-डॉ. विमलेश कान्ति वर्मा
सीधी बात…
साहित्य अकादमी की स्थापना के ७० वर्ष पूरे होने पर छः दिवसीय साहित्योत्सव २०२४ बड़ी धूमधाम से सम्पन्न हुआ। निमंत्रण पत्र पर अंकित था ‘विश्व का सबसे बड़ा साहित्य का उत्सव’। आयोजन भव्य और गरिमापूर्ण था। देश के कोने-कोने से आए मित्रों से मिलने का अच्छा अवसर था, पर ‘और भी गम है ज़माने में‘। ४ दिन की उपस्थिति से संतोष करना पड़ा। भारतीय भाषा साहित्य सम्मान के लिए १२ मार्च २०२४ की तिथि और नगर का प्रतिष्ठित कमानी सभागार आरक्षित किया गया था। वर्ष २०२३ के लिए २४ साहित्य अकादमी पुरस्कार दिए जाने वाले थे। २२ अनुसूचित भाषाओं के लेखक और २ साहित्य अकादमी द्वारा स्वीकृत देश की अन्य प्रमुख भाषाओं (अंग्रेजी और राजस्थानी) के साहित्यकारों को पुरस्कृत किया जाना था। साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया तो जाता है साहित्य पर, पर पुरस्कारों का विभाजन भाषा आधारित है यथा बांगला पुरस्कार, उड़िया भाषा का पुरस्कार। २४ भाषाओं के लेखक अपनी साहित्य सेवा के लिए आज सम्मानित किए जाने वाले थे।
अधिकांश पुरस्कृत लेखकों ने अपने वक्तव्य अंग्रेज़ी में दिए। श्रोतागण महसूस कर रहे थे और कानाफूसी कर रहे थे कि अपनी मातृभाषा पर अच्छा अधिकार रखने एवं अपनी भाषा में उत्तम साहित्यिक सृष्टि पर पुरस्कृत होने के बावजूद रचनाकारों को अंग्रेजी में बोलना पड़ रहा है, वे अटक- अटक कर अंग्रेजी में लिखा अपना संबोधन पढ़ रहे हैं क्योंकि उन्हें समझाया गया है कि पुरस्कृत लेखक यदि प्रतिष्ठा चाहता है तो उसे आभिजात्य भाषा अंग्रेजी में ही बोलना चाहिए। यहाँ तक कि समारोह की मुख्य अतिथि ओडिया भाषा भाषी डॉ. प्रतिभा राय जो हिंदी, अंग्रेज़ी से कहीं अधिक अच्छी बोलती है, ने भी अपने उद्बोधन की भाषा अंग्रेजी चुनी। उन्होंने अपने अभिभाषण में एक बहुत ही सुन्दर पदबंध का प्रयोग किया, वह था-‘अभिव्यक्त भारत’। मेरे आस-पास बैठे कुछ विद्वानों ने जो विविध विश्वविद्यालयों के कुलपति और वरिष्ठ प्रोफेसर थे, मुस्कुराते हुए कहा कि अंग्रेजी के ‘अभिव्यक्त भारत’ का कमाल देखिए। कुछ ने सुझाव भी दिया कि पुरस्कार विजेताओं को अपनी मातृभाषा में या जिस भाषा में वे साहित्य लिख कर पुरस्कृत हो रहे हैं, कहने के लिए प्रेरित करना चाहिए था। इस व्यवस्था से उन्हें लड़खड़ाती अंग्रेज़ी में बोलने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ता और साहित्य अकादमी जिन पुरस्कार विजेताओं की भाषा हिंदी नहीं है उनके भाषण के लिए हिंदी अनुवाद की व्यवस्था करती। अकादमी तो अनुवाद के लिए प्रतिवर्ष पुरस्कार भी देती है पर यहाँ तो अंग्रेजी सर चढ़ कर बोलने वाली भाषा है। काश! साहित्य अकादमी के योद्धाओं को यह बात समझ में आती कि ‘अभिव्यक्त भारत’ अंग्रेज़ी का नहीं है। अंग्रेज़ी अब कम लोगों को ठीक से बोलनी आती है पर वे अंग्रेज़ियत के शिकार हैं और उन्हें लगता है कि अंग्रेज़ी में