खेतों की चादर बिछाए।
‌जवान लोग तो कमाने दूर-दूर पंजाब, हरियाणा,दिल्ली,राजस्थान,मुंबई तो चेन्नई तक चले गये थे और जो बाहर जाने में असमर्थ थे,लाचारीवश गाँव में ही रह गये थे। आजकल की भागदौड़ ‌से दूर। शहर की हवा से बेखबर,बाहर से आती हवा का भी प्रभाव, पुरअसर-दारू के पाऊच के भी मारे हुए। कोरोना महामारी में भी सभी खेती-बाड़ी से लगे हुए। अपने-अपने में मस्त,पर कोई विपत्ति आ जाये तो सभी इकट्ठे! ऐसे इस छोटे से गाँव में लोग एक-दूसरे की खबर रखते थे। अब कल की ही बात है। गाँव के इक्के-दुक्के घर जहाँ खत्म होते थे,उधर ही लोग दिशा-फरागत के लिए जाया करते थे। भोरे-भोरे बिशुन का पेट गड़गड़ाने लगा तो वह मुँह अंधेरे ही उधर को भागा कि सहसा उसके पैर ठिठक गये। उसका पेट-पीड़ाना भी न जाने कहाँ गुम हो गया। देखता क्या है कि ठीक बंसवाड़ी के पहले दो आदमी गिरे पड़े हैं। देखकर वह भौंचक रह गया। अपनी घिघियाती आवाज से लोगों को उसने पुकारना शुरू किया। जो जहाँ था,वहीं से कोई आँख मलता,कोई लपकता वहाँ आ गया। ज्यों-ज्यों यह खबर जंगल में लगी आग की तरह फैलती गई,लोगों का हुजूम वहाँ जुटता गया। कहीं तिल भर रखने की भी जगह नहीं रही,लोगों का ठठ्ठा लग गया। नये आने वाले लोग ऊचक-ऊचक कर देखने लगे। आसपास से पूछकर लोग तसल्ली कर लेना चाह रहे थे कि आखिर माजरा क्या है ? लोगों की उत्सुकता यह जानने के लिए भी बढ़ गई थी कि आखिर पड़े हुए लोग जिन्दा हैं या मरे हुए! ऐसी हालत में मन में जब दया,करुणा हिलोरे लेने लगती है और मन मदद करने की कुछ सोचता भी है,तो भी मरे हुए को छू देने के भय से मन उसे अलग ही रखता है-एक तमाशबीन की तरह! एक और बात लोगों को विस्मय में डाल रही थी कि दोनों के पास एक तेज धार वाली हँसुली पड़ी थी। कुछ पास के लोगों ने झुककर देखते हुए बताया कि दोनों का शरीर नीला पड़ता जा रहा है। तभी लोगों का ध्यान एक रिरियाती आवाज की ओर चला गया। उधर नज़र फिराते ही लोगों ने देखा कि बंसवाड़ी के पीछे की ओर से किसी बच्चे के रोने,सिसकने की आवाज़ आ रही है। आनन-फानन में लुट्टन और झूलो उधर गये तो देखा कि एक बच्चा कटे बाँस के बचे खूंटे-नुमा जड़ से बंधा पड़ा है और वह कभी तो सिसक रहा है,कभी रिरिया रहा है। उन दोनों को देखकर वह बुक्का फाड़कर रोने लगा और उसे बचा लेने की चिरौरी(गुहार) करने लगा। तेज रोने की आवाज सुनकर और लोग भी वहाँ आने लगे। एक-दूसरे से पूछ कर पहचान हुई कि यह तो मेहरू का बेटा रफीक है,जो माँ के चुमौना करने पर माँ के साथ नये बाप वाहिद के पास आ गया है और उनके साथ ही रहता है। जान बचाने का भरोसा दिलाने पर,बहुत समझाने-बुझाने पर रफीक के मुँह से कुछ बातें निकलीं,और लोगों ने जो समझा,उसका सारांश यों था कि उसके अपने पिता की मृत्यु हो जाने पर वह अपनी माँ मेहरू के पास रह रहा था। मेहरू बेबस बेवा थी,और खाने-पीने का कोई जरिया नहीं था। भूख-प्यास के मारे दोनों छटपटाते रहते थे। उसकी माँ को अकेला पाकर मनचले भी उससे छेड़खानी करने लगे।
‌उधर,वाहिद भी अकेला था। पत्नी के नि:सन्तान मरने के बाद वह भी मारा-मारा फिर रहा था। कभी कुछ काम कर लेता तो पेट भरने की थोड़ी-बहुत जुगाड़ लग जाती और फिर आवारागर्दी में ही उसकी जिन्दगी लगी रहती। कुसंगति में ही दिन कटता। ऐसी विषम परिस्थिति में उसका रोजाना मजदूरी करने वालियों में से बेवा मेहरू से परिचय हो गया। फिर,दोनों ने चुमौना (विधवा-विवाह) कर लिया। डूबते को तिनके का सहारा मिल गया और अपनी जीवन नैया खेते हुए दोनों वाहिद के घर किनारे लग गये!
