शशि दीपक कपूर
मुंबई (महाराष्ट्र)
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राजनीति की किताब उल्टी पढ़ें या सीधी, अक्षर सारे एक से दिखते हैं। दाएँ से पढ़ें या बाएँ से, शब्द वही अर्थ देते हैं जो स्पष्ट समझाने होते हैं। श्वेत-पट राजनेताओं पर खूब फबते हैं। सिर पर बंदरनुमा टोपी और कुर्लेदार पगड़ी या प्रादेशिक दस्तार व टोपी पहन जब इतराते हैं, लगता है बाग़ों में बहार आ गई है, सारे पुष्प एक साथ खिले हैं।
मंच के नीचे सटी-सटी लगी लाल-पीली-नीली-सफेद कुर्सियाँ और पहली पंक्ति पर लगे सफेद ताज़े धुले वस्त्रों में लिपटे सोफ़े मेहमानवाज़ी का बेसब्री से इंतज़ार करते पत्रकारों के कैमरे में क़ैद हो जाते हैं। दूर तक जाती नजर में जनता की भीड़ ही भीड़ सब अनन्त ब्रह्माण्ड-सी फैली-पसरी हर कोने में दिखती है।
डेढ़ घन्टे की लम्बी प्रतीक्षा का फल गले में पुष्पमाला व रेशमी शॉल ओढ़े नेताजी के आने पर यही कहता मिलता है,-“आप लोगों को कोई काम नहीं करना है, जब भी हमारा कोई प्रतिनिधि आपके द्वार आए, उसे भूल के भी ख़ाली हाथ नहीं लौटाना है, ये जनता का धन जनता पर ही ख़र्च होगा, एक दमड़ी इधर से उधर न होगी, अमानत से ख्यानत न होगी, विश्वास रखिए, अपने घर-परिवार का ही मुझे सदस्य समझिए, मैं भी आपकी तरह बेरोजगार हूँ, जन सेवा का संकल्प लिए हूँ, सो वही कर रहा हूँ। इससे बड़ी कोई सेवा नहीं होती।”
थोड़ा रुक बोले,-“आईए! कुछ मिलकर सोचते हैं! देश का विकास कहाँ से शुरू करना है। प्रकृति की आपदाओं से, कृषकों की नोक-झोंक से, विज्ञान की सुविधाजनक उपलब्धियों से, माँ या बच्चों के स्वास्थ्य से, या बच्चों की शिक्षा से या पुरुषों की बेरोजगारी दूर करने से, या शिक्षित महिला वर्ग से या राजनेताओं के बैंक बैंलेस से या आपके गली-मोहल्लों के लुच्चे-लफंगों से या कॉलेज के फ़िल्मी लड़के-लडकियों से या धर्म के ठेकेदारों के तंत्र-मंत्र से या धर्म के नियमों व सिद्धान्तों से या देश में तेज़ी से कम होती भूमि या बढ़ती जनसंख्या से…वगैरह-वगैरह, हाँ, विदेशी बाह्य ताक़तों के बारे में सोचना आपके सामर्थ्य में नहीं है।”
जनता नेताजी के मुख से मुद्दे सुन सोचते-सोचते भटक गई, वर्ग-जाति व धर्म में बँट गई।
मंच पर नेताजी थे विपक्षी सरकार के, गला फाड़ फाड़ चिल्लाते रहे,-“प्लीज़ झगड़िए मत, सारे मुद्दे आज ही यहीं नहीं सोचने हैं, घर की बात है, घर पर ही सुलटा लेंगे, आईए! मिलकर कुछ ओर सोचते हैं !”
अति शोरगुल के बीच अंत: नेताजी मंच से उतर गए।