यदि बात नहीं कही गई तो आप लाइन में आगे नहीं, पीछे रहने के लिए विवश हैं। मुझे लगता है कि देश के स्वाभिमान के लिए देश की महत्वपूर्ण और सबसे अधिक और सबसे बड़े भू-भाग में बोली जाने वाली भाषा हिंदी के लिए भारतीय भाषाओं में अंतर्संवाद की आज आवश्यकता है। हिंदी और भारतीय भाषाओं की राष्ट्रीय मंच पर उपेक्षा हिंदी का ही नहीं, देश का अपमान है। समारोह में उपस्थित एक वरिष्ठ पत्रकार ने तो मुझसे कई विशिष्ट व्यक्तियों के बीच यहाँ तक कहा कि भारत सरकार को नियम बनाकर दबाव बनाना चाहिए कि साहित्य अकादमी जैसी संस्था में माध्यम भाषा के रूप में हिंदी या किसी भारतीय भाषा का ही प्रयोग हो और अंग्रेज़ी बोलने वाले उपस्थित विदेशियों के लिए हिंदी अनुवाद की व्यवस्था हो।
साहित्य अकादमी एक राष्ट्रीय प्रतिष्ठान है, हिंदी की प्रतिष्ठा देश की भाषाओं की प्रतिष्ठा है। मुझे प्रसन्नता है कि अकादमी के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष ने अपने उद्बोधन के लिए हिंदी को चुना। उनके भाषण का जनता ने करतल ध्वनि से स्वागत भी किया। संभवतः इसलिए कि भाषण हिंदी में होने से उन्हें समझ में आ रहा था कि मंच से क्या कहा जा रहा है, जबकि अंग्रेज़ी में कही गई बातें सर के ऊपर से निकल रही थीं। अपनी मातृभाषा में जिसमें लिखने के कारण उन्हें पुरस्कार मिला है, उसमें न बोलकर लड़खड़ाती हुई अंग्रेज़ी भाषा में बोलना या बोलने के लिए कहना नैतिक दृष्टि से ठीक नहीं और फिर यह भारतीय भाषाओं का साहित्य उत्सव कैसा ? बहुभाषिकता तो भारत की विशेषता है और देश की माध्यम-संपर्क भाषा हिंदी है न कि अंग्रेजी।
जब कभी स्वदेश और विदेश में हिन्दी की स्थिति के बारे में कोई बात उठती है तो मेरे मन-मस्तिष्क में एकसाथ कई चित्र उभरने लगते हैं। कुछ बड़ी निराशा उत्पन्न करते हैं, लगने लगता है कि इस देश के लोगों में जो स्वभाषा और स्वदेश के प्रति सम्मान और भक्ति का भाव कभी था, वह अब नहीं रहा। इस देश में धीरे-धीरे भारतीय भाषाओं और हिन्दी का महत्व घटता जाएगा और अंग्रेज़ी की वर्चस्विता बढ़ती जाएगी। अंग्रेज़ी की वर्चस्विता देश के अंग्रेज़ी भक्तों की एक सुनियोजित व्यवस्था है, जिससे मुक्ति देश का भविष्य तय करेगी। कभी ऐसा भी लगता है कि शासन या सत्ता अपने निजी स्वार्थ में ‘स्वभाषा’ और ‘स्वसंस्कृति’ के महत्व को चाहे अनदेखा कर दें, पर समय का प्रवाह और हिन्दी की नैसर्गिक शक्ति उसे देश की पूर्ण मजबूत भाषा का स्वरूप देगी ही।
सच तो यह है कि आज तक हिन्दी जाने और बोले बिना विश्व के सबसे बड़े इस लोकतंत्र भारत का कोई प्रधानमंत्री नहीं बन सका, बिना हिन्दी जाने विशाल भारतीय बाज़ार पर कोई अधिकार नहीं कर सकता। बड़े से बड़ा लेखक बिना हिन्दी में अनुदित हुए लोकप्रिय और देशव्यापी लेखक नहीं हो सकता एवं बड़े से बड़ा अभिनेता बिना बालीवुड आए और हिन्दी फिल्मों में काम किए बिना देश व्यापी लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सकता। बड़े से बड़ा संगीतज्ञ हिन्दी के तुलसी, सूर, मीरा और कबीर के भजन गाए बिना सर्वश्रेठ संगीतज्ञ की प्रसिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता। हिन्दी की इस शक्ति का अनुमान लगाते हुए विश्व के बड़े पूंजीवादी देश भी आज अपने देशों में हिन्दी सिखाने के उपक्रम कर ही रहे हैं।
