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भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर ‘चातुर्मास’

ललित गर्ग

दिल्ली
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चातुर्मास शुभारंभ (१७ जुलाई) विशेष…

भारतीय धार्मिक और सांस्कृतिक परंपरा में चातुर्मास का विशेष महत्व है। विशेषकर वर्षाकालीन चातुर्मास का। हमारे यहाँ मुख्य रूप से तीन ऋतुएँ होती हैं। वर्ष के १२ महीनों को इनमें बॉंट दें, तो प्रत्येक ऋतु ४-४ महीने की हो जाती है। वर्षा ऋतु के चार महीनों के लिए ‘चातुर्मास’ शब्द का प्रयोग होता है। यह अवधि साधना-काल होता है, जिसमें आत्मावलोकन एवं आत्मशुद्धि की एक ही स्थान पर रहकर साधना की जाती है। हिन्दू धर्म और विशेषतः जैन धर्म में इन ४ महीने सावन, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक में उपवास, व्रत और जप-तप का विशेष महत्व होता है। हिन्दू धर्म में देवशयनी एकादशी से ही चातुर्मास की शुरुआत होती है, जो कार्तिक के देव प्रबोधिनी एकादशी तक चलती है, जबकि जैन धर्म में आषाढ़ी गुरु पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक चलता है। इस समय में श्री हरि विष्णु योगनिद्रा में लीन रहते हैं, इसलिए किसी भी शुभ कार्य को करने की मनाही होती है। इसी अवधि में ही आषाढ़ के महीने में भगवान विष्णु ने वामन रूप में अवतार लिया था और राजा बलि से तीन पग में सारी सृष्टि दान में ले ली थी।
वास्तव में पुराने समय में वर्षाकाल पूरे समाज के लिए विश्राम काल बन जाता था, किन्तु संन्यासियों, श्रावकों, भिक्षुओं आदि के संगठित संप्रदायों ने इसे साधना काल के रूप में विकसित किया। इसलिए वे निर्धारित नियमानुसार एक निश्चित तिथि को अपना वर्षावास या चातुर्मास शुरू करते थे और उसी तरह एक निश्चित तिथि पर समाप्त करते थे। जैन परम्परा में आषाढ़ी पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक का समय तथा वैदिक परम्परा में आषाढ़ से आसोज तक का समय चातुर्मास कहलाता है। धन-धान्य की अभिवृद्धि के कारण उपलब्धियों भरा यह समय स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार, आत्म-वैभव को पाने एवं अध्यात्म की फसल उगाने की दृष्टि से भी सर्वोत्तम माना गया है। इसका एक कारण यह है कि, निरंतर पदयात्रा करने वाले जैन साधु-संत भी इस समय एक जगह स्थिर प्रवास करते हैं। उनकी प्रेरणा से धर्म जागरण में वृद्धि होती है। जन-जन को सुखी, शांत और पवित्र जीवन की कला का प्रशिक्षण मिलता है। गृहस्थ को उनके सान्निध्य में आत्म उपासना का भी अपूर्व अवसर उपलब्ध होता है। वर्षावास की यह अवधि हमें जागते मन से जीने को प्रेरित करती है, इसके लिए जैन धर्म में विशेष आध्यात्मिक अनुष्ठान एवं उपक्रम किए जाते हैं। यह अवधि चरित्र निर्माण की चौकसी का आव्हान करती है, ताकि कहीं कोई कदम गलत न उठ जाए। यह अवधि एक ऐसा मौसम और माहौल है, जिसमें हम मन को इतना मांज लेने को अग्रसर होते हैं कि, समय का हर पल जागृति के साथ जीया जा सके। संतों के लिए यह अवधि ज्ञान-योग, ध्यान-योग और स्वाध्याय-योग के साथ आत्मा में अवस्थित होने का दुर्लभ अवसर है। वे इसका पूरा-पूरा लाभ लेने के लिए तत्पर होते हैं। वे चातुर्मास प्रवास में अध्यात्म की ऊँचाइयों का स्पर्श करते हैं, वे आधि, व्याधि, उपाधि की चिकित्सा कर समाधि तक पहुँचने