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रहें ना रहें हम, महका करेंगें…

डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे (महाराष्ट्र)
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लता मंगेशकर विशेष (२८ सितम्बर १९२९-६ फरवरी २०२२)…

‘एको अहं, द्वितीयो नास्ति,
न भूतो न भविष्यति!’
(अर्थात-एक मैं ही हूँ, दूसरा सब मिथ्या है, ना मेरे जैसा कोई आया था और ना ही मेरे जैसा कोई आएगा। ना ही भूतकाल में ऐसा कुछ हुआ था, और ना ही भविष्य में ऐसा कुछ होगा।)
यह वाक्य गान सरस्वती लता मंगेशकर पर सर्वथा उचित रूप से लागू होता है। २८ सितम्बर १९२९, एक मंगलमय दिन! इसी दिन स्वरसम्राज्ञी लता मंगेशकर का जन्म हुआ। संगीतकार दत्ता डावजेकर ने कहा था,-‘इसके नाम में ही लय और ताल है।’
जिसके गाने से आनंदसागर में आनंद तरंग निर्मित होती है, जिसने ‘आनंदघन’ नाम से गिनी-चुनी फिल्मों को संगीत देकर तमाम संगीतकारों पर उपकार ही किया, जिसने शास्त्रीय संगीत की उच्च शिक्षा लेकर उसमें महारत हासिल की, परन्तु व्यावसायिक तौर पर शास्त्रीय संगीत के जलसे नहीं किए (प्रस्थापित शास्त्रीय गायकों ने भी इसके लिए उसका शुक्रिया अदा किया है), उसे अमृतलता कहूं या स्वर्ण लता ?