हिंदी को महात्मा गांधी ने राष्ट्रभाषा का पद दिया था। भारतीय संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा का पद देकर उसे गौरवान्वित किया और विदेशी विद्वानों ने हिन्दी को ‘वैश्विक हिंदी’ और ‘विश्वभाषा’ के रूप में मान्यता दी। हिन्दी की महत्ता और सामर्थ्य का उल्लेख एवं बखान हिन्दी भाषियों ने ही नहीं, सभी हिंदीतर भारतीय नेताओं ने किया है और भारतीय भाषाओं में हिन्दी को देश को जोड़ने वाली भाषा की संज्ञा दी है। सभी जानते और मानते हैं कि भूगोल देश बांटता है तो भाषा जोड़ने का कार्य करती है।
गुजरात के महात्मा गांधी, सरदार वल्लभ भाई पटेल, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, दयानंद सरस्वती, महाराष्ट्र के बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, पंजाब के लाला लाजपत राय, बांग्ला के रबीन्द्र नाथ ठाकुर, क्षितिमोहन सेन और केरल के चन्द्रशेखरन नायर आदि सभी ने देश की अखण्डता के लिए हिंदी को राष्ट्र भाषा का गौरव दिया था। भारतीय संविधान सभा में राजभाषा खंड पर हुई पूरी बहस आप पढ़ें, तो देखेंगे कि देश के सभी राजनेताओं, चाहे वे किसी भी प्रांत या भाषा के हों, ने समस्त भारतीय भाषाओं में हिन्दी को ही राजभाषा का गौरव दिया।
भारत को स्वतन्त्र हुए ७७ वर्ष पूरे होने को हैं, भारतीय संविधान सभा में हिन्दी के राजभाषा पद पर प्रतिष्ठित हुए भी ७४ वर्ष पूरे होने वाले हैं। सन १९७५ से प्रारम्भ हुए विश्व हिन्दी सम्मलेन की श्रृंखला में १२वां सम्मलेन २०२३ में फीजी में हुआ। मारीशस (प्रथम विश्व हिन्दी सम्मलेन) में पारित प्रस्ताव कि “हिन्दी संयुक्त राष्ट्र की भाषा बने” इस प्रस्ताव को पारित हुए भी अब ४३ वर्ष होने को हैं और अभी तक हिन्दी के सन्दर्भ में कोई ठोस सफलता भारत को नहीं मिली। भारत के जन-मन को अब लगता है कि देश अपनी भाषा की प्रतिष्ठा के लिए गंभीर नहीं हैं और सारे प्रयत्न छलावा मात्र है। भारतीय नेताओं की चिंता अब देश और भाषा की चिंता नहीं, अपनी वोट बैंक शक्ति बनाने और बढ़ाने तक ही सीमित है, इसीलिए अधूरे मन से किए गए प्रयत्न निष्फल हो जाते हैं। ऐसे क्या कारण हैं जो हमें लक्ष्य सिद्धि तक नहीं पहुँचने नहीं देते। हमारे भाषा संबंधी प्रयत्न प्रतिवर्ष हज़ारों, लाखों और करोड़ों रुपयों के व्यय होने के बाद भी कुछ ठोस उपलब्धि नहीं देते। दोष सत्ता का है, संस्थाओं का है या हमारा या कहिए व्यक्ति का है। मूल में तो हर जगह व्यक्ति ही है। सत्ताधारी नेता अपनी और अपने पद की सुरक्षा के कारण कठोर निर्णय नहीं