कुल पृष्ठ दर्शन : 39

You are currently viewing जीवन को नया घाट देते हैं ईश्वर तुल्य गुरु

जीवन को नया घाट देते हैं ईश्वर तुल्य गुरु

ललित गर्ग

दिल्ली
**************************************

गुरु पूर्णिमा (२१ जुलाई) विशेष….

गुरु पूर्णिमा का भारतीय संस्कृति में सर्वोपरि महत्व है, यह गुरु-पूजन का पर्व है। सन्मार्ग एवं सत-मार्ग पर ले जाने वाले महापुरुषों के पूजन का पर्व, जिन्होंने अपने त्याग, तपस्या, ज्ञान एवं साधना से न केवल व्यक्ति को,) बल्कि समाज, देश और दुनिया को भवसागर से पार उतारने की राह प्रदान की है। गुरु एक ऊर्जा है, एक शक्ति है। भारतीय लोकचेतना में सत्य की ओर गति कराने एवं जीवन को जीवंतता देने वाले गुरु को ईश्वर माना गया है। इसीलिए उत्सवों की श्रृंखला में गुरु पूर्णिमा का सर्वोपरि महत्व माना गया है। इसे अध्यात्म जगत की बड़ी घटना के रूप में जाना जाता है। आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा कहा जाता है। मान्यता के अनुसार इस दिन महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ था, इसलिए इसे व्यास पूर्णिमा भी कहते है। इस दिन से ऋतु परिवर्तन भी होता है। इस दिन शिष्य अपने गुरु की पूजा करते हैं और यथाशक्ति दक्षिणा, पुष्प, वस्त्र, उपहार आदि भेंट करते हैं। पश्चिमी देशों में गुरु का कोई महत्व नहीं है, वहाँ विज्ञान और विज्ञापन का महत्व है। भारत में सदियों से माटी एवं जनजीवन में राह दिखाने वाले दीपक होते हैं ईश्वरतुल्य गुरु, क्योंकि गुरु न हो तो ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग कौन दिखाएगा ? गुरु ही मार्गदर्शन करते हैं और जीवन को ऊर्जामय बनाते हैं।
गुरु पूर्णिमा का त्योहार गुरु-शिष्य के आत्मीय संबंधों को सचेतन व्याख्या देता है। काव्यात्मक भाषा में कहा गया है-गुरु, पूर्णिमा के चाँद जैसा और शिष्य आषाढ़ी बादल जैसा। गुरु के पास चाँद की तरह अनुभवों का अक्षय कोष होता है। इसीलिए गुरु की पूजा की जाती है। ‘आचार्य देवोभवः’ का स्पष्ट अनुदेश भारत की पुनीत परंपरा है और वेद आदि ग्रंथों का अनुपम आदेश है। ऐसी मान्यता है कि, परमात्मा की ओर संकेत करने वाले गुरु ही होते हैं। गुरु की सन्निधि, प्रवचन, आशीर्वाद और अनुग्रह जिसे भी भाग्य से मिल जाए, उसका तो जीवन कृतार्थता से भर उठता है, क्योंकि गुरु बिना न आत्म-दर्शन होता और न परमात्म-दर्शन।
गुरु भवसागर पार पाने में नाविक का दायित्व निभाते हैं। वे हितचिंतक, मार्गदर्शक, विकास प्रेरक एवं विघ्नविनाशक होते हैं। उनका जीवन शिष्य के लिए आदर्श बनता है। उनकी सीख जीवन का उद्देश्य बनती है। अनुभवी आचार्यों ने भी गुरु की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए लिखा है- गुरु यानी वह अर्हता जो अंधकार में दीप, समुद्र में द्वीप, मरुस्थल में वृक्ष और हिमखण्डों के बीच अग्नि की उपमा को सार्थकता प्रदान कर सके।
हमारी प्राचीन गुरुकुल परम्परा एवं गुरुकुल संस्कृति ने महर्षि, तपस्वी, राष्ट्रभक्त, चक्रवर्ती सम्राट और जगद्गुरु तक के सुयोग्य महापुरुष उपलब्ध कराए हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने भी गुरु महिमा को सर्वाेपरि माना है। जनकपुरी में ऋषि विश्वामित्र की सेवा इसका प्रमाण है। भारतीय संस्कृति में गुरु आश्रय रहित व्यक्ति को अत्यंत हेय माना गया है। हमारे देश के ऋषि-महर्षि, तीर्थंकर और महात्मा गौतम बुद्ध, महावीर जैसी दिव्य विभूतियों ने गुरु पद से अपने उपदेशों से उदार भावना स्थापित की।
