शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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घर-परिवार स्पर्धा विशेष……
‘ज़िंदगी मेरे घर आना,आना ज़िंदगी,
मेरे घर का सीधा-सा इतना पता है,
मेरे घर के आगे मुहब्बत लिखा है,
न दस्तक ज़रूरी,ना आवाज देना,
मैं साँसों की रफ़्तार से जान लूँगी,
हवाओं की खुशबू से पहचान लूँगी।…’
कहने का तात्पर्य है-‘जो सुख छज्जू के चौबारे, ओ बल्ख न बुखारे’ इस उक्ति का अर्थ है जो सुख अपने घर की छत के नीचे मिलता है,वह सुख दूसरी जगह से प्राप्त नहीं हो सकता। इस दृष्टि से घर की परिभाषा यही हो सकती है-‘वह स्थान जहां पहुंचकर हृदय में आनंद व सुखद की अनुभूति का संचार होता है और दुनिया के प्रश्नों से छुटकारा या विश्राम मिल जाता है।’ घर के स्वरूप के बारे में आज जो रूप प्रतिष्ठित है-उसमें कच्ची मिट्टी से लीपी-पुती झोपड़ी,और मकान का स्वरुप है-आकर्षक सामानों व सुंदर रंगों से सुसज्जित कमरे। वास्तव में,घर-परिवार की आंतरिक संरचना भाव-संवेदनाओं की भूमि पर ‘सहृदयता ही आपसी रिश्तों‘ का मूल आधार है। घर-परिवार वह है,जहाँ माता-पिता,बच्चे और अन्य रिश्ते जीवनभर सहजता व निस्वार्थ भाव से साथ निभाते हुए गतिमान रहते हैं।
घर-परिवार की अहमियत का अनुभव अक्सर हमें तब हो जाता है,जब हम लड़की या लड़के के वैवाहिक संबंध बनाने के लिए खोज-खबर करते हैं। सबसे पहले यह प्रश्न परिवार के सदस्य या रिश्तेदार ही पूछते हैं, “यह बताओ..घर-परिवार कैसा है ?” बच्चों को विद्यालय में दाखिला दिलाते समय भी घर-परिवार के बारे पूछा जाता है। और तो और, आकस्मिक किसी से आदर-सम्मान हेतु प्रश्न मुँह से निकल ही आता है-‘कैसे हैं आप,घर-परिवार सब ठीक है न!’ अत: घर-परिवार दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। घर शब्द से ही आत्मसंतोष प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। परिवार शब्द से जीवन की संपूर्णता की आभा चित्रित होती है।
मनुष्य में बुद्धि की क्षमता अन्य समस्त जीवों से अधिक है। प्रकृति ने मनुष्य को एक महत्वपूर्ण नैसर्गिक मानसिक गुण दिया है- अपने परिवार के साथ रहना। कहा जाता है मनुष्य अकेले जीवन-यापन के बजाए समूह में रहने से अधिक स्वस्थ रहता है। भारतीय प्राचीन शास्त्रों में समाज व परिवार के गुणों के बारे में ‘मनुर्भव’ ज्ञानेन्द्रिय हीन:पशुभि: समाना,हित अनहित पशु पक्षीहि जाना,मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति,रघुकुल रीत सदा चलि आई,प्राण जाए पर वचन न जाई,..’ आदि अनेक विचारों के माध्यम से मानव गुणों का समावेश करते हुए यह शिक्षा दी गई है। अभिमान का त्याग,बड़े-छोटे में भेदभाव न करना,नम्र स्वभाव रखना आदि सफल परिवार व समाज की नींव है। इसी परिपाटी के आधार पर हमारे देश के गाँवों, अर्द्ध विकसित शहरों व महानगरों में आज केवल इक्की-दुक्का परिवारों में संयुक्त परिवार प्रणाली कुशलता से चल रही है। अधिकांश शिक्षित वर्ग अब एकल परिवार व्यवस्था में ही अपना भला समझता है। वृद्ध होती पीढ़ी का बहिष्कार और अपने कर्तव्यों से पिंड छुड़ाने की ललक ने एकल परिवार प्रणाली को जन्म दिया है,साथ ही आपसी नजदीकी रिश्ते भी चरमरा रहे हैं।
