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वरिष्ठों की त्रासदी-कैसे उबरें!

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥

भावार्थ-जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है,वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है।’ (श्रीमद्भगवद्गीता २/२२)
‘कोरोना’ महामारी के चलते चार बार तालाबंदी झेलनी पड़ी। इसमें कई मुसीबतों का सामना करना पड़ा पर,सबसे कठिन रहा घर-समाज से दूर रहना! पर,इससे एक फायदा तो जरूर हुआ कि बाहर जाने के लिए पहने जाने वाले कपड़ों की उम्र लम्बी हो गई। वे शान से अलमारी में पड़े रहे। न धूल फाँकने की चिन्ता,न पानी में डूबने की ही आशंका,लेकिन एक आफत घर में पहने जाने वाले कुर्ते,पाजामे और धोती (साड़ी) पर जरूर पड़ी। घर में रहते हुए चौबीसों घंटे उनको देह की गर्मी सहनी पड़ी! रोज-रोज पानी में डूबना पड़ा,साबुन,पाउडर की संगत का खमियाजा उठाना पड़ा! नतीजा क्या हुआ कि आलमारी में पड़े कपड़े तो मुस्कुराते रहे और देह पर के कपड़े इस तालाबंदी और अ-तालाबंदी-१ के चलते फटते रहे। एक बार एक कुर्ते के फटने पर पत्नी जी ने उसे ठिकाने लगाने नहीं दिया और झट से पुराने पड़े डिब्बे के जंग खाये ढक्कन को खोला और कुर्ते को सुई लगा दी। मजाल है कोई कह दे कि दर्जी की काँट-छाँट के सिवा कभी यह कुर्ता फटा भी था। मुझे भी कुर्ते को सही सलामत पाकर बड़ा आनन्द आया पर,आज वह कुर्ता फिर फट गया तो पत्नी जी सुई लगाने को तैयार हो गयीं; लेकिन मैंने ही उन्हें अधिक मोह से जुड़ी हुई कह दिया और बताया कि ‘मोह दीर्घकालिक लक्ष्यों के डर से किसी लघुकालिक आनन्द में अपने आपकी इच्छा जागृत करने की प्रवृति को कहते हैं।’
इसीलिए मनुष्य पुराने-वस्त्र को त्याग कर नये वस्त्र को ग्रहण करता है,अत: पुराने कुर्ते को छोड़ना ही श्रेयस्कर है।
उन्होंने जबाब दिया कि कुर्ता तो आसानी से नया खरीदा जा सकता है, पर जिसका अर्द्धांग ही पुराना हो गया वह अर्द्धांगिनी क्या करे ? हमने समझाया कि इसके लिए तो गीता में भी कह दिया गया है कि मोह त्याग देना चाहिए! पर,पत्नी का कहना था कि जब तक साँस,तब तक आस! मैंने कहा अधिक उम्र के लोगों पर तो आफत ही आफत है। अ-तालाबंदी-१(राहत)अवधि में सब तो अपनी सुविधा के अनुसार आ-जा सकते हैं;पर,जो लोग पैंसठ पार कर गये हैं,उन्हें बहुत आवश्यक होने पर ही बाहर निकलना चाहिए ,ऐसा संदेश रोज़-रोज़ देखने-पढ़ने को मिलता है! अब शरीर को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए बाहर निकलना होता ही है,तो बाहर की ओर देखेंं भी तो इस ८३ वर्ष को सर पर लटकती हुई उपदेश की दुधारी तलवार ही दिखाई पड़ती है।
दो-तीन दिन पहले ही एक अति वरिष्ठ नागरिक अपने वाङ्ममयिक कार्य से कहीं जा रहे थे,तो रास्ते में ही पुलिस ने रोक दिया और घर वापस भेजते हुए कहा कि जब आप जैसे वरिष्ठ नागरिक ही नियम का उल्लंंघन करेंगे तो और लोग क्या करेंगे! श्रीमद्भगवद्गीता में सूत्र वाक्य के सदृश सच कहा गया है कि:
“यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥”

(३/२१)
अर्थात्,
“श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करते हैं,अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है समस्त मनुष्य समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है।”
लेकिन,विश्व को कर्म प्रधान कहा गया है ‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस करहिं सो तस फल चाखा॥’ ( श्रीरामचरितमानस)
तो घर से बिना निकले,क्या काम चलेगा! जो ६५ उर्ध्वगामी के लिए बड़ी अड़चन है! कर्म के बारे में वेद का भी ऐसा ही निर्देश है:
‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:।
एवं त्वयि नान्यथेतोस्ति न कर्मलिप्यते नरे॥(यजुर्वेद ४०/२)
अर्थात्,
“मनुष्य इस संसार में कर्मों को करता हुआ सौ वर्षों तक जीवित रहना चाहे। इस तरह तुझ नर में कर्म लिप्त नहीं होगा। इसके अतिरिक्त और कोई ऊपाय नहीं है।”
इसलिए,६५ उर्ध्वगामियों को कैसे घर में ही रहकर जीवन-यापन करना होगा, इस पर विचार कर कार्यक्रम बनाना आवश्यक होगा। इस विषय में यह सुझाव ग्राह्य हो सकते हैं-जो भी करें यह सोचकर करें कि इसे अंतिम बार कर रहे हैं। इससे उस काम की पूर्णता प्राप्त हो जाएगी। जो भी सकारात्मक कार्य करने की इच्छा हो,उसे आज या जल्द ही कर डालें;कल पर न छोड़ें। अगर संभव हो तो नित डायरी लिखें और कर सकें तो अपने अनुभव,संस्मरण,अपनी आत्मकथा लिखें।
कहीं जाना ही पड़े तो मुख पट्टी लगा कर ही जाएँ,निर्धारित एक मीटर की दूरी बनाकर ही चलें,गंतव्य पर बैठें या बात करें। जो घट रहा है,उसे सामान्य रूप से लें,यह मानकर कि इस पर आपका वश नहीं था। किसी भी स्थिति में विचलित न हों। बच्चों के साथ बच्चे और बड़ों के साथ बड़े बनकर रहें। अभिभावक के रूप में सदा मर्यादित व्यवहार रखें। किसी भी रोग-बीमारी की उपेक्षा न करें,वरन् उचित चिकित्सा लें। यह भावना मन में नहीं लाएँ कि अब मेरा क्या होगा ? जीवन-साथी तथा परिवार के सहयोग के लिए प्रयत्नशील रहें! जिनकी इस स्थिति में कहीं कमी हो तो वे ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का भाव लेकर चलें। क्षमाशील बनें,अपनी बात थोपने का प्रयास नहीं करें।
सारांशत-
कुछ करते रहें ऐसा,लगे जो जीवनभर-
कल के सपने सच करने,रहे सदा हम तत्पर।
जिस हाल में भी हम हों,चलें हमसब मिलकर-
होगा जरूर गरिमामय,जीवन का यह सफर॥

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

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