दिल्ली
**************************************
मानवीय गतिविधियों और क्रिया-कलापों के कारण दुनिया का तापमान बढ़ रहा है और इससे जलवायु में होता जा रहा परिवर्तन अब मानव जीवन के हर पहलू के साथ जलाशयों एवं नदियों के लिए खतरा बन चुका है। जलवायु परिवर्तन का खतरनाक प्रभाव गंगा, सिंधु और ब्रह्मपुत्र सहित प्रमुख जलाशयों और नदी-घाटियों में कुल जल भंडारण पर खतरनाक स्तर पर महसूस किया जा रहा है, जिससे लोगों को गंभीर जल परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। केंद्रीय जल आयोग के नवीनतम आंकड़े भारत में बढ़ते इसी जल संकट की गंभीरता को ही दर्शाते हैं। आंकड़े देश भर के जलाशयों के स्तर में आई चिंताजनक गिरावट की तस्वीर उकेरते हैं। रिपोर्ट के अनुसार 25 अप्रैल 2024 तक देश में प्रमुख जलाशयों में उपलब्ध पानी में उनकी भंडारण क्षमता के अनुपात में ३० से ३५ प्रतिशत की गिरावट आई है, जो हाल के वर्षों की तुलना में बड़ी गिरावट है एवं सूखे जैसी स्थिति की ओर इशारा है, जिसके मूल में अल नीनो घटनाक्रम का प्रभाव एवं वर्षा की कमी को बताया जा रहा है।
जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। मानव एवं जीव-जन्तुओं के अलावा जल कृषि के सभी रूप और अधिकांश औद्योगिक उत्पादन प्रक्रियाओं के लिए भी बेहद आवश्यक है, परंतु आज भारत गंभीर जल-संकट के साए में खड़ा है। अनियोजित औद्योगिकीकरण, बढ़ता प्रदूषण, घटते रेगिस्तान एवं ग्लेशियर, नदियों के जल स्तर में गिरावट, वर्षा की कमी, पर्यावरण विनाश, प्रकृति के शोषण और इनके दुरुपयोग के प्रति असंवेदनशीलता भारत को एक बड़े जल-संकट की ओर ले जा रही है।
भारत भर में १५० प्रमुख जलाशयों में जल स्तर वर्तमान में ३१ प्रतिशत है, दक्षिण भारत में सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र है, जिसके ४२ जलाशय वर्तमान में केवल १७ प्रतिशत क्षमता पर हैं। यह भारत के विभिन्न क्षेत्रों में देखी गई सबसे कम जल क्षमता का प्रतीक है। स्थिति अन्य क्षेत्रों में भी चिंताजनक है, पश्चिम में ३४ और उत्तर में ३२.५ प्रतिशत जलाशय क्षमता है। हालाँकि, पूर्वी और मध्य भारत की स्थिति बेहतर है, उनके पास अपने जलाशयों की सक्रिय क्षमता का क्रमशः ४०.६ प्रतिशत और ४० प्रतिशत है। पिछले वर्ष वर्षा कम थी, विशेष रूप से दक्षिण भारत में, इससे काफी चिंता पैदा हुई है। वर्तमान में सिंचाई भी प्रभावित हो रही है, और देश भर में पीने के पानी की उपलब्धता और जलविद्युत उत्पादन पर प्रभाव के बारे में चिंताएं बढ़ रही हैं। भविष्य को देखते हुए आने वाले दिनों में बड़ा जल-संकट उभरने वाला है।
लंबे समय तक पर्याप्त बारिश न होने के कारण जल भंडारण में यह कमी आई है, जिसके चलते कई क्षेत्रों में सूखे जैसे और असुरक्षित हालात पैदा हैं, जिससे विभिन्न फसलों पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। एक कारण यह भी है कि, देश की आधी कृषि योग्य भूमि आज भी मानसूनी बारिश पर निर्भर है। ऐसे में सामान्य मानसून की स्थिति पर कृषि का भविष्य पूरी तरह निर्भर करता है। वास्तव में लगातार बढ़ती गर्मी के कारण जल स्तर में तेजी से गिरावट आ रही है। इसके गंभीर परिणामों के चलते आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में पानी की कमी ने गंभीर रूप धारण कर लिया है। देश का आईटी गढ़ बेंगलुरु गंभीर जल संकट से जूझ रहा है। ऐसे में किसी आसन्न संकट से निपटने के लिए जल संरक्षण के प्रयास घरों से तमाम कृषि पद्धतियों और औद्योगिक कार्यों तक में तेज करने की जरूरत है। जल भंडारण और वितरण दक्षता में सुधार के लिए पानी के बुनियादी ढांचे और प्रबंधन प्रणालियों में बड़े निवेश की तात्कालिक जरूरत भी है, साथ ही संरक्षण की परंपरागत तकनीकों को भी बढ़ावा देने की जरूरत है। आम लोगों को प्रकृति के इस बहुमूल्य संसाधन के विवेकपूर्ण उपयोग को बढ़ावा हेतु प्रेरित करने के लिए जनजागरण अभियान चलाने की भी जरूरत है।