नि:संदेह,परिवार संबंधी हमारी पारंपरिक धारणाओं व रीति-रिवाजों की कड़ियों को आधुनिकीकरण ने अपने अधीन कर लिया है। आज समाज व परिवार के लक्षण प्राचीन परम्परा के विपरीत बह रहे हैं। भौतिक जगत में विलासिता का आवरण कबीर की झीनी-झीनी चदरिया-सा तो बिल्कुल ही नहीं है। पाश्चात्य संस्कृति व सभ्यता का प्रत्यक्ष प्रभाव घर-परिवार पर अत्यधिक दिखाई देता है। नकल में अकल की गुंजाइश भी नहीं रही है। कहाँ है यह विचार ? विद्या ग्रहण करने से व्यक्ति के हृदय में नम्रता,शालीनता,कुशलता का व्यावहारिक प्रसार होता है। ये गुण तो अब केवल रौबीले व आकर्षक ठाठ-बाट के ढोंग में छुप कर आँख-मिचौनी खेलते हैं।
जितना शिक्षित होकर व्यक्ति आज भ्रष्ट,बेईमान, दुराचारी स्वार्थी बना है,उतना तो पहले कदापि न था। आज के व्यक्ति की दृष्टि में पाप-पुण्य पर विश्वास ढोंग समान है,वह ईश्वर के प्रति अनावश्यक धाराओं में खोया-खोया विचरता है,उसमें बड़ों के प्रति श्रद्धाभाव नदारद है,उसका विलासिता की ओर उन्मुख व्यवहार,दूसरों का शोषण करना,और न जाने नई-नई खोजों से हथकंडे अपनाना धर्म सिद्ध हो रहा है,परन्तु आधुनिकीकरण में भी सद्बुद्धि को शामिल कर लोकहित की भावना से जोड़ा जा सकता है।
आजकल निजी स्वतंत्रता के लिए छोटे परिवार को सुखी परिवार माना गया है। संयुक्त परिवार में छोटी-छोटी बातों को लेकर गृह-क्लेश आए दिन होने के कारण ही एकल परिवार का जन्म हुआ। एकल परिवार स्वतंत्र परिवार के रूप में वहां तक स्वस्थ लगता है,जहाँ पर बच्चों के भविष्य के प्रति माता-पिता जागरूक व सतर्क होकर पालन-पोषण करते हैं। इस संदर्भ में शिक्षित नारी ने नौकरी व व्यवसाय आदि की दोहरी जिम्मेदारी निभाते हुए सभ्य समाज व परिवार बनाने में बहुमूल्य योगदान दिया है। वह बच्चों के लालन-पालन के प्रति सजग रहती है। पाश्चात्य संस्कृति की भाँति,बच्चों को आरंभ से ही अलग रखकर लालन-पालन के पक्ष में नहीं है। आज भी एकल परिवार संयुक्त परिवार की ही तरह प्राचीन भारतीय तरीके से ही बच्चों की परवरिश स्नेह से करते हैं। आधुनिक सुख-सुविधा भी बच्चों के लिए उपलब्ध कराते हैं,परंतु एकल परिवार की निज-स्वतंत्र का भ्रम भी जल्दी ही टूट गया। सुखी परिवार मात्र निश्चित संख्यावाचक बन कर रह गया है। साथ में,अन्य कई विपत्तियों का जन्मदाता भी अब कहलाया जाने लगा है,जिसका सारा दारोमदार शिक्षित नारी के इर्द-गिर्द कर यह समझा जा रहा है कि नारी अपने जीवन के प्रति अति महत्वाकांक्षी हो चुकी है,जबकि नारी गृह-संचालन में सक्षम है,सहभागिनी है,धन-अर्जन में सहयोगी है और दूरदर्शी सलाहकार भी है। एकल परिवार में लड़ाई-झगड़े की प्रवृत्ति या जिस परिवार में माता-पिता महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में व्यस्त हैं,उनके बच्चों में पनपता है व्यसन। स्वतंत्रता के मायने कुछ भी करना, किसी का आदर-सम्मान न करना,हर बात पर जिरह करना,मनमाने ढंग से दिनचर्या व्यतीत करना आदि ही इसमें शामिल है। अत: इस दृष्टि से समकालीन घर-परिवार,समाज व देश के उत्थान के लिए नैतिक शिक्षा की ओर ध्यान देने की अति आवश्यकता है ।