की साधना करते हैं। वे आत्म-कल्याण ही नहीं, पर-कल्याण के लिए भी उत्सुक होते हैं। यही कारण है कि, श्रावक समाज भी उनसे नई जीवन दृष्टि प्राप्त करता है। स्वस्थ जीवनशैली का निर्धारण करता है। आवश्यकता है कि, हम सही अर्थों में जीना सीखें, औरों को समझना और सहना सीखें। जीवन मूल्यों की सुरक्षा के साथ सबका सम्मान करना भी जानें। इसी दृष्टि से वर्षाकाल प्रशिक्षण का अनूठा अवसर है। यह इंसान को इंसान बनाने एवं स्वस्थ जीवन-शैली की स्थापना का उपक्रम है, जिसमें संतों के अध्यात्म एवं शुद्धता से अनुप्राणित आभामंडल समूचे वातावरण को शांति, ज्योति और आनंद के परमाणुओं से भर देता है। इससे जीवन-रूपी सारे रास्ते उजालों से भर जाते हैं। लोक चेतना शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तनावों से मुक्त हो जाती है। उसे द्वंद्व एवं दुविधाओं से त्राण मिलता है। भावनात्मक स्वास्थ्य उपलब्ध होता है।
संत धरती के कल्पवृक्ष होते हैं। संस्कृति के प्रतीक, परम्परा के संवाहक, जीवन कला के मर्मज्ञ और ज्ञान के रत्नदीप होते हैं। उनके सामीप्य में संस्कृति, परम्परा, इतिहास, धर्म और दर्शन का व्यवस्थित प्रशिक्षण लिया जा सकता है। उनका उपदेश किसी की ज्ञान चेतना को जगाता है तो किसी की विवेक चेतना को विकसित करता है। यह इस अवधि और इसकी साधना का ही प्रभाव है कि, श्रावक की संवेदनशीलता इतनी गहरी और पवित्र हो जाती है कि वह अपने सुख की खोज में किसी को सुख से वंचित नहीं करता। किसी के प्रति अन्याय, अनीति और अत्याचार नहीं होने देता। यहां तक की वह हरे-भरे वृक्षों को भी नहीं काटता और पर्यावरण को दूषित करने से भी वह बचता है।
चातुर्मास का महत्व शांति और सौहार्द की स्थापना के साथ-साथ भौतिक उपलब्धियों के लिए भी महत्वपूर्ण माना गया है। इतिहास में ऐसे अनेक प्रसंग हैं, जहां चातुर्मास या वर्षावास और उनमें संतों की गहन साधना से अनेक चमत्कार घटित हुए हैं, क्योंकि संत वस्तुतः वही होता है जो औरों को शांति प्रदान करे।
एक तरह से अध्यात्म एवं पवित्र गुणों से किसी क्षेत्र और उसके लोगों को अभिस्नात करने के लिए चातुर्मास स्वर्णिम अवसर है। इसलिए इस काल में वे आत्मा से परमात्मा की ओर, वासना से उपासना की ओर, अहं से अर्हम् की ओर, आसक्ति से अनासक्ति की ओर, भोग से योग की ओर, हिंसा से अहिंसा की ओर, बाहर से भीतर की ओर आने का प्रयास करते हैं। वह क्षेत्र सौभाग्यशाली माना जाता है, जहाँ साधु-साध्वियों का चातुर्मास होता है। उनके सान्निध्य का अर्थ है- बाहरी के साथ-साथ आंतरिक बदलाव घटित होना। जीवन को सकारात्मक दिशाएं देने के लिए चातुर्मास एक सशक्त माध्यम है। यह महत्वाकांक्षाओं को थामता है। इन्द्रियों की आसक्ति को विवेक द्वारा समेटता है। मन की सतह पर जमी राग-द्वेष की दूषित परतों को उघाड़ता है। करणीय और अकरणीय का ज्ञान देता है, तभी जीवन की दिशाएं बदलती है। चातुर्मास संस्कृति की एक अमूल्य धरोहर है। जरूरत है इस सांस्कृतिक परम्परा को अक्षुण्ण बनाने की। ऐसी परम्पराओं पर हमें गर्व और गौरव होना चाहिए कि, जहाँ जीवन की हर सुबह सफलताओं की धूप बांटें और हर शाम चारित्र धर्म की आराधना के नए आयाम उद्घाटित करें, क्योंकि यही अहिंसा, शांति और सह-अस्तित्व की त्रिपथगा सत्यं, शिवं, सुंदरम् का निनाद करती हुई समाज की उर्वरा में ज्योति की फसलें उगाती है।