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हिन्दी के लिए लड़ने वाला सबसे बड़ा वकील महात्मा गाँधी

प्रो. अमरनाथ
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
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गाँधी जी ने हिन्दी के आन्दोलन को आजादी के आन्दोलन से जोड़ दिया था। उनका ख्याल था कि,देश जब आजाद होगा तो उसकी एक राष्ट्रभाषा होगी और वह राष्ट्रभाषा हिन्दुस्तानी होगी,क्योंकि वह इस देश की सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली और समझी जाने वाली भाषा है। वह अत्यंत सरल है,और उसमें भारतीय विरासत को वहन करने की क्षमता है। उसके पास देवनागरी जैसी वैज्ञानिक लिपि भी है,जो फारसी लिपि जानते हैं वे इस भाषा को फारसी लिपि में लिखते हैं। इसे हिन्दी कहें या हिन्दुस्तानी। आरंभ से ही गांधीजी के आन्दोलन का यह एक मुख्य मुद्दा था। अपने पत्रों ‘नवजीवन’ और ‘यंग इंडिया’ में वे बराबर इस विषय पर लिखते रहे।हिन्दी-हिन्दुस्तानी का प्रचार करते रहे। जहां भी मौका मिला खुद हिन्दी में भाषण दिया। गांधी जी के प्रयास से १९२५ ई. के कानपुर अधिवेशन में कांग्रेस का काम-काज हिन्दुस्तानी में करने का प्रस्ताव पारित हुआ। इस प्रस्ताव के पास होने के बाद गाँधी जी ने इसकी रिपोर्ट अपने पत्रों ‘यंग इंडिया’ और ‘नवजीवन’ दोनों में दी थी। उन्होंने ‘यंग इंडिया’ में लिखा था,-“हिन्दुस्तानी के उपयोग के बारे में जो प्रस्ताव पास हुआ है,वह लोकमत को बहुत आगे ले जाने वाला है। हमें अब तक अपना काम-काज ज्यादातर अंग्रेजी में करना पड़ता है,यह निस्संदेह प्रतिनिधियों और कांग्रेस की महासमिति के ज्यादातर सदस्यों पर होने वाला एक अत्याचार ही है। इस बारे में किसी न किसी दिन हमें आखिरी फैसला करना ही होगा। जब ऐसा होगा,तब कुछ वक्त के लिए थोड़ी दिक्कतें पैदा होंगी,थोड़ा असंतोष भी रहेगा, लेकिन राष्ट्र के विकास के लिए यह अच्छा ही होगा कि,जितनी जल्दी हो सके,हम अपना काम हिन्दुस्तानी में करने लगें”(यंग इंडिया)।