भारतीय घर-परिवार से तात्पर्य है आदर्शोन्मुख घर-परिवार। पवित्र बंधनों एवं जीवन-मूल्यों से युक्त जीवन प्रेरणा देने वाला घर-परिवार। सदाचार,विनम्रता,मृदुता,दया-करुणा आदि गुणों के साथ भारतीय घर-परिवार,जो जीवन-मूल्यों के प्रति समर्पित है,जो उनके ‘आत्म-सुख’ का द्वार है,किन्तु प्रश्न स्वत: ही उभर आता है कि इतनी सुख-सुविधाओं के बीच चल रहे परिवार में अपने ही माता-पिता के प्रति दायित्व निभाने के समय व्यक्ति निष्ठुर कैसे बन जाता है ? अनुशासन प्रत्येक घर-परिवार की रीढ़ है। मर्यादित व नियमबद्ध जीवन जीने का जो बंधन है,उसका आकलन भारतीय घर-परिवार के आदर्श-दर्शन क्षेत्र से बाहर रखकर करना कहाँ तक उचित है ? यही घर-परिवार जब विदेशों में जा बसते हैं,तब भारतीय परम्परा व रीति रिवाजों के प्रति सजग होते पाए जाते हैं। इस दृष्टि से तुलसीदास जी का कथन सही प्रतीत होता है – l
‘जहाँ सुमति,तहं सम्मति नाना।
जहाँ कुमति,तहँ विपत्ति निदाना॥’
इसके लिए परिवार के प्रत्येक व्यक्ति में सद्बुद्धि होना अनिवार्य है,तभी तो स्वहित व परहित दोनों को समान रूप से ध्यान दे सकते हैं। अंतर्मन की प्रसन्नता केवल ‘संतोष’ से ही प्राप्त हो सकती है। धन से आज के युग में टूटते परिवार व रिश्तों के बीच बंधन बनाने के लिए एक आदर्श विचार या नज़रिए की अति आवश्यकता है।
‘ये तेरा घर,ये मेरा घर,
किसी को देखना हो अगर,
तो पहले आ के मांग ले,
तेरी नजर,मेरी नजर॥’
जावेद-अख़्तर द्वारा रचित ये पंक्तियाँ हृदय को छू जाती हैं और जीवन में परिवार के प्रति तेरे-मेरे के बीच खोए नजरिए को बदलने को बाधित कर आदर्शवादी परिवार की परिभाषा को स्थापित करती हैं। आदर्शवादी घर-परिवार की पुनर्स्थापना की आज के समय में अति आवश्यकता है।
परिवार में व्यक्ति को निजी स्वतंत्रता के साथ-साथ अपनी नैतिक जिम्मेदारी को भी सहर्ष निभाना चाहिए। सच में,आधुनिक घर-परिवार की सुख-समृद्धि में चार-चाँद लगाने के लिए एक आदर्शवादी नज़रिए की ही आवश्यकता है। समय के प्रभाव से हताश न होकर,प्रत्येक परिस्थिति में धैर्य-साहस की डोर को एकजुटता से थामे रहना चाहिए। चाहे हमारे एकल परिवार हों,या संयुक्त परिवार दोनों को ही अनुकूल समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए।
घर सिर्फ़ चार दीवारों और चार कोनों का नाम नहीं…न ही रिश्ते इतने क्षीण कि पानी में पत्थर मारते बिखर जाएँ। सदैव ध्यान रखें पत्थर फेंकने के कारण बिखरा पानी उसी समय एकत्र हो पहले जैसा हो जाता है। वैसे ही रिश्ते लचीले और पारदर्शी होते हैं और एकजुटता रिश्तों की कुंजी है। जब भी हम घर से बाहर जाते हैं,हमारा घर भी परिवार के हर सदस्य के लौटने की प्रतीक्षा करता है, तभी तो हमारे मन में बार-बार एक हुक-सी उठती है-हमें जल्दी से जल्दी अपने घर जाना है।