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कल से तीन…

डॉ.पूजा हेमकुमार अलापुरिया ‘हेमाक्ष’
मुंबई(महाराष्ट्र)

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“सुलोचना जरा किचन से टिफ़िन तो लाना। मैं टिफ़िन लेना भूल गया और जूते भी पहन लिये हैं।” सचिन ड्रॉइंग रूम से अपनी पत्नी सुलोचना से कहता है।

सुलोचना किचन से टिफ़िन लाते हुए (मुस्कुराते हुए),-“यह कौन-सी नई बात है। यह तो रोज का किस्सा हो गया है। सब जानती हूँ। बस मुझे तंग जो करना है।”

“अरे! सुलोचना तुम भी न। समझती नहीं हो। इस बहाने घर से निकलने से पहले नैनसुख मिल जाता है। तुम्हें कहाँ पता कि, तुम मेरे लिए क्या मायने रखती हो ? तुम्हारी एक मुस्कुराहट मेरा दिन बना देती है। दिन कैसे बीत जाता है पता ही नहीं…।”

(अंदर से आवाज आती है।) क्यों अब देर नहीं हो रही है ? मुहल्ले वालों को दिखा रहे हो कि…।

“चलो,अब जाओ भी। माँ ठीक ही कह रही हैं। बाय-बाय।(सुलोचना सचिन से कहती है।)

सचिन के ऑफिस जाने के बाद वही घर-गृहस्थी के सौ काम। उन्हीं कामों को समेटने में सुलोचना का दिन बीत जाता,मगर खुश थी। छोटा,मगर सुलझा हुआ परिवार जो मिला था उसे। सचिन में भी कोई खामी नहीं थी। रोज का नियम ९ बजे घर से जाना और शाम साढ़े ५ तक घर लौटना। घर आने पर सुलोचना और माँ,इतना ही था उसका संसार। सुलोचना को घर के काम से फुरसत मिलती तो मायके फोन घुमा लिया करती। सास की अदब और अपने सरल स्वभाव के चलते माँ से राजी-खुशी जान फोन रख दिया करती।

        सुलोचना की लंबी-चौड़ी गुफ़्तगू हुआ करती तो शिखा से। शिखा उसकी बड़ी ननद। दोनों में बड़ी बनती थी। पास ही के मुहल्ले में रहा करती है शिखा। घंटों साथ बिताने पर समय कम ही लगता था। पति निकुंज पेशे से वकील हैं। अक्सर सुलोचना और सचिन से मिलने आते-जाते रहते हैं। सुलोचना की सास काफी बूढ़ी हैं। अपने ही कमरे में ईश्वर के ध्यान में लीन रहती हैं। पूरा दिन सुलोचना क्या करती है ? कितना बनाती है ? क्या बिगाड़ दिया ? क्या पहनती है ? उन्हें इन बातों में कोई रुझान नहीं था,मगर सुलोचना को शिखा से ज्यादा स्नेह करती है।

कभी-कभी तो शिखा माँ के साथ मसखरी करते हुए कहती है,-“क्या माँ सुलोचना को आए अभी कुछ ही महीने हुए हैं और आप उसे मुझसे ज्यादा प्यार करती हो ? भैया के बाद जो बचा-कुचा प्यार मिला करता था,वो भी छीन लिया। देखा माँ,आपने मुझे पराया कर दिया।” शिखा की ऐसी मसखरी को देख सब ठहाका मारा करते।

सुलोचना के हाथ में कमाल का जादू था… जो भी बनाती,बड़ा लाजवाब ही बनता । निकुंज और शिखा तो दीवाने थे। सुलोचना जब भी डिनर के लिए बुलाया करती तो व्यस्तता के बावजूद दोनों कैसे भी समय निकाल लेते। समय क्या निकालते,बस ऐसा समझ लीजिए दौड़े आते।

“शिखा जरा पता करो कि घर पर सब ठीक है न।” निकुंज ने शिखा से कहा।

“क्यों ? क्या हुआ ?”