  गाँधी जी ने गुजरात के द्वितीय शिक्षा सम्मेलन में दिए गए अपने भाषण में राष्ट्रभाषा के कुछ विशेष लक्षण बताए थे,वे निम्न हैं-वह भाषा सरकारी नौकरों के लिए आसान होनी चाहिए,उस भाषा के द्वारा भारत का आपसी धार्मिक,आर्थिक और राजनीतिक कामकाज शक्य होना चाहिए,उस भाषा को भारत के ज्यादातर लोग बोलते हों,वह भाषा राष्ट्र के लिए आसान होनी चहिए,उस भाषा का विचार करते समय क्षणिक या अस्थायी स्थिति पर जोर न दिया जाए। उक्त ५ लक्षणों को गिनाने के बाद गाँधी जी ने कहा था कि हिन्दी भाषा में ये सारे लक्षण मौजूद हैं और फिर हिन्दी भाषा के स्वरूप की व्याख्या करते हुए कहा,-“हिन्दी भाषा मैं उसे कहता हूँ,जिसे उत्तर में हिन्दू और मुसलमान बोलते हैं और देवनागरी या फारसी (उर्दू) लिपि में लिखते हैं। ऐसी दलील दी जाती है कि,हिन्दी और उर्दू दो अलग-अलग भाषाएं हैं। यह दलील सही नहीं है।उत्तर भारत में मुसलमान और हिन्दू एक ही भाषा बोलते हैं,भेद पढ़े-लिखे लोगों ने डाला है। इसका अर्थ यह है कि,हिन्दू शिक्षित वर्ग ने हिन्दी को केवल संस्कृमय बना दिया है। इस कारण कितने ही मुसलमान उसे समझ नहीं सकते हैं। लखनऊ के मुसलमान भाइयों ने उस उर्दू में फारसी भर दी है,और उसे हिन्दुओं के समझने के अयोग्य बना दिया है।ये दोनों केवल पंडिताऊ भाषाएं हैं,और इनको जनसाधारण में कोई स्थान प्राप्त नहीं है। मैं उत्तर में रहा हूँ,हिन्दू-मुसलमानों के साथ खूब मिला जुला हूँ और मेरा हिन्दी भाषा का ज्ञान बहुत कम होने पर भी मुझे उन लोगों के साथ व्यवहार रखने में जरा भी कठिनाई नहीं हुई है। जिस भाषा को उत्तरी भारत में आम लोग बोलते हैं,उसे चाहे उर्दू कहें चाहे हिन्दी,दोनों एक ही भाषा की सूचक है। यदि उसे फारसी लिपि में लिखें,तो वह उर्दू भाषा के नाम से पहचानी जाएगी और नागरी में लिखें तो वह हिन्दी कहलाएगी।”(सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय,खण्ड-१०,पृष्ठ-२९)

गाँधी जी चाहते थे कि,बुनियादी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक सब कुछ मातृभाषा के माध्यम से हो।दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान ही उन्होंने समझ लिया था कि,अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा हमारे भीतर औपनिवेशिक मानसिकता बढ़ाने की मुख्य जड़ है। ‘हिन्द स्वराज’ में ही उन्होंने लिखा कि,“करोड़ों लोगों को अंग्रेजी शिक्षण देना उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। हम स्वराज्य की बात भी पाराई भाषा में करते हैं,यह कैसी बड़ी दरिद्रता है ?….यह भी जानने लायक है कि जिस पद्धति को अंग्रजों ने उतार फेंका है,वही हमारा श्रृंगार बनी हुई है। वहां शिक्षा की पद्धतियां बदलती रही हैं,जिसे उन्होंने भुला दिया है,उसे हम मूर्खतावश चिपकाए रहते हैं। वे अपनी मातृभाषा की उन्नति करने का प्रयत्न कर रहे हैं। वेल्स,इंग्लैण्ड का एक छोटा-सा परगना है,उसकी भाषा धूल के समान नगण्य है। अब उसका जीर्णोद्धार किया जा रहा है…। अंग्रेजी शिक्षण स्वीकार करके हमने जनता को गुलाम बनाया हैl अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त लोगों ने जनता को ठगने और परेशान करने में कोई कसर नहीं रखी। जनता की हाय अंग्रेजों को नहीं हमको लगेगी”(संपूर्ण गांधी वांग्मय)l

गाँधी जी कहते थे कि,नेता अंग्रेजी में भाषण दें,जनता समझे नहीं,ऐसे नेता न तो देश में कोई बड़ा परिवर्तन कर सकते थे,न उनकी राजनीति जनता की राजनीति बन सकती थी। सन् १९३१ में गाँधी जी ने लिखा था,-“यदि स्वराज अंग्रेजी पढ़े भारतवासियों का है,तो संपर्क भाषा अवश्य अंग्रेजी होगी। यदि वह करोड़ों भूखे लोगों,करोड़ों निरक्षर लोगों,निरक्षर स्त्रियों,सताए हुए अछूतों के लिए है तो संपर्क भाषा केवल हिन्दी ही हो सकती है।

