कुल पृष्ठ दर्शन : 193

You are currently viewing आमजन को कब मिलेगा हक ?

आमजन को कब मिलेगा हक ?

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
*****************************************

शहरातियत की धक्कम-पेल, ठेलम-ठेल, रेलम-रेल और तिकड़मबाजी तो आज से पहले खूब देखी और सुनी थी पर अस्पताल में भी ऐसा परिदृश्य होता होगा, कभी सोचा नहीं था। हर कोई बस इसी जद में लगा है कि मेरा नम्बर पहले लगना चाहिए। सब्र रखने का शायद किसी को वक्त ही नहीं है। बहुत से लोग स्वार्थ और अमानवीयता को यहां भी नहीं छोड़ते और बहुत से ऐसे भी लोग हैं जो इंसानियत की मिसाल पेश करते हैं। बाहर रेहड़ी-फहड़ी तथा रेस्टोरेंट जैसी श्रेणी का खाना बनाने वाले ढाबे व सरकारी कैंटीन आदि वाले खाने-पीने के सामान में जहां मोल भाव करते हैं, वहीं कई लोग गरीबों, मरीजों तथा उनके परिजनों हेतु निशुल्क भंडारा भी तो लगाते हैं। इस कला में प्रवीण सिख धर्म के लोगों के हुनर को भला कौन नहीं जानता।ये भंडारा लगाने वाले लोग उनके जूठे बर्तन धोते हैं और भी सेवाएं नि:शुल्क प्रदान करते हैं। तब लगता है कि दुनिया में दया और धर्म खत्म कहां हुआ है। वह तो आज भी जिंदा है, पर जब दवा और शल्य चिकित्सा के सामानों के दामों को एक-दूसरे दुकानदारों के साथ तुलना करके देखते हैं तो लगता है कि दुनिया में चोर-बाजारी बहुत है। सच क्या है, झूठ क्या है ? कुछ कहते नहीं बनता।
उस रोज रात २ बजे जब हम मेरे बेटे को अति संवेदनशील हालत में पीजीआई (चंडीगढ़) में लेकर पहुंचे तो आपातकालीन विभाग का परिदृश्य कोलकाता के मछली बाजार से कम नहीं था। कोई आ रहा था तो कोई जा रहा था। कोई साँस ले रहा था तो कोई साथ छोड़ रहा था। खैर, पर राहत प्रदान करने वाली जगह भी किसी के दिल को इतना आहत करेगी, कभी सोचा भी नहीं था।
बेटे को ‘मैंनेनजाइंटिस’ नामक दिमागी बीमारी ने अचानक बुरी तरह से जकड़ रखा था। स्थानीय अस्पताल में इलाज संभव ना होने के कारण चिकित्सकों द्वारा हमें पीजीआई भेजा गया। रास्ते में जब एंबुलेंस में आ रहे थे तो साँसें गले में आकर अटकती जा रही थी कि, न जाने कब और क्या घटना घट जाए ? शायद बेटे को खो न बैठूं। बाप जो हूँ, ऐसे उल-जलूल ख्यालात आना कोई नई बात नहीं थी। भगवान का शुक्र है कि हम सही सलामत पीजीआई पहुंच गए। उस भीड़ भड़ाके के बीच में बेटे की हालत को देखकर आपातकालीन विभाग ने दाखिला दे दिया था और सुबह ६ बजे तक सभी प्रकार की जांचें द्रुत गति से आपातकालीन विभाग के चिकित्सकों ने करवा ली थी।
बेटे को दर्द बहुत था। सिर फटा जा रहा था, क्योंकि दिमागी संक्रमण हो गया था। इस भीड़ को देखकर जो मेरे भीतर बेटे की उस पीड़ा को लेकर के एक अजीबोगरीब पीड़ा थी, वह सहसा शान्त होती जा रही थी। चारों तरफ स्ट्रेचर पर ट्रॉलियों के ऊपर हर उम्र के छोटे-बड़े और हर प्रकार के मरीज चीख-चिल्ला रहे थे। अब मुझे औरों का दु:ख घना और अपना हल्का लग रहा था। यह बात जरूर है कि, बेटा दिमागी रूप से बहुत परेशान था। उससे कोई बात नहीं हो पा रही थी, पर फिर भी उस चीर-फाड़ भरे मंजर को देखकर, छोटे-बड़े रोगियों की चीख-पुकार सुनकर तथा प्राणों के संघर्ष को हारते हुए अपनी जीवन यात्रा का सफर इस दुनिया से उस दुनिया की ओर करते हुए लोगों को देखकर मेरी आँखें नम हुए जा रही थी।