“कुछ नहीं। बस ऐसे ही कह रहा हूँ।” निकुंज ने कहा ।

आज दोपहर में सुलोचना से बात हुई थी। सब ठीक है। सचिन का अपने रूटीन से ऑफिस जाना। माँ का माला जपना…। सुलोचना तो यही बता रही थी। कुछ हुआ है क्या ? निकुंज बताओ न ?

“अरे! कुछ नहीं शिखा। तुमसे कुछ कहना बेकार है।”

“निकुंज बिना वजह तो तुम कुछ नहीं कहोगे। कुछ हुआ होगा तभी तो…।”

“मेरा एक क्लाइंट है,जो सचिन के ऑफिस में ही काम करता है। उसी से मिलने के सिलसिले में तीन-चार दिन से सचिन के ऑफिस जाना हो रहा है। क्लाइंट मिलने का समय भी लंच के आस-पास का ही देता है। तो सोचा लंच सचिन के साथ ही कर लूँगा। मैं चार दिन से देख रहा हूँ,सचिन रोज कैन्टीन से ही लंच कर रहा है। सुलोचना और सचिन में कुछ अनबन तो नहीं हो गई ? या सुलोचना की तबीयत ठीक न हो। इसलिए तुमसे कहा जरा पता करो।”

“निकुंज आपने सचिन से खुद ही क्यों नहीं पूछ लिया। वो क्या बताने से मना कर देता ? आप भी न। (बात को हल्के में लेते हुए शिखा सोफ़े से उठ ही रही होती है तभी) निकुंज कहता है कि-“पूछा था मगर उसने कुछ नहीं कहा।”

“अरे! ऐसे कैसे ? वो तो तुमसे कुछ नहीं छिपाता। रुको अभी फोन लगाती हूँ। सुलोचना ने भी कुछ नहीं कहा। आखिर चल क्या रहा है ?”

“शिखा फोन रहने दो। कुछ बातें फोन पर नहीं होती। तुम कल घर जाओ और सुलोचना से बात करो। अगर दोनों के बीच कुछ चल रहा है तो हमें उनके बीच की गलतफहमी को दूर करने की कोशिश करनी चाहिए।”

“हूँ! तुम ठीक कह रहे हो। मैं कल ही ….।”

“हाय सुलोचना! कैसी हो ? माँ तो…।”

"मैं ठीक हूँ। माँ भी ठीक है। अपने कमरे में माला फेर रही हैं। कल मंदिर के पंडित जी भी आए थे। माँ पूजा करवाने के लिए कह रही हैं। आप और जीजाजी दोनों समय से आ जाना।"

        (सुलोचना से कुछ रोमांटिक अंदाज में ) “अरे! सुलो डार्लिंग। आपका एक-एक शब्द पत्थर की लकीर है। आप कहे और हम न आए ..... ऐसे कैसे हो सकता है। हम तो मौका ढूँढते हैं। यहाँ आने के लिए।”

        "शिखा बस रहने भी दो। जब देखो मस्ती-मजाक। कभी तो सीरियस भी हो जाया करो। (सुलोचना चाय में दूध डालते हुए कहती है। )"

“तो चलो शिखा बेटा हमारी सुलो का हुकूम है। हमें कभी सीरियस भी होना चाहिए। तो सीरियस ड्रामा होता है स्टार्ट…।)”

सुलोचना शिखा की बातें सुन खिलखिला उठती है। “शिखा तुम भी न। तुम्हें तो कुछ भी कहो बस व्यर्थ …।”

(दोनों चाय की चुस्कियाँ लेते हुए,अपनी उन्हीं साधारण-सी बातों पर लौट आती हैं।)

“सुलोचना अपने हाथ का खाना खा-खा कर मैं बोर हो गई हूँ। सचिन कितना लक्की है। रोज तुम्हारे नर्म-मुलायम हाथों से बड़ी नजाकत से बने खाने का स्वाद लेता है ।” शिखा कुछ दबे स्वर में कहती है।

“शिखा तुम उदास क्यों होती हों ? दो-चार रेसेपी तुम सीख लो,नहीं तो हर शाम आप दोनों डिनर हमारे ही साथ करो। कितना अच्छा लगेगा। सब एक साथ…।”

“मेरी प्यारी सुलो! सिर पर मत चढ़ाओ नहीं तो उतरना मुश्किल हों जाएगा। सुनो न, आज कल सचिन टिफिन नहीं लेकर जाता है क्या ? डाइट पर है क्या ?