आज भौतिकवादी युग में गुरु के प्रति आस्था में न्यूनता आई है, जिसके परिणाम स्वरूप जीवन में अशांति, असुरक्षा और मानवीय गुणों का अभाव हो रहा है। गुरु पूर्णिमा के मौके पर वे लोग परेशान होते हैं, जिनके कोई गुरु नहीं हैं। ऐसे लोगों की चिंता का समाधान तुलसीदास जी ने हनुमान चालीसा में किया है कि “जै जै जै हनुमान गोसाई, कृपा करहु गुरुदेव की नाई।” उन्होंने कहा है कि अगर किसी का गुरु नहीं है तो वह हनुमानजी को अपना गुरु बना सकता है।
भारतीय संस्कृति में गुरु एक तरह का बांध है जो परमात्मा और संसार के एवं शिष्य और भगवान के बीच सेतु का काम करते हैं। इन गुरुओं की छत्रछाया में से निकलने वाले कपिल, कणाद, गौतम, पाणिनी आदि अपने विद्या वैभव के लिए आज भी संसार में प्रसिद्ध हैं। गुरुओं के शांत पवित्र आश्रम में बैठकर अध्ययन करने वाले शिष्यों की बुद्धि भी तद्नुकूल उज्ज्वल और उदात्त हुआ करती थी। पाठ्य पुस्तकों में कुछ नीतिपरक श्लोकों को जोड़ने अथवा बच्चों को तोते की तरह गायत्री मंत्र रटाने या अंग्रेजी शैली में योग को ‘योगा’ करने से न तो चरित्र निर्माण होता है, और न भावी पीढ़ी में ज्ञान का हस्तांतरण ही संभव है। ज्ञान तो गुरु से ही प्राप्त हो सकता है, लेकिन गुरु मिलें कहाँ ? अब तो ट्यूटर हैं, टीचर हैं, प्रोफेसर हैं, पर गुरु नदारद हैं।
आज नकली, धूर्त, ढोंगी, पाखंडी, साधु-संन्यासियों और गुरुओं की बाढ़ ने असली गुरु की महिमा को घटा दिया है। भगवान से मिलाने, मोक्ष और मुक्ति दिलाने, कुण्डलिनी जागृति, पाप और दुःख काटने, रोग-व्याधियाँ दूर करने और जीवन में सुख-सफलता दिलाने के नाम पर हजारों धोखेबाज गुरु पैदा हो गए हैं। जो स्वयं आत्मा को नहीं जानते, वे दूसरों को आत्मा पाने का गुर बताते हैं। ऐसे धन-लोलुप अज्ञानी और पाखंडी गुरुओं से हमें सदा सावधान रहना चाहिए। कहावत है कि ‘पानी पीजै छान के और गुरु कीजै जान के।’
‘योग दर्शन’ पुस्तक में भगवान श्रीकृष्ण को जगतगुरु कहा गया है, क्योंकि महाभारत के युद्ध के दौरान उन्होंने अर्जुन को कर्मयोग का उपदेश दिया था। हमारे जीवन को सुसंस्कृत करके उसे सर्वांग सुंदर बनाने का कार्य गुरु या आचार्य का ही है।
भारत के महान् दार्शनिक ओशो ने जब यह कहा कि हमारी शिक्षण संस्थाएं अविद्या का प्रचार कर रही हैं तो लोगों ने आपत्ति की, लेकिन वे सही कह रहे थे। आज हमारे विद्यालयों में ज्ञान का नहीं, बल्कि सूचनाओं का हस्तांतरण हो रहा है। विद्यार्थियों का ज्ञान से अब कोई वास्ता नहीं रहा, इसलिए आज हमारे पास चिकित्सक, अभियंता, वकील, न्यायाधीश, वैज्ञानिक और वास्तुकारों की तो बड़ी भीड़ जमा है, लेकिन ज्ञान के अभाव में चरित्र और चरित्र के बिना सुंदर समाज की कल्पना दिवास्वप्न बन कर रह गई है। हमें इन तथ्यों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। यह सत्य है कि, आज हम जिस सामाजिक और आर्थिक परिवेश में साँस ले रहे हैं वहाँ इन पुरानी व्यवस्थाओं की चर्चा निरर्थक है, परंतु इनके सार्थक और शाश्वत अंशों को तो हम ग्रहण कर ही सकते हैं।
सच्चा गुरु ही भगवान तुल्य है। अतः, सच्चा गुरु मिलने पर उनके चरणों में सब कुछ न्यौछावर कर दीजिए। उनके उपदेशों को जीवन में उतारिए। सभी मनुष्य अपने भीतर बैठे इस परम गुरु को जगाएं, क्योंकि गुरु जीवन को नया घाट देते हैं। यही गुरु-पूर्णिमा की सार्थकता है।