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मैं मज़दूर बोल रहा हूँ…

डॉ. वंदना मिश्र ‘मोहिनी’
इन्दौर(मध्यप्रदेश)
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आज चारों ओर मेरे ही नाम का शोर है,मेरे प्रति शाब्दिक संवेदनशीलता सोशल मीडिया पर गूँज रही है,सिर्फ मोबाइल की काला पर्दा ही नहीं,आपके घरों दीवारों पर लटका काला पर्दा भी आजकल मेरे पैरों के छाले दिखा रहा है…ट्राली बैग पर लेटे मेरे बच्चे को मेरी बीवी लंगड़ाते हुए खींचे चली जा रही है…तो कहीं ट्रेन की पटरी पर बिछी मेरी लाश के टुकड़ों को समेटेते दृश्य यह कहते हुए दिखाए जा रहे कि,इन दृश्यों से आप विचलित भी हो सकते हैं…।
कुछ हफ़्तों पहले ही मुझे अचानक किसी ने बताया था कि,देश पर लाइलाज़ बीमारी का संकट है। तब ठेकेदार से पूछा था क्या यह बीमारी गरीबी से भी खतरनाक है…?
फिर मैंने मन ही मन सोचा कि,ठेकेदार झूठ बोल रहा है पिछले कई दशकों में कितनी ही बीमारियां आई और चली गयी…कुछ का इलाज हुआ तो कुछ समय के साथ खत्म हो गई…। ये मेरा क्या बिगाड़ लेगी।
गरीबी की लाइलाज़ बीमारी से लड़ते- लड़ते मेरी रोग प्रतिरोधक क्षमता इतनी बढ़ गई कि,स्पेनिश फ्लू,चिकनगुनिया,
डेंगू,सिलिकोसिस,टी.बी. और पता नहीं कौन-कौन-सी बीमारी भी मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकी। रोटी की ३ खुराक रोजाना लेता हूँ,संसार की व्यायामशाला में घण्टों पसीना बहाता हूँ…रात को किसी निर्माणाधीन इमारत के सामने उबड़-खाबड़ मैदान में खुले आसमान के नीचे सो जाता हूँ। साब,एक इमारत की बात नहीं,आपके शहर वो सबसे ऊंची भवन जिसके आखरी माले को देखने की कोशिश में आपकी गर्दन में लचक आ जाए,उसे मैंने ही तो अपने वजन से ज्यादा वजनी सीमेंट की बोरियों को सिर पर रखकर पच्चीसवें माले पर चढ़ाया था। आपके शहर के १००० फुट गहरे बोरिंग से पानी निकालने के लिए मैंने ही बोरवेल मशीन के भारी-भरकम राड को अपने कंधों पर ढोया था।
आपको पानी चाहिए था,इसलिए खुले आसमान के नीचे सारी जिंदगी गुजारने वाले ने पाताल का पेट चीर कर आपको पानी दिया था।
ये जो पहाड़ो की चोटियों पर भगवान के घर बने है ना…इन मंदिरों के पत्थरों को मैंने अपनी पीठ पर ढोया है। इन दिनों जो सफेद कपड़ों में भगवान दिख रहे हैं ना..उनके गगनचुंबी अस्पतालों की जमीन से छत तक मेरा अक्स ही दिखाई देगा। जहाँ आपके बच्चे पढ़ते हैं ना ..उन शिक्षा केंद्रों की नींव से कंगूरों तक मैं ही मिलूंगा।
मुझे अच्छी तरह से याद है जब मुझे बताया गया कि जीने के लिए अन्न चाहिए और अनाज के लिए खेतों को पानी,तो फिर मैंने नदियों के प्रचण्ड प्रवाह के सामने बाँधों की दीवार खड़ी कर दी। उसी से खेत में जब फसल पकी तो भरी दोपहरी में मैंने ही उसे काटा..अपने कंधों पर ढोया..मिलों में उसे पीस कर आटा बना दिया,जिससे बनी रोटी के लिए ही आज सड़कों पर धक्के खाता फिर रहा हूँ।
कभी मुझे किसीने कहा ‘गरीबी हटाओ’ मैं उसके साथ खड़ा हो गया लेकिन खड़ा ही रह गया और एक दिन उसने कहा मैं एक रुपया भेजता तो तुम तक पन्द्रह पैसे ही पहुँचते हैं। कभी लगता है मेरे गाँवों को उजाड़ कर बने ये शहर मेरे उन्हीं ८५ पैसों से बने हैं। आज़ादी के बाद ज्यादातर समय मुझे ठगा ही गया। जिसे मैंने रहनुमा बनाया,उसे मुझ पर कभी रहम न आया। खैर,मैं रहम की भीख मांगता भी नहीं,मैंने तो सिर्फ देना ही सीखा है। गौर से देखोगे तो तुम्हारे महलों में मेरे पसीने की महक ही महसूस होगी। आज भारत में मेरी संख्या ४५ करोड़ है,मैंने राष्ट्र निर्माण के लिए पसीना बहाना सीखा है। चीन के माओवादी षड्यंत्रकारियों ने मुझे अपनी खूनी क्रांति का पाठ पढ़ाने की कोशिश ५ दशकों से की है,लेकिन वो कामयाब नहीं हो सका,क्योंकि मैंने मौका मिलते ही अपने बच्चों को भारतीय सेना, अर्धसैन्य बलों में भेजा,क्योंकि मैं गरीब जरूर हूँ ,पर देशद्रोही नहीं। देश की आपात स्थितियों को सदा से समझता रहा हूँ,आज भी लाखों की संख्या में सड़कों पर हूँ,तमाम अराजकतावादियों के बहकावी हथकंडों के बावजूद हिंसक नहीं हुआ। तमाम पीड़ाओं के बाद भी सर्वसामान्य समाज के लोगों की संवेदनशीलता ने मुझे प्रभावित किया। पिछले ७ दशकों के नीति नियन्ताओं की गाँव उजाड़ कर शहरों को विकसित करने की सनक ही मेरे सड़क पर होने का सबसे बड़ा कारण है। मैं पूछता हूँ हजारों गाँवों को कल उजाड़ कर एक शहर बना दिया,लेकिन ये सारे शहर मिलकर भी क्या एक आदर्श गाँव बना सके हैं? गाँधी के ग्राम स्वराज्य को पुस्तकालय में बन्द कर यूरोप के माल के लिए अपनी तिजोरियों खोलने वाले आज सड़कों पर मज़दूर के हमदर्द होने का पाखण्ड कर रहे हो। सत्ता के लालच में मुझे जिसने भी मुद्दा बनाने की कोशिश की, इतिहास गवाह है उसने मुझे मुर्दा बनाने की साजिश की।
आज की समस्या तो तात्कालिक है थोड़े समय में समाप्त हो जाएगी लेकिन मेरे कदम अब गाँव की ओर चल पड़े हैं वो वापस शहर की तरफ नहीं आना चाहते,ये तभी सम्भव है जब ग्राम केन्द्रित रोजगार,प्रकृति केन्द्रित विकास और संस्कृति केन्द्रित जीवन पद्धति की नीति के मूलमंत्र हो हमें पश्चिमी दिग्भ्रमित ,दिशाहीन विकास मृगमरीचिका के मोहपाश से मुक्त होकर जड़ों की ओर लौटना होगा।
अर्थशास्त्रीयों पुनर्विचार करो,मैं देश पर बोझ नहीं,राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का वाहक हूँ…मैं मज़दूर हूँ…।