“नहीं तो,क्यों ?”

“ऐसे ही पुछ रही थी।”

“शिखा कहो न क्या हुआ ?”

“सुलो जान,कुछ नहीं हुआ। बस यूँ ही पूछ लिया।”

“शिखा मैं तुम्हें खूब जानती हूँ। जल्दी बताओ न क्या हुआ ?”

“पिछले तीन-चार दिन से निकुंज अपने क्लाइंट से मिलने के लिए सचिन के ऑफिस जा रहे हैं। उन्होंने देखा कि सचिन कैंटीन में लंच कर रहा है। सचिन कभी बाहर का खाना नहीं खाता। पहले उन्हें लगा शायद उस दिन टिफिन लाना भूल गया होगा। मगर चारों दिन ….। सुलोचना सब ठीक है न ? तुम दोनों के बीच सब नॉर्मल हैं न ? देखो कोई भी बात हो तो बता देना। मेरा भाई है तो क्या हुआ ? गलती जिसकी भी हो,मैं तो कान दोनों के ही खीचने वाली हूँ।”

“थैंक्यू शिखा, मगर ऐसा कुछ नहीं है। तुम चिंता न करो।”

“चलो सुलोचना अब मैं चलती हूँ। कुछ भी रहे तो बताना। वैसे पूजा वाले दिन मिलते हैं।”

शिखा तो चली गई,मगर सुलोचना सोच में पड़ गई। आखिर क्या वजह है। कोई बात नहीं,मौका देख कर सचिन से बात करती हूँ।रोज की तरह सुलोचना ने सचिन को टिफिन दिया और सचिन ऑफिस चला गया।सुलोचना को इंतजार था शाम का। सचिन आया। दोनों ने चाय एक साथ ली। तभी सुलोचना ने पूछा,-“सचिन आज गोभी-आलू की सब्जी कैसी लगी ?”

“अच्छी थी।” सचिन ने कहा।

सुलोचना ने थोड़ा आश्चर्य से,-“अच्छा। अच्छी थी,लेकिन आज सब्जी में तो मिर्च बहुत तीखी थी और तुम तो तीखा बिल्कुल पसंद नहीं करते।”

“सुलो! कोई बात नहीं। कभी कभी चलता है। तुमने कौन-सा जान कर ऐसा किया होगा।”

सुलोचना चुप रही। अगले दिन फिर वैसे ही सचिन को टिफिन देना। सचिन का ऑफिस जाना। शाम का इंतजार करना। शाम को चाय की टेबल पर-सचिन आज भरवाँ भिंडी कैसी लगी ?”

“अच्छी थी। सुलोचना तुम बहुत अच्छा खाना बनाती हो। इसमें कोई शक नहीं। जब से तुम आई हो हम सब होटल जाना ही भूल गए हैं। शिखा को ही देख लो। बस यहाँ आने के बहाने ढूँढती है। पगली कहीं की।”

         सुलोचना को कुछ नहीं समझ रहा था कि क्या कहे और क्या करे। आज तो उसने भिंडी में नमक ही नहीं डाला था। फिर भी  अच्छी...।

     बहुत ही कुशलतापूर्वक घर में पूजा और हवन संपन्न हुआ। पंडित जी को भोजन आदि करा दीक्षिणा देते हुए सभी ने आशीर्वाद लेकर पंडित जी को विदा किया। सभी मेहमानों के जाने के बाद शिखा ने सुलोचना से पूछा,-“और! सुलो कैसा चल रहा है।”

शिखा की बात सुन सुलोचना शिथिल-सी हो गई। आँखें द्रवित हों आई।

“सुलोचना क्या हुआ ? तुम रो क्यों रही हो ? (शिखा ने बड़ी आकुलता और घबराहट भरे स्वर में पूछा। )”