अपने देश के संदर्भ में अंग्रेजी शिक्षा की अनिष्टकारी भूमिका को पहचानने में उनकी अनुभवी दृष्टि धोखा नहीं खा सकती थी। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए ही वे अच्छी तरह समझ चुके थे कि,भारत का कल्याण उसकी अपनी भाषाओं में दी जाने वाली शिक्षा से ही संभव है। भारत आने के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एक उद्घाटन समारोह में जब लगभग सभी गणमान्य महापुरुषों ने अपने भाषण अंग्रेजी में दिए,एकमात्र गाँधी जी ने अपना भाषण हिन्दी में देकर अपना इरादा स्पष्ट कर दिया था। संभवत:,किसी सार्वजनिक समारोह में यह उनका पहला हिन्दी भाषण था। उन्होंने कहा,-‘इस महान विद्यापीठ के प्रांगण में अपने ही देशवासियों से अंग्रेजी में बोलना पड़े,यह अत्यंत अप्रतिष्ठा और लज्जा की बात है…मुझे आशा है कि इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबंध किया जाएगाl हमारी भाषा हमारा ही प्रतिबिंब है और इसलिए यदि आप मुझसे यह कहें कि हमारी भाषाओं में उत्तम विचार अभिव्यक्त किए ही नहीं जा सकते ,तब तो हमारा संसार से उठ जाना ही अच्छा है। क्या कोई व्यक्ति स्वप्न में भी यह सोच सकता है कि अंग्रेजी भविष्य में किसी भी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है ? फिर राष्ट्र के पाँवों में यह बेड़ी किसलिए ? यदि हमें पिछले पचास वर्षों में देशी भाषाओं द्वारा शिक्षा दी गयी होती,तो आज हम किस स्थिति में होते! हमारे पास एक आजाद भारत होता,हमारे पास अपने शिक्षित आदमी होते जो अपनी ही भूमि में विदेशी जैसे न रहे होते,बल्कि जिनका बोलना जनता के हृदय पर प्रभाव डालता।”(शिक्षण और संस्कृति,पृष्ठ-७६५)

  संभव है यहां कुछ लोग मातृभाषा से तात्पर्य अवधी,ब्रजी,भोजपुरी,मैथिली,मगही,अंगिका आदि लें,क्योंकि आजकल चन्द स्वार्थी लोगों द्वारा अपनी-अपनी बोलियों को संवैधानिक मान्यता दिलाने के लिए उन्हें मातृभाषा के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। ऐसे लोग न तो अपने हित को समझते हैं,और न इतिहास की गति को। ऐसे लोगों को गाँधी जी का कथन शायद सद्बुद्धि दे। गाँधी जी ने १९१७ ई. में हिन्दी क्षेत्र के शहर भागलपुर में भाषण देते हुए कहा था,-”आज मुझे अध्यक्ष का पद देकर और हिन्दी में व्याख्यान देने और सम्मेलन का काम हिन्दी में चलाने की अनुमति देकर आप विद्यार्थियों ने मेरे प्रति अपने प्रेम का परिचय दिया है...इस सम्मेलन का काम इस प्रान्त की भाषा में ही और वही राष्ट्रभाषा भी है करने का निश्चय करके आप ने दूरन्देशी से काम लिया है। इसके लिए मैं आपको बधाई देता हूँ। मुझे आशा है कि आप लोग यह प्रथा जारी रखेंगे।”(शिक्षण और संस्कृति,पृष्ठ-५)

स्पष्ट है गाँधी जी ने हिन्दी के स्वरूप की जो अवधारणा प्रस्तुत की,उसके केन्द्र में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बढ़ रही खाई को पाटने की आकाँक्षा काम कर रही थी। विभिन्न संस्कृतियों धर्मावलम्बियों,भाषाओं वाले इस विशाल देश में एकता समन्वय के मार्ग पर चलकर ही कायम की जा सकती थी। हिन्दुस्तानी के बहाने गाँधी जी देश को एक सहज,सर्वसुलभ और सबको जोड़ने वाली भाषा दे रहे थे और सामाजिक समरसता की पुख्ता नींव भी डाल रहे थे। अनायास नहीं है कि गाँधी जी द्वारा स्थापित राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति,वर्धा तथा उस जैसी अन्य कई संस्थाओं का मूलमंत्र है,एक हृदय हो भारत जननी।