परिचय-डॉ. वंदना मिश्र का वर्तमान और स्थाई निवास मध्यप्रदेश के साहित्यिक जिले इन्दौर में है। उपनाम ‘मोहिनी’ से लेखन में सक्रिय डॉ. मिश्र की जन्म तारीख ४ अक्टूबर १९७२ और जन्म स्थान-भोपाल है। हिंदी का भाषा ज्ञान रखने वाली डॉ. मिश्र ने एम.ए. (हिन्दी),एम.फिल.(हिन्दी)व एम.एड.सहित पी-एच.डी. की शिक्षा ली है। आपका कार्य क्षेत्र-शिक्षण(नौकरी)है। लेखन विधा-कविता, लघुकथा और लेख है। आपकी रचनाओं का प्रकाशन कुछ पत्रिकाओं ओर समाचार पत्र में हुआ है। इनको ‘श्रेष्ठ शिक्षक’ सम्मान मिला है। आप ब्लॉग पर भी लिखती हैं। लेखनी का उद्देश्य-समाज की वर्तमान पृष्ठभूमि पर लिखना और समझना है। अम्रता प्रीतम को पसंदीदा हिन्दी लेखक मानने वाली ‘मोहिनी’ के प्रेरणापुंज-कृष्ण हैं। आपकी विशेषज्ञता-दूसरों को मदद करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“हिन्दी की पताका पूरे विश्व में लहराए।” डॉ. मिश्र का जीवन लक्ष्य-अच्छी पुस्तकें लिखना है।

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