‌शुरू-शुरू में तो दोनों को मानो स्वर्ग-सुख मिल गया। दोनों दैहिक सुख की चाशनी का मजा लेते रहे। कसमें-वादे साथ-साथ खाते रहे पर,जब इस सुख की चाशनी को पेट की आग ने सुखाना शुरू किया तो दोनों में जीने की छटपटाहट शुरू हो गई। कहाँ तो एक कमाने वाला और एक खानेवाला,और अब एक कमानेवाला और तीन खाने वाले! वाहिद को बढ़ा हुआ बोझ दबाने लगा। मेहरू तो उसकी आवश्यकता थी,पर रफीक आँख की किरकिरी,जबकि रफीक अपनी माँ की आँख का तारा था। भला क्यों नहीं होता,सब जानते हैं कि ‘माय का जी गाय जैसा’। धीरे-धीरे वाहिद को यह बात खटकने लगी और फिर दोनों में प्यार की जगह तकरार ने ले ली। मेहरू का भार तो वाहिद को फूल की तरह लगता था,पर साथ में आया बेटा बड़ा बोझा लगने लगा। खेत से धान का बोझा उठाकर लाने में वह कभी भी पस्त नहीं होता था,पर उसके कपाल पर सदा सवार रहनेवाला रफीक उसे अनचाहा बोझ के रूप में पीड़ाने लगा। इस पर भी गाँव-घर का छुआ-छुआकर मारा गया ताना उसे बराबर कोंच रहा था कि रफीक वाहिद का अपना बेटा नहीं है। इसी बात पर दोनों मियाँ-बीबी में बात-बात पर तकरार होने लगी। जीवन का सुख-चैन रोज-रोज के टंटे में छिनाने लगा। जहाँ पति-पत्नी में दिल चुराने की बात होती थी,वहीं अब दिल छुपाने की बात होने लगी!
‌अब तो वाहिद-मेहरू को एक-दूसरे में कमी-ही-कमी दिखाई पड़ने लगी। दोनों का जीना दूभर हो गया। रोज-रोज की बकझक,मारपीट में तो नियमित खाना-पिलाना भी भुलाने लगा। बीबी अंदर इंतजार करती रही तो मियाँ बाहर ही रहने लगा और वह भी शराब के नशे में धुत। इधर बीबी शौहर के आने के इंतजार में ढंढे हुए चूल्हे के पास ही लुढ़कने लगी! दोनों के बीच एक विषम सोच ने घर कर लिया था। वाहिद अपने देह-सुख के लिए मेहरू को छोड़ना नहीं चाहता था पर,दूसरे से जन्मे बेटे को अपना बेटा कहने के लिए दिल को भी मना नहीं पा रहा था। मेहरू तो दिलो-जान से वाहिद को चाहती थी,पर अपने कलेजे के टुकड़े को वह दिल से अलग भी नहीं कर पाती थी। सच कहा है-
‘दैव पेट की भूख जहाँ हो,वहाँ जिगर की भूख न देना।
जलने को जो बनी चकोरी,उसको चन्द्र मयूख न देनाll'(कलक्टर सिंह ‘केसरी’)
‌इसका नतीजा यह हुआ कि दोनों में तकरार बढ़ती गई । पति-पत्नी की जीवन-चक्की तो किसी तरह चल रही थी,पर दोनों पाटों के बीच रफीक जरूर पिस रहा था,जो खाने के काम तो नहीं आ रहा था,पर दिल जलाने के काम जरूर आ रहा था। वाहिद-मेहरू के बीच अनबन इतनी बढ़ गई कि दोनों एक-दूसरे को फूटी आँख नहीं भाने लगे! दोनों की इस लीला को देखकर बड़े-बूढ़ों से भी नहीं रहा गया। वे भी दोनों को समझाने-बुझाने लगे,पर देखिए दैब का खेल, दोनों टस से मस नहीं हुए।
‌धीर-धीरे मन की कोमल भावनाएँ कड़ी होने लगीं और एक दिन वाहिद के मन में विचार आया कि क्यों नहीं झगड़े की जड़ को ही खत्म कर दिया जाए! इसी दुर्भावना में बीतते रात-दिन में एक कुचक्र का ताना-बाना बुना जाने लगा।
