डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे (महाराष्ट्र)
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पंचकन्या (भाग-१)…
“अहिल्या द्रौपदी सीता तारा मंदोदरी तथा।
पंचकन्या ना स्मरेन्नित्यं महापातक नाशनम्॥”
याद आए कुछ श्लोक, जो प्रातः स्मरण के रूप में कंठस्थ थे! इनमें ऊपर निर्देशित ब्रम्ह पुराण से लिया यह संस्कृत श्लोक था। श्लोक का शब्दशः अर्थ लें, तो वह इस प्रकार है-अहल्या, द्रौपदी, सीता, तारा, मंदोदरी इन पाँचों के (पंचकं) ‘ना’ यानि पुरुष ने (ना-यानि पुरुष इस शब्द का प्रथमा एकवचन) नित्य स्मरण करना चाहिए। इन पंचकन्याओं का नित्य स्मरण करने से महापातक का नाश होता है। वैसे, देखा जाए तो ये स्त्री-व्यक्ति रेखाएँ हम सबके लिए अलग-अलग कारणों से आदर्श और श्रद्धा का विषय हैं और प्रातःस्मरणीय श्लोकों में उनका उल्लेख होने से वे जनमानस में वंदनीय हुई हैं। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि, पुरूष प्रधान संस्कृति का विचार कर पुरूषों ने इन पंचकन्याओं का प्रातःस्मरण करना चाहिए, यह नींव डालने हेतु ही यह श्लोक रहा होगा! स्त्रियों के लिए वे आदर्श हैं ही। इसके अलावा पुरूषों के मन में स्त्री के लिए आदर निर्माण होना चाहिए, या अगर है तो वह वृद्धिगत हो, यह भावना भी रही होगी।
रामायण तथा महाभारत हमारे शाश्वत मूल महाकाव्य हैं। महाभारत की विस्तृत और असीम विषयवस्तु के बारे में किसी ने क्या खूब कहा है-“जो जो इस जगत में है, वह महाभारत में है और जो जो महाभारत में नहीं है, वह इस जगत में भी नहीं है!” इसको महर्षि व्यास की प्रतिभा मानकर नतमस्तक होना है। इसी सन्दर्भ में हम इन ५ कन्याओं के नाम ध्यानपूर्वक देखें तो इनमें द्रौपदी महाभारत से तथा अन्य ४ रामायण के पात्र के रूप में हमारे सामने आती हैं। (कुछ एक स्थानों पर इस श्लोक में सीता के स्थान पर कुंती का उल्लेख है, परन्तु बहुतांश स्थानों में सीता का उल्लेख होने के कारण उसी के बारे में चर्चा करूंगी।)
पंचकन्याओं में पहली कन्या ‘अहल्या’, ब्रम्हदेव की अयोनिज (स्त्री के गर्भ में जिसने जन्म न लिया हो) कन्या और गौतम ऋषि की पत्नी! उसके जन्म के बारे में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। एक के अनुसार उर्वशी नामक अप्सरा का गर्वहरण करने हेतु ब्रम्हदेव ने सजीव सृष्टि के असीम सौंदर्य से परिपूर्ण स्त्री का निर्माण किया| अ+हल्-हल् यानि जोतना। अहल्या यानि ऐसी भूमि, जो जोती ना गई हो (अक्षत भूमि))। इस शब्द का एक और अर्थ है, निर्दोष या जिसके सौंदर्य में किंचित भी न्यून नहीं। ब्रम्हदेव ने उसे गौतम ऋषि के सुपुर्द किया। यौवनावस्था में पहुँचने पर गौतम ऋषि उसे फिर ब्रम्हदेव के पास ले आए।
गौतम ऋषि ने अत्यंत ममता और संयम से अहल्या की देखभाल की, यह देखकर ब्रम्हदेव ने गौतम ऋषि को अहल्या को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने के लिए कहा। इस प्रकार वह उससे उम्र में काफी बड़े गौतम ऋषि की पत्नी बनी। वह पत्नीधर्म का पालन कर रही थी। एक लोकप्रिय धारणा के अनुसार एक बार इंद्र ने गौतम ऋषि का छद्मरूप धारण कर उसका उपभोग किया, परन्तु यह गौतम ऋषि के ध्यान में आ गया। उन्होंने अहल्या को शिला (पत्थर) होने का श्राप दिया। उन्होंने इंद्र को भी श्राप दिया कि, उसके शरीर पर हजार क्षत निर्माण होंगे, परन्तु उसका सिंहासन अबाधित रहा। इंद्र के इस और अन्य कई प्रमादों के कारण स्वर्गलोक का राजा होकर भी उसे पूजनीय माना नहीं जाता। आगे बहुत समय बीतने के बाद प्रभु रामचंद्र ने अपने चरण स्पर्श से अहल्या का उद्धार किया। अहल्या की यह कहानी रामायण के कथाभाग के रूप में हम सबको ज्ञात है।
रामायण और कथासरित्सागर इन दोनों कथाओं में किए गए वर्णन के अनुसार पुरुषसत्ताक, पारंपरिक समाज में भी अहल्या अत्यंत रूपवती, ब्रम्हदेव की प्रथम कन्या, स्वयं की इच्छापूर्ति को महत्व देने वाली, स्पष्ट विचार प्रकट करने वाली और अपने प्रमाद को मान्य करते हुए पति ने दिया हुआ दंड भुगतनेवाली स्वतंत्र स्त्री है। इसलिए, भारतीय परंपरा में इस स्पष्ट, ढीठ और निर्भीक स्त्री को निर्दोष ही माना गया। यह मुक्त संस्कृति नहीं तो और क्या है ? कहीं न कहीं जानबूझ कर या अनजाने में अहल्या का चारित्र्य हनन हुआ, यह मानना होगा, परन्तु पति की बरसों तक की हुई सेवा इस एकमात्र प्रमाद के सामने इतनी तुच्छ कैसे साबित हुई ? गौतम ऋषि ने उसे माफ नहीं किया। चारित्र्य पर लगा कलंक धोने के लिए उसे एकांतवास तथा तपश्चर्या के मार्ग का अनुसरण करना पड़ा! इसमें उसे गौतम ऋषि से प्राप्त शतानंद नामक पुत्र से भी दूर जाना पड़ा।
मित्रों, काव्यगत न्याय देखिए कि, अहल्या प्रातःस्मरणीय सती, तथा प्रथम पंचकन्या के रूप में वंदनीय रही। आज की पुरूषप्रधान संस्कृति में भी उसका यह स्थान प्रातःपूजनीय है।