ऐसा नहीं है कि मैं पहले अस्पताल में कभी नहीं आया था। मैंने दादी माँ, छोटे ताया श्री, मंझले भैया तथा दोनों चाचाओं, बड़े ताया- ताई के साथ-साथ अपनी सगी बहन को अपनी आँखों के सामने संसार छोड़ते देखा था। कई बार अस्पताल आ चुका था। भीड़ भी कई बार देख चुका हूँ, पर जिस तरह की भीड़ और चीख-पुकार मैंने इस बार देखी थी, वह अति भयानक परिदृश्य था।
आम अस्पतालों में चिकित्सकों को बार-बार हिदायत देते हुए सुना है कि ऐसे खुले वातावरण में ऑपरेशन किए हुए रोगी को या गंभीर हालत के रोगी को कभी नहीं रखना चाहिए। इंफेक्शन का डर रहता है, पर यह क्या ? यहां तो हर कोई मरीज बिना पलंग के बाहर स्ट्रेचर पर ही लेटे-लेटे अपना पूरा इलाज करा लेता है और यहीं से घर चला जाता है। जिन्हें जीना हो, वे तो जी जाते हैं पर जिन्हें संसार छोड़ना है वे यहीं पर प्राण त्याग देते हैं।
अस्पताल की आलीशान पथरीली दीवारों से अपना हाड़-माँस का माथा बार-बार टकराता हूँ और भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि हे प्रभु! सबका भला करना। सबका पहले और मेरा पीछे। दिल की पीड़ा जितनी अपने बेटे के लिए सता रही थी, उससे कहीं ज्यादा आस-पास शल्य चिकित्सा से चीर-फाड़ किए हुए सरों वाले छोटे छोटे बच्चों को देखकर हो रही थी। सोचता हूँ कि इन बच्चों ने इस छोटी-सी उम्र में ऐसा क्या कर लिया ! खैर, यह दुनिया है।
फिर भीतर ही भीतर व्यवस्था और सत्ता के प्रति गहरी रोष उमड़ता है कि आजादी के ७५ साल बीत गए, पर हमारे हुक्मरान और अफसरान अभी तक आम और सर्वहारा वर्ग को स्वास्थ्य, शिक्षा और न्याय जैसी मूलभूत सुविधाओं को नि:शुल्क और अच्छी व्यवस्था के साथ क्यों नहीं मुहैया करवा पाए ? पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेई की उस बात का ख्याल मस्तिष्क में पुनः गूंजता है “देश की जनता को कुछ भी मुफ़्त नहीं देना चाहिए । इससे जनता की आदत बिगड़ती है और देश कभी प्रगति नहीं करता। मुफ़्त यदि कुछ मिलना चाहिए तो वह है, स्वास्थ्य व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था और न्याय व्यवस्था।” कोई कुछ भी कहे, बात सोलह आने सही है। आज के दौर में यदि जेब में पैसा न हो तो उपरोक्त तीनों मूलभूत सुविधाओं से आदमी को हाथ धोने पढ़ सकते हैं।
कहते हैं कि आदमी के आगे पैसा कुछ भी नहीं है। कुछ हद तक यह सत्य भी है। आदमी ही जिंदा नहीं रहेगा तो पैसों का क्या अचार डालोगे ?, पर जब इस तरह की गंभीर बीमारी के चक्कर में निम्न मध्य वर्ग और उच्च मध्यवर्ग के साथ-साथ गरीब व्यक्ति फंसता है तो यही पैसे बहुत काम आते हैं। खैर, जैसे ही मेरे बेटे की बीमारी की खबर मेरे इष्ट मित्रों और रिश्तेदारों में पहुंची, वैसे ही सभी ने ईश्वर से दुआ की। शायद यह असर उन सबकी दुआओं का ही था कि, आज बेटा उस भयानक बीमारी के जीवननाशक खतरे से लगभग बाहर है।