‌वाहिद का भाई अफलातून लूट-पाट,मार-काट में ही अधिक रहता था। वाहिद ने अफलातून को अपनी परेशानी बताई। फिर क्या था,अफलातून ने उसी समय सुझाव दे दिया कि इस झंझट को जड़ से ही काट डाला जाए। वाहिद अनमने भाव से ही सही,इस पर तुरत राजी हो गया। तभी दोनों ने एक मंसूबा बना लिया कि रात जब गहराए,सभी लोग सो जाएं और चारों ओर घटा-टोप अंधेरा छा जाये,अफलातून वाहिद के पास आये और वाहिद पेट गड़बड़ाने का बहाना बनाकर रफीक को बाहर ले आए। रात्रि में वाहिद जल्दी घर आ गया और मेहरू से मीठी-मीठी बातें कर रफीक को भी भरपेट खाना खिलाने के लिए आग्रह कर बैठा। मेहरू वाहिद के इस तरह के बदले व्यवहार से पहले तो चौंक पडी़,पर फिर,अंतर से खुश हो गई। खाना-पीना कर वाहिद के साथ सोकर स्वर्ग-सुख भोगते हुए कब गहरी नींद में सो गई,इसका उसे पता ही नहीं चला। मानो मरता धान में पानी पड़ गया हो! अफलातून आधी रात बीतते-बीतते वाहिद के पास आया,जिसका वाहिद इंतजार ही कर रहा था। वह मेहरू के पास से चुपके से हटा और रफीक के पास जाकर उसे झकझोर कर उठाया और रफीक से बोला कि उसका पेट खराब लगता है और तुरत शौच को जाने की इच्छा हो रही है,इसीलिए वह जलती ढिबरी लेकर उसके साथ चले,ताकि अंधेरे में किसी साँप-बिच्छू पर उसका पैर नहीं पड़ जाए। रफीक इस प्रकार साथ चलने के लिए तैयार हो गया कि उसे लगा कि उसके भाग्य खुल गये हैं। प्यार से कही गई इन बातों को सुन रफीक अपने को धन्य मान बैठ वह वाहिद के साथ जलती ढिबरी लेकर आगे-आगे चलने लगा।‌
‌उन दोनों के घर से निकलते ही अफलातून ने पीछे से आकर रफीक को कस के पकड़ लिया। जब तक रफीक चूं-चां करता, अफलातून ने कपड़े से उसके मुँह को कस कर बाँध दिया और उसको खींचते हुए गाँव से बाहर बंसवाड़ी की ओर ले गया। बंसवाड़ी के पीछे की ओर एक कटे बाँस के खूंट से रफीक के हाथ-पाँव कसकर बाँध दिया। मुँह तो बंधा था ही,इसीलिए वह कोई आवाज़ नहीं कर सका! रफीक की गुंगाहट और आँख के आँसू का अंधेरे में भी अनुभव करके वाहिद और अफलातून उस पर द्रवित नहीं हो हो सका,लेकिन वे दोनों अपने मन को उतना कठोर नहीं बना पा रहे थे,ताकि अपने मंसूबे को अंजाम दे सकें! वध-स्थल पर छागर का भी मिमियाना बर्दाश्त नहीं होता है,इसीलिए तो उसके मुँह को हाथ से दबाकर बंद कर दिया जाता है और यह तो आदमी का ही बच्चा था। वाहिद-अफलातून ने रफीक को काटने के लिए तेज धारवाली हँसुली के बारे में एक-दूसरे से पूछताछ की तो पता चला कि वह तो वे घर से लाना भूल ही गये थे। दोनों की अंत: चेतना भी कोई पाप करने से उन्हें रोक रही थी और पकड़े जाने का मन में भय भी था ही। फिर भी दोनों अफलातून के घर आये। पहले तो दोनों ने जमकर शराब पी, फिर हँसुली लेकर दोनों बंसवाड़ी की ओर चले। बिना राह या खेत का विभेद किए,रास्ते की घास को रौंदते हुए,लक्ष्य पाने के उतावलेपन में बिना राह देखे चलते चले! रात में एकदम सन्नाटा पसरा था। दूर की आवाज भी साफ सुनाई दे जाती थी। दूर से ही उनके आने की आहट सुनकर रफीक ने किसी प्रकार से अपने मुँह पर बंधे कपड़े को बाँस के उसी खूँट से फँसाकर खोल लिया और जोर-जोर से रोकर अपने बाप और चाचा से गुहार लगाने लगा कि बाबू-काका मुझे नहीं मारो! मेरा बंधन खोल दो! मैं कहीं भाग जाऊँगा और लौटकर फिर नहीं आऊंगा। मैं अपनी वालिदा (माँ) को भी नहीं बताऊंगा। न उसे अपना मुँह ही दिखाऊंगा,लेकिन वाहिद और अफलातून ने उसकी एक नहीं