   "शिखा उस दिन तुम ठीक कह रही थी। सचिन बदल गए हैं। झूठ भी बोलने लगे हैं। लगता है झूठा ही प्यार जताते हैं। मेरी यूँ ही प्रशंसा करते हैं।"

        "सुलोचना क्या हुआ ? यह तो बताओ।"

सुलोचना की रुलाई ने अब स्वर पकड़ लिया था। उसकी रुलाई की डोर ने पूरे घर में इधर -उधर बैठे सभी को इकट्ठा कर लिया।”

(सुलोचना की रुलाई देख सभी घबरा गए।)

सचिन ने इशारे में शिखा से पूछा,”तुमने कुछ कहा है क्या ?”

शिखा ने गर्दन न में हिला दी। सचिन सुलोचना की ओर बढ़ता है,-

“क्या हुआ सुलो ? अभी कुछ देर तक तो सब कुछ ठीक था लेकिन अचानक…। कुछ समझ नहीं आ रहा है । तुम कुछ तो बोलो । आखिर मसला क्या है ?”

सचिन की माँ सुलोचना को पहले सीने से लगा चुप कराती है। फिर सबको अपने कमरे में ले जाती है। सुलोचना को अपने पास बैठा बड़े ही दुलार से पूछती है,-“अब बताओ क्या बात है ? किसी ने तुम्हें कुछ कहा है ? या कोई ओर बात है ?”

सास की बात सुन सुलोचना साहस जुटा पिछले दो दिनों का वाकया और शिखा की बताई पूरी बात कह देती है।

माँ,शिखा और निकुंज को सचिन पर काफी गुस्सा आया। सुलोचना की बात सुन सचिन ने भीनी-सी मुस्कुराहट दी।

“तुम हँस रहे हो ? कैसे इंसान हो सचिन ? किसी को चोट पहुँचाने की सीख तो कभी नहीं दी थी। मुझे आघात हुआ है तुम्हारी इस हरकत से।” बड़े निराश मन से माँ ने कहा।

“माँ तुम्हारे दिए संस्कारों की अवमानना कैसे कर सकता हूँ। मुझसे गलती हो गई। मुझे माफ कर दो। (सचिन नम्र स्वर में कहता है।)”

“माफी नहीं मिलेगी। भला कोई ऐसा भी करता है। जैसा तुम कर रहे हो ? (माँ कहती है।)”

“भैया माँ सही कह रही है। तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था।”

“पहले मेरी बात तो सुन लो। फिर चाहे जो सजा देना। (सचिन कहता है। )”

“माँ तुम्हें याद है क्या ? अक्का (पिता जी) के जाने के बाद हम सब कैसे टूट से गए थे। अक्का की तेरहवीं के बाद भी मुझमें ऑफिस जाने की हिम्मत नहीं थी,मगर आपके और शिखा के कहने पर जैसे-तैसे हिम्मत जुटाई और अक्का की तेरहवीं से ठीक तीन दिन बाद मैंने ऑफिस जॉइन किया। निराश और हताश मन से ऑफिस की पार्किंग में बाइक लगा रहा था कि अचानक एक बूढ़ा बिल्कुल अक्का की उम्र का। मेरे पास आया और कहने लगा,-“बहुत भूख लगी है। तीन दिन से कुछ नहीं खाया। उसकी बात सुन मुझे ऐसा लगा जैसे अक्का कह रहे हैं कि सचिन मैं भूखा हूँ। खाना खिला दे। तूने तीन दिन से मुझे कुछ नहीं खिलाया है। अक्का की तेरहवीं को तीन दिन ही तो बीते थे। उस समय जो मुझे अच्छा लगा मैंने किया। अपने बैग से झट-पट टिफिन निकाला और बड़ी श्रद्धा से पूरा खाना खिला दिया। उन्हें खाना खिलाने के बाद मुझे जो सुकून और अपनापन मिला,मैं उस क्षण को शब्दों में बयान नहीं कर सकता हूँ। उस दिन से वो मुझे रोज ही मिलने लगे। शुरुआत के दिनों में अपना पूरा खाना खिला दिया करता था। बाद में उन्होंने खाने से मना किया। पूछने पर बोले कि तुम क्या खाओगे। बस तभी से दो टिफिन ले जाना शुरू कर दिया। एक उनके लिए और एक अपने लिए। सुलोचना के हाथ का खाना बहुत पसंद है उन्हें। शादी से पहले मैंने उन्हें सुलोचना की फ़ोटो दिखाई थी,तो बहुत खुश हुए थे वो।”