लेते, प्रशासनिक अधिकारी अपने दायित्व के प्रति सचेत नहीं, वे किसी झंझट में फंसना नहीं चाहते; संस्थाएं जो अपनी सक्रियता और देश तथा भाषा के प्रति निष्ठा के लिए कभी जानी जाती थी, वे निष्क्रिय तो क्या अब मृतप्राय: -सी हो गई हैं। यह चरित्र परिवर्तन देशवासियों में कैसे हो गया, निष्क्रियता, दायित्वबोध हीनता, असुरक्षा की भावना, स्व-चिंता, स्वार्थी मनोवृत्ति, धन लोलुपता, कपट आज चरित्र के अंग क्यों बन गए, इस पर विचार होना चाहिए। खुल कर चर्चा होनी चाहिए कि क्या कारण हैं कि देश में भाषा विशेषकर हिन्दी की क्या स्थिति है और उसके विकास और प्रसार के लिए क्या किया जाना चाहिए। भारत में आज जो देश की राष्ट्रभाषा, राजभाषा और संपर्क भाषा और हिंदी जिसे हम विश्वभाषा बनाने का सपना देखते रहते हैं, उस हिन्दी और अपनी-अपनी भाषाओं के प्रति हम सजग नहीं होते, उनकी सुरक्षा और प्रतिष्ठा की कारगर व्यवस्था यदि नहीं कर पाते तो देश को भाषिक अराजकता की स्थिति का दंश झेलना ही होगा।
आज देश के समक्ष भारतीय भाषाओं को लेकर कई चुनौतियाँ हैं। अंग्रेज़ी की वर्चस्विता से भारतीय भाषाएँ हाशिए पर आती जा रही हैं। उनमें अंग्रेज़ी शब्दों का बाहुल्य तो बढ़ ही रहा है, भाषाओं की व्याकरणिक संरचना पर भी उसका प्रभाव इतना बढ़ता जाता हैं कि अंग्रेज़ी जाने बिना पाठक को हिन्दी समझ ही न आएगी। संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं के लिए संजीवनी का काम करती है। भारतीय भाषाओं में प्रधान भाषा हिन्दी है और उसके पुष्ट होने से समस्त भारतीय भाषाएँ पुष्ट होती है एवं हिन्दी के अपदस्थ होने से अन्य भाषाएँ भी महत्वहीन हो सकती हैं। हाल की ही बात है और मुझे अच्छी तरह स्मरण भी है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में “हिंदी शब्द ज्ञान कैसे बढ़ाएं” विषय पर वरिष्ठ पत्रकार सुनंदा वर्मा की एक कार्यशाला में नाट्य विद्यालय के कुलसचिव प्रदीप कुमार मोहंती (उड़िया भाषा भाषी) ने हस्तक्षेप करते हुए कहा था कि यदि हिंदी में किसी भी विदेशी भाषा-चाहे अंग्रेजी हो या अरबी, फ़ारसी या उर्दू हो, की तुलना में अधिक अच्छा होगा यदि हिंदी में भारतीय भाषाओं के शब्द चयन को प्राथमिकता दी जाए, क्योंकि भारतीयों के लिए भारतीय भाषाएँ संरचना ही नहीं, ध्वनि की दृष्टि से भी विदेशी भाषाओं की तुलना में अधिक बोधगम्य हैं।
हिन्दी पुष्ट कैसे हो? हिन्दी को राष्ट्रीय गरिमा कैसे प्राप्त हो ? भारतीय संविधान के निर्माताओं ने तो इसकी व्यवस्था की थी। देश के नेताओं ने गृह मंत्रालय के अधीन राजभाषा विभाग की स्थापना भी इसी उद्देश्य से कर दी थी, पर हिन्दी का महत्व शासन-प्रशासन के स्तर पर निरंतर घटता गया। देश के नेताओं ने इसे अनुभव भी किया, किन्तु उन्होंने इसके उपाय नहीं सोचे। वे यही दोहराते रहे कि हम हिन्दी किसी पर थोपना नहीं चाहते। हम उदारशील लोकतंत्र हैं।