सुनी,शराब के नशे में रफीक की ओर बढ़ते रहे। दोनों के मन में एक ही बात उमड़-घुमड़ रही थी कि रफीक की माँ मेहरू के जगने के पहले ही रफीक का काम तमाम कर दिया जाए! इसी रौ में वे एक खेत के बीचों-बीच चल रहे थे कि किसी ठंडी चीज से उन दोनों का पैर टकरा गया और एक भयंकर फुफकार की आवाज़ सुनाई पड़ी। जब तक दोनों चौंकते और भागते कि दोनों को पैरों में तेज चुभन महसूस हुई। दोनों जान चले जाने के भय से वहीं गिर पड़े। न वे जान सके,न बता हके कि उन्हें किसने काट खाया! यह तो सहज अनुमान ही है उन दोनों को किसी विषधर साँप ने डंस लिया होगा! डँसे जाने के भय और विष के तेज प्रभाव से दोनों छटपटाने लगे और होश खोकर गिर पड़े।
‌कहाँ तो एक बार में ही किसी गैर के बेटे को काट कर गिरा देने की बात सोच रखे थे,कहाँ एक ही बार में दोनों कटे पेड़ की तरह हरहरा के गिर पड़े!
‌सच ही कहा है-
‌’जिसको राखे साइयाँ,मार सकया न कोय।’
‌रफीक को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे! रोने के सिवा उसके पास कोई चारा नहीं था,क्योंकि उसके हाथ-पैर तो अभी भी बंधे हुए थे। इसी विस्मय में रफीक वहीं उस बंसखूट से बंधा रहा।
‌सूबह होने पर गाँववालों के समक्ष यह अनहोनी सामने आई। जितने लोग,उतनी बातें! कोई कहता यह अनजाने में कैसा हादसा हो गया। लम्बी लाठी से हिलाने-डुलाने से लोग समझ गये कि वाहिद और अफलातून के पंख-पखेरू उड़ चुके हैं। आनन-फानन में रफीक के बंधे हाथ-पैर लोगों ने खोल दिए। इसी बीच गाँव में हो रहे घौल को सुनकर रफीक की माँ मेहरू वहाँ आ गई! बेटे के बच जाने की बात सुन-देख कर खुशी के आँसू उसकी आँखों में छलक आए तो पति वाहिद की मृत्यु देखकर वे ही आँसू झर-झर कर गिरने लगे।
‌गाँव के प्राय: सभी जनाना-मरद इस हर्ष-विषाद को देखने आ गये। गाँव के चिकित्सक को भी स्वयंसेवकों द्वारा निहोरा-विनती कर के बुलाया गया,पर उन्होंने भी जिंदा होने की बात पर हामी नहीं भरी! संतोष के लिए मेहरू की जिद्द पर झाड़-फूंक करने वाले को भी बुलाया गया;पर, कोई उपाय कारगर नहीं हुआ।
‌कन्ना-रोहट मच गया। रफीक माँ के गले से लिपट कर भी जान-जाने के भय से छूट नहीं सका था। जितने मुँह उतनी बातें! कोई कहता दैव ने दण्ड दे दिया। कोई कहता इस हाथ दे, उस हाथ ले,यही तो ‘नैसर्गिक न्याय’ है।
‌आज भी यह कहानी सुनकर लोगों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
‌चुमौना करने वालों के लिए एक सीख भी है कि विधवा-विधुर का जीवन सिर्फ उनका ही नहीं,उनके आश्रितों का भी है!
(सूचना:कहानी में इंगित घटना सत्य है,पर पात्र काल्पनिक हैं।)

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

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