“ठीक है,तुम्हारे एक टिफिन की बात तो समझ आई मगर दूसरा…?

“हाँ-हाँ बताता हूँ। चिंता क्यों करते हो। शादी के बाद सोचा था कि,सुलोचना को बता दूँ,मगर लगा पता नहीं,उसे अच्छा लगे या नहीं । इसलिए कुछ नहीं कहा। अब बात आती है दूसरे टिफिन की। मैं उसका क्या करता हूँ। पिछले हफ्ते एक अधमरा कुत्ता दिखाई दिया। उसे अस्पताल लेकर गया, डॉक्टर ने इन्जेक्शन दिया। अब वो ठीक है, लेकिन उस दिन से मेरा पीछा ही नहीं छोड़ता। उससे पीछा छुड़ाने के लिये दूसरा टिफिन…।”

सचिन की बात सुन सभी भाव-विभोर हो गए।

“बस इतनी-सी बात थी तो कह देते। भला इसमें कैसा संकोच था। (सुलोचना की आँखों में एक चमक थी। एक विश्वास था। एक उम्मीद थी,एक खुशी थी।)।

“आँसू पोंछते हुए,-“कल से दो नहीं,तीन ।” (सुलोचना की बात सुन सब ठहाके मारते हैं।)

परिचय-डॉ. पूजा हेमकुमार अलापुरिया का साहित्यिक उपनाम ‘हेमाक्ष’ हैL जन्म तिथि १२ अगस्त १९८० तथा जन्म स्थान दिल्ली हैL श्रीमती अलापुरिया का निवास नवी मुंबई के ऐरोली में हैL महाराष्ट्र राज्य के शहर मुंबई की वासी ‘हेमाक्ष’ ने हिंदी में स्नातकोत्तर सहित बी.एड.,एम.फिल (हिंदी) की शिक्षा प्राप्त की है,और पी-एच.डी. की उपाधि ली है। आपका कार्यक्षेत्र मुंबई स्थित निजी महाविद्यालय हैL रचना प्रकाशन के तहत आपके द्वारा ‘हिंदी के श्रेष्ठ बाल नाटक’ पुस्तक का प्रकाशन तथा आन्दोलन,किन्नर और संघर्षमयी जीवन….! तथा मानव जीवन पर गहराता ‘जल संकट’ आदि विषय पर लिखे गए लेख कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैंL हिंदी मासिक पत्रिका के स्तम्भ की परिचर्चा में भी आप विशेषज्ञ के रूप में सहभागिता कर चुकी हैंL आपकी प्रमुख कविताएं-`आज कुछ अजीब महसूस…!` ,`दोस्ती की कोई सूरत नहीं होती…!`और `उड़ जाएगी चिड़िया`आदि को विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में स्थान मिला हैL यदि सम्म्मान देखें तो आपको निबन्ध प्रतियोगिता में तृतीय पुरस्कार तथा महाराष्ट्र रामलीला उत्सव समिति द्वारा `श्रेष्ठ शिक्षिका` के लिए १६वा गोस्वामी संत तुलसीदासकृत रामचरित मानस,विश्व महिला दिवस पर’ सावित्री बाई फूले’ बोधी ट्री एजुकेशन फाउंडेशन की ओर से जीवन गौरव पुरस्कार से सम्मानित किया गया हैL इनकी लेखनी का उद्देश्य-हिंदी भाषा में लेखन कार्य करके अपने मनोभावों,विचारों एवं बदलते परिवेश का चित्र पाठकों के सामने प्रस्तुत करना हैL

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