प्रश्न उठता है कि राजभाषा के प्रति हम कितने सजग हैं। आशा की जाती थी कि हिन्दी के राजभाषा घोषित होने के ७४ वर्षों में तो राजभाषा संबंधी जो सामान्य संवैधानिक निर्देश हैं, उनका पालन तो कम से कम सरकार द्वारा तो हो ही सकेगा, पर स्थिति घोर निराशाजनक है।
सामान्यतः सरकारी और गैर सरकारी-स्वायत्त सभी संस्थाओं को संविधान के दायरे में यह बात माननी चाहिए थी, पर केन्द्रीय और राज्य सरकारों ने ही इसका उल्लंघन किया और देश ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया।
लगता है कि अब पर्यालोचन का समय है। देश और विदेश में हिन्दी की स्थिति आज क्या है, इस पर ईमानदारी से विचार किया जाना चाहिए, पर अपने देश में हिन्दी की जो सुदृढ़ स्थिति होनी चाहिए थी, वह देश के स्वाधीन होने के ७७ वर्ष बाद भी नहीं बन सकी। इसके कारण क्या हैं, इसकी पड़ताल तो होनी ही चाहिए।
हिन्दी के प्रति सत्ता और शासन की निष्क्रियता से हिन्दी की संस्थाओं की गिरती हुई अकादमिक स्थिति से सारा देश आज परिचित है। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय (वर्धा) द्वारा जो हिन्दी शब्द कोश प्रकाशित हुआ था, उसका सारा इतिहास संस्था के अकादमिक दिवालिएपन का दर्पण है। हिंदी संस्थाओं द्वारा दिए गए सम्मानों और पुरस्कारों के सम्बन्ध में बड़े हिन्दी पदों पर नियुक्ति के सम्बन्ध में वस्तुतः निष्पक्ष पश्च समीक्षा अपेक्षित है, जिसकी कभी आवश्यकता ही नहीं समझी गई।
स्वदेश में हिन्दी के लिए एक बड़ी चुनौती अपनी उपभाषाओं तथा भारतीय भाषाओं के मध्य अंतर्संवाद स्थापित करना है। अपनी उपभाषाओं के बीच अंतर्संवाद की कमी ने ही हिन्दी को खड़ी बोली मात्र तक सीमित कर दिया है। खड़ी बोली के प्रयोक्ता को आज यह नहीं पता कि अवधी में क्या लिखा जा रहा है ? इस अंतर्संवाद की कमी ने हिन्दी को निरंतर कमज़ोर किया है। हिन्दी की बोलियों को हिन्दी से अलग रखकर प्रतिष्ठित करना हिन्दी के स्वरूप को न समझने के कारण है। देश की भाषाओं में हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है जिसके साथ किसी प्रांत का बोध नहीं होता, जबकि पंजाबी, पंजाब की; मराठी, महाराष्ट्र की; गुजराती, गुजरात की; ,असमिया, असम की; मलयालम केरल की, तमिल, तमिलनाडु की, कन्नड़, कर्नाटक की; तेलुगु, आन्ध्रप्रदेश की और कश्मीरी, कश्मीर की भाषाएँ हैं पर हिन्दी हिन्दुस्तान की भाषा है। हिन्दी सारे देश की संपर्क भाषा है। जब हम देश में हिन्दी के मातृभाषी क्षेत्र की परिधि की बात करते हैं तो कहते हैं-‘हिंदी, उत्तर में नेपाल की तराई से लेकर दक्षिण में रायपुर और खंडवा तक पूर्व में मिथिला और भागलपुर के जिले से लेकर पश्चिम में के बाड़मेर, बीकानेर और जैसलमेर तक बोली जाती है।
भारतीय भाषाओं और हिन्दी में जो एक सौहार्द की भावना पनपनी चाहिए थी, वह नहीं पनप सकी और इसका प्रमुख कारण हिन्दी और भारतीय भाषाओं के बीच अंतर्संवाद का न होना है। हम एक-दूसरे की भाषिक संस्कृति को समझें, उसकी समृद्धि को मान्यता दें तो हिन्दी अपने-आप पुष्ट होगी।