हैरत इस बात की है कि, देश को सबसे अधिक कर देने वाली और सबसे अधिक परिश्रम देकर उन्नत करने वाली इतनी बड़ी जमात को सरकार इस तरह से गलियारों और बरामदों में जीने-मरने के लिए क्यों छोड़ देती है ? अधिकतर रोगियों को ट्रालियों पर ही लेटे-लेटे अपना इलाज कराना पड़ता है। पलंग तो बहुत ही मुश्किल से किसी भाग्यवान के हिस्से आता है। वह भाग्यवान भी वही होता है, जो जिंदगी और मौत की जंग से बिल्कुल समीप से लड़ रहा होता है। सोचता हूँ क्या देश की सरकार इतनी गरीब है ? माना कि देश की जनसंख्या तेजी से बढ़ती जा रही है, पर इसका मतलब यह तो नहीं है कि जो ढांचा आज से वर्षों पहले खड़ा कर दिया गया था, बस उसी को ही बनाए रखें। क्या सरकारें सिर्फ एक-दूसरे पर इल्जाम ही लगाती रहेगी ? आजादी के बाद आज तक सभी दलों ने केंद्र में राज किया है। क्या यह सभी दलों की सामूहिक जिम्मेवारी नहीं बनती है ? क्या बड़े लोग फोर्टिस और अपोलो जैसे हॉस्पिटल में अपना इलाज करते हैं, इसलिए गरीब और सर्वहारा तथा निम्न मध्य वर्ग के आश्रय स्थल की ओर कोई ध्यान नहीं देता ?
क्या आजादी के ७५ साल बाद आजाद हिंदुस्तान में यह बात शोभा देती है ? आखिर क्यों नहीं सोचती है सरकार इस दिशा में ? कौन करेगा इन गरीबों की और आम जनमानस के हितों की बात ? क्या इन सभी लोगों को सुविधा नहीं मिलनी चाहिए ? सवाल अनगिनत है और जवाब अपेक्षित। यह बात देश की संसद तक पहुंचे, ताकि देश की आम जनता को न्याय मिल सके और सुविधा मिल सके। देश में कोई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा नहीं बनेगा तो, शायद इतनी ज्यादा क्षति नहीं होगी जितनी ज्यादा क्षति इन गरीब एवं आम जनमानस के पीड़ित होने से देश को होगी। देश का मेहनतकश किसान, मजदूर सर्वहारा वर्ग जब जिंदगी और मौत की जंग से इसी प्रकार से खुले में अपने कठिन समय में लड़ता रहेगा तो वह देश की समस्याओं के साथ शायद उस ताकत से नहीं लड़ पाएगा, जिससे उसे लड़ना चाहिए, पर फिर भी देश की उन्नति और समृद्धि के लिए इस गरीब-मजदूर, किसान वर्ग तथा निम्न मध्य वर्ग के कर्मचारी वर्ग ने अपनी एड़ी-चोटी का जोर लगा कर के भारत का नाम विश्व में रौशन किया है।इसलिए कुछ तो दायित्व देश को चलाने वाली सरकारों का भी बनता है कि, और न सही तो मानवीय पहलू से सही, इस दृष्टि से जरूर विचार करें। सड़क नहीं बनेगी कोई बात नहीं, पर सुविधा के अभाव में अस्पताल में किसी की जान चली जाए, यह तो बिल्कुल नहीं चलेगा।
यह हालत किसी एक अस्पताल की नहीं है। ऐसे कई खुलासे हर राज्य से होते रहते हैं, जहां कहीं व्यवस्था के नाम पर तो कहीं प्रबंधन और प्रशासन के नाम पर बट्टा लगता रहता है। कमी है तो वह है आपातकालीन विभाग में बिस्तर तथा भवन संबधी प्रबंधनों की। इस प्रकार की खामियां सरकारी शालाओं और न्याय व्यवस्था में भी है, जो आजाद देश की आजाद जनता के साथ बहुत बड़ा खिलवाड़ है। फिर से सवाल उठता है कि, आखिर देश की आम जनता को उसके हिस्से का हक कब और कैसे मिलेगा ?