पानी के संरक्षण और समुचित उपलब्धता को सुनिश्चित कर हम पर्यावरण को भी बेहतर कर सकते हैं तथा जलवायु परिवर्तन की समस्या का भी समाधान निकाल सकते हैं।
सोच सकते हैं कि, एक मनुष्य अपने जीवन-काल में कितने पानी का उपयोग करता है, किंतु क्या वह इतने पानी को बचाने का प्रयास करता है ? जलवायु परिवर्तन के कारण २००० से बाढ़ की घटनाओं में १३४ प्रतिशत वृद्धि हुई है और सूखे की अवधि में २९ प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। धरती पर जीवन के अस्तित्व के लिए पानी आधारभूत आवश्यकता है। आबादी में वृद्धि के साथ पानी की खपत बेतहाशा बढ़ी है, लेकिन पृथ्वी पर साफ पानी की मात्रा कम हो रही है। जलवायु परिवर्तन और धरती के बढ़ते तापमान ने इस समस्या को गंभीर संकट बना दिया है। दुनिया के कई हिस्सों की तरह भारत भी जल संकट का सामना कर रहा है। वैश्विक जनसंख्या का १८ प्रतिशत हिस्सा भारत में निवास करता है, लेकिन ४ प्रतिशत जल संसाधन ही हमें उपलब्ध हैं।
सदियों से निर्मल जल का स्त्रोत रहीं नदियाँ प्रदूषित हो रही हैं, अब उन पर जलवायु परिवर्तन का घातक प्रभाव पड़ने लगा है। जल संचयन तंत्र बिगड़ रहा है, और भू-जल स्तर लगातार घट रहा है। धरती पर सुरक्षित और पीने के पानी के बहुत कम प्रतिशत के आंकलन द्वारा जल संरक्षण या जल बचाओ अभियान हम सभी के लिए बहुत जरूरी हो चुका है। जल को बचाने में अधिक कार्यक्षमता लाने के लिए सभी औद्योगिक ईमारतों, अपार्टमेंट्स, विद्यालयों, अस्पतालों आदि में भवन निर्माताओं द्वारा उचित जल प्रबंधन व्यवस्था को बढ़ावा देना चाहिए। देश के सात राज्यों की ग्राम पंचायतों में भू-जल प्रबंधन के लिए अटल भू-जल योजना चल रही है। स्थानीय समुदायों के नेतृत्व में चलने वाला यह दुनिया का सबसे बड़ा कार्यक्रम है। नल से जल, नदियों की सफाई, अतिक्रमण हटाने जैसे प्रयास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में हो रहे हैं। हमारे यहां जल बचाने के मुख्य साधन हैं नदी, ताल एवं कूप। इन्हें अपनाओं, इनकी रक्षा करो, इन्हें अभय दो, इन्हें मरुस्थल के हवाले न करो, तो गाँव के स्तर पर लोगों द्वारा बरसात के पानी को इकट्ठा करने की शुरुआत करनी चाहिए। उचित रख-रखाव के साथ छोटे या बड़े तालाबों को बनाकर या जीर्णोद्धार करके बरसात के पानी को बचाया जा सकता है। धरती के क्षेत्रफल का लगभग 70 प्रतिशत भाग जल से भरा हुआ है, परंतु, पीने योग्य जल मात्र ३ प्रतिशत है। इसमें से भी मात्र १ प्रतिशत मीठे जल का ही वास्तव में हम उपयोग कर पाते हैं।
हम पानी की बचत के बारे में जरा भी नहीं सोचते, परिणामस्वरूप अधिकांश जगह पर संकट है।
राजस्थान के किले तो वैसे ही प्रसिद्ध हैं, पर इनका जल प्रबन्धन विशेष रूप से देखने योग्य और अनुकरणीय भी है। जल संचयन की परम्परा वहाँ के सामाजिक ढाँचे से जुड़ी हुई हैं तथा जल के प्रति धार्मिक दृष्टिकोण के कारण ही प्राकृतिक जलस्रोतों को पूजा जाता है।