भारतीय भाषाओं के बीच अंतर्संवाद अधिक सुगम हो सके, इसके लिए पहल हिन्दी को ही करनी होगी। भारतीय मनीषियों ने विभिन्न स्तरों पर कई प्रयत्न किए पर लक्ष्य सिद्धि न हो सकी। इसका एक बड़ा कारण था कि हमने उन प्रयत्नों की महत्ता और उपयोगिता को ही नहीं समझा। हमने उसे आत्म प्रतिष्ठा के विरुद्ध माना। इन्हीं में से बिनोबा भावे द्वारा प्रस्तावित एक सुझाव था कि समस्त भारतीय भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि अपना ली जाए। नागरी लिपि परिषद् ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया, परिणाम स्वरूप अनेक अलिखित भाषाओं ने नागरी लिपि को अपनाया। हम भली भाँति जानते हैं कि उर्दू साहित्य के देवनागरी लिपि में प्रकाशित होने से उर्दू साहित्य की भारत में लोकप्रियता कई गुना बढ़ी है।
हिन्दी आज भारत में ही नहीं, दुनिया के कई देशों में बोली जाती है। यदि भारतीय अप्रवासन का इतिहास और आँकड़े देखे जाएँ तो ज्ञात होगा कि २ करोड़ से भी अधिक भारतीय विदेश में बसे हुए है। ये भारतीय यद्यपि विभिन्न भाषा-भाषी हैं पर सभी की संपर्क भाषा हिन्दी है और सामुदायिक आयोजनों में पारस्परिक वार्तालाप के लिए वे हिन्दी का प्रयोग करते हैं। हिन्दी उनके लिए भारतीय अस्मिता की प्रतीक है।
भारत में राष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी को जो स्थान मिलना चाहिए था, वह स्वतंत्रता के सत्तर वर्ष बाद भी नहीं मिल सका। हिंदी के प्रति सत्ता की उदासीनता से राजभाषा के संवैधानिक दायित्वों का निष्ठा पूर्वक अनुपालन नहीं हुआ, परिणामतः, राजभाषा की प्रगति बहुत मंथर रही। देश में हिन्दी की यह स्थिति शोचनीय तो है ही, चिंतनीय भी है। प्रश्न यह है कि इस स्थिति से उबरने का रास्ता क्या है ? हिन्दी का मार्ग प्रशस्त हो, उसे वास्तविक राष्ट्रीय गरिमा मिले, देश-विदेश में उसका सम्मान हो इसके लिए क्या करना अपेक्षित है ? यह एक राष्ट्रीय प्रश्न है और इस पर जातियता, प्रांतीयता और दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रीय विमर्श अपेक्षित है। अष्टम अनुसूची से हटाकर हिंदी को संवैधानिक दृष्टि से राष्ट्रभाषा का पद मिले, जैसा कि सभी देशों में है तो अनेक समस्याओं का समाधान भारतीय संविधान के दायरे में खोजा जा सकता है। आज सबसे बड़ी आवश्यकता है कि राजभाषा के संवैधानिक निर्देशों का दृढ़ता से अनुपालन हो। संविधान की उपेक्षा हिन्दी या देश की उदारता की दुहाई देकर नहीं होनी चाहिए।
भाषा की सुरक्षा और प्रतिष्ठा देश की प्रतिष्ठा का आधार बनती है। भारतीय भाषाओं की सम्मिलित शक्ति ही अंग्रेज़ी की दासता से देश को मुक्ति दिला सकती है। यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि अंग्रेजी की दासता से मुक्ति महत्वपूर्ण है न कि अंग्रेजी से।
(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)