हिन्दी का सबसे ज्यादा विरोध जहाँ से हो सकता था,गाँधीजी ने वहाँ हिन्दी के प्रचार के लिए अथक परिश्रम किया। उन्होंने हिन्दी के प्रचार के लिए दक्षिण की कई बार यात्रा की। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा(मद्रास)की स्थापना गाँधी जी ने खुद की थी और अपने पुत्र देवदास गाँधी को मद्रास भेजा,जो वहाँ रहकर हिन्दी का प्रचार करते रहे। गाँधी जी आजीवन सभा के अध्यक्ष रहे,बाद में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और लाल बहादुर शास्त्री भी सभा के अध्यक्ष रहे। निश्चित रूप से गाँधी जी के प्रयास के कारण ही देशभर में और खास तौर पर दक्षिण में दर्जनों संस्थाएं स्थापित हुईं,तथा देश के कोने-कोने में हिन्दी के प्रचार का काम होने लगा। कर्नाटक महिला हिन्दी सेवा समिति बैंगलोर,कर्नाटक हिन्दी प्रचार समिति बैंगलोर,मैसूर हिन्दी प्रचार परिषद्(बैंगलोर),केरल हिन्दी प्रचार सभा (तिरुवनंतपुरम्),आन्ध्रप्रदेश हिन्दी प्रचार सभा हैदराबाद,महाराष्ट्र राष्ट्र भाषा सभा(पुणे),हिन्दुस्तानी प्रचार सभा मुंबई,मुंबई हिन्दी विद्यापीठ(मुंबई),ओड़िसा राष्ट्रभाषा परिषद् (जगन्नाथधाम पुरी),मध्य भारत हिन्दी प्रचार समिति(इंदौर),राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा आदि संस्थाएं गांधी जी की प्रेरणा से ही खुलीं। इसी तरह गाँधी जी के दूसरे अनुयायी आचार्य बिनोवा भावे के प्रयास से नागरी लिपि के प्रचार-प्रसार के लिए नागरी लिपि परिषद् का गठन हुआ,जो आज भी सक्रिय है।

गाँधी जी के व्यक्तित्व का इतना असर था कि,देशभर में निष्ठावान हिन्दी प्रचारकों की एक फौज खड़ी हो गई। केरल में दामोदरन उन्नी,पी. के. केशवन नायर,आन्ध्र प्रदेश के मोटूरि सत्यनारायण,बेमूरि आँजनेय शर्मा तथा उनके भाई बेमूरि राधाकृष्ण शर्मा,मुनीम जी आदि उनमें से कुछ प्रमुख हैं।

पूर्वोत्तर में हिन्दी का प्रचार करने का काम गाँधी जी ने अपने प्रमुख अनुयायी बाबा राघवदास को सौंपा। सन् १९२६ ई. में हिन्दी के प्रचार के लिए अनेक नेताओं ने पूर्वाँचल का दौरा किया। असम के महान जननेता और गाँधीजी के अनन्य अनुयायी गोपीनाथ बरदलै की अध्यक्षता में गुवाहाटी में हिन्दी प्रचार समिति बनी,जिसमें काका साहब कालेलकर उपस्थित थे। इसके बाद समूचे पूर्वोत्तर में हिन्दी प्रचार की लहर चल पड़ी। सुदूर मणिपुर में मणिपूर हिन्दी परिषद जैसी संस्थाएं आज भी सक्रिय हैं।नवीनचंद्र कलिता,हेमकान्त भट्टाचार्य,रजनीकान्त चक्रवर्ती,कमल नारायण,नवारुण वर्मा जैसे हिन्दी सेवियों ने अपनी पूरी जिन्दगी हिन्दी के लिए न्योछावर कर दी। हम राष्ट्रपिता द्वारा हिन्दी के लिए किए गए अविश्वसनीय से प्रतीत होने वाले कार्यों का स्मरण करते हैं और उनके प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।

(सौजन्य: वैश्विक हिन्दी सम्मेलन,मुम्बई)