‘गाये लता, गाये लता, गाये लता गा!’
आज यह स्वर्ण वल्लरी गगन आरोहित होकर संगीत के अक्षय अवकाश में एक ध्रुव तारे जैसी अचल रूप में विराजमान हुई है। उसे अपनी नश्वर देह का त्याग किए हुए ढाई साल हुए, परन्तु यह चिरंजीवी अक्षय लता नामक स्वर सब तरफ अक्षरशः ‘अपने नाद की प्रतिध्वनि’ का निर्माण कर रहा है। उसका जादू अमर होने के कारण ऐसा प्रतीत ही नहीं होता कि, वह अब हमारे बीच नहीं है। पुण्यतिथि, स्मृति दिन ये शब्द तो मेरे हिसाब से उस पर लागू होते ही नहीं हैं। ऐसे शब्द लिखना या उनका उच्चारण करना यानी केवल जगत परंपरा का पालन करना समझ लीजिए।
शापित गंधर्व दीनानाथ मंगेशकर के सुरों की वारिस लता ने उनका स्वर अक्षरशः हर क्षण कैसे संजोया, उसे हम बस उसके गायन से ही अनुभव ही कर सकते हैं। जिस तरह संतों की वाणी अनुभव करनी चाहिए, तत्सम लता को अनुभव करना चाहिए उसके स्वर्गीय स्वरों से! जीवन का अंतिम क्षण आने तक उसने जो घाव सहन किए, जो काँटेदार राह चलकर अपना सकल जीवन संगीत को समर्पित किया, उस पर ढेरों लेख क्या, किताबें क्या, सब कुछ भरपूर मात्रा में उपलब्ध है, परन्तु हम जैसे सागर को उसी के जल से अर्ध्य देते हैं, वैसे ही मेरा यह अर्ध्य समझ लीजिए।
लता और फिल्म जगत की अमृत गाथा समांतर ही कहनी होगी। १९४० से लगभग ७५-८० वर्षों की संगीतमय यात्रा का सानिध्य। उसके साथ रहे गायक- गायिकाएं, नायक-नायिकाएं, संगीतकार, गीतकार, तंत्रज्ञ, वादक, दिग्दर्शक, निर्माता जैसे हजारों की संख्या में लोग मार्गक्रमण करते रहे, कुछ आधे रास्ते में छोड़ कर चले गए।
वह जीवन भर एक अनोखी और अद्वितीय सप्तपदी चलती रही, सप्त सुरों के संग। उसके अनमोल, सदाबहार और कर्णमधुर गाने अक्षरशः हर क्षण हृदय में झंकृत हो रहे हैं। किसी भी संगीतकार के गीत हों-खेमचंद प्रकाश, नौशाद, अनिल बिस्वास, ग़ुलाम मोहम्मद, सज्जाद हुसैन, जमाल सेन जैसे दिग्गजों की कठिनतम तर्जें, सलिल दा या सचिन दा की लोक संगीत पर आधारित धुनें, वसंत देसाई, सी. रामचंद्र या शंकर जयकिशन के अभिजात संगीत से सजी या आर.डी. बर्मन, ए.आर. रहमान, लक्ष्मी-प्यारे के आधुनिक गीत हों, कल्याण जी-आनंद जी की सरल और सहजसुंदर धुनें हों, जिस किसी गाने को लता का शुद्ध पारसमणि सम स्वर-गंधार प्राप्त हुआ, उसकी आभा नव-नवीन स्वर्ण-उन्मेष लेकर रसिक जनों के कलेजे की गहराई में उतर जाती।
अत्यंत कठिनतम तर्जें बनाकर लता से अनगिनत अभ्यास करवाने वाले सज्जाद हुसैन का तो कहना था ‘सिर्फ लता ही मेरे गाने गा सकती है’ (सज्जाद के संगीत का मास्टरपीस ऐसा ‘रुस्तम सोहराब’ (१९६३) इस फिल्म के ‘ऐ दिलरुबा’… इस गाने की स्मृति सहज ही जाग उठी)।’ उसके शास्त्रीय संगीत की ‘तैयारी’ का एक ही नमूना बहुत है, अनिल बिस्वास के संगीत से सजी ‘सौतेला भाई’ (१९६२) फिल्म के ‘जा मैं तोसे नहीं बोलूँ’ गाना सुनिए। भावनाओं का तूफान तो उसके हजारों गानों में है। उदाहरण दूँ तो मेरा अत्यंत प्रिय गाना ‘रोते- रोते गुजर गई रात रे’ (फिल्म-
बुज़दिल-१९५१)। यह दर्दभरा विरह गीत लता ने गाया है। बर्मन दा का सदाबहार संगीत और साथ में परदे पर निम्मी का भावभीना अभिनय, इन सबमें दर्द की पराकाष्ठा है। यह मेरी पसंद समझ लीजिए, क्योंकि लता के गानों की इस तरह गिनती करना यानी आसमाँ के तारों की गिनती करने जैसा हुआ।
असल में देखा जाए तो लता का गाना वही होता है, लेकिन अपने मन के अनुसार उसके गाने के इंद्रधनुषी रंग कभी-कभी अलग अलग लगते हैं। कानों में प्राणशक्ति एकत्रित कर सुनना चाहें ऐसे ये ‘आनंदघन’ बरसते हैं और इनमें मन भीग जाता है। कितना ही भीगें, फिर-फिर-से उन मखमल से नर्म मुलायम बारिश की बून्दनियों के स्पर्श की अनुभूति करने को जी चाहता है। यहाँ मन संतुष्ट होने का सवाल ही नहीं है। अगर अमृतलता हो तो, जितना भी अमृतपान करें, उतना ही असंतोष वृद्धिगत होते जाता है। मित्रों, यह असंतोष शाश्वत है, क्योंकि लता का ॐकार स्वरूप स्वर ही चिरंतन है, उसका अनादि अनंत रूप अनुभव करने के उपरान्त स्वाभाविक तौर पर लगता है, ‘जहाँ दिव्यत्व की प्रचीति हो, वहाँ मेरे हाथ नमन करने को जुड़ जाते हैं!’ मुझे प्रतिष्ठित साहित्यिक आचार्य अत्रे का लता से सम्बन्धित यह वाक्य बड़ा ही सुन्दर लगता है, “ऐसा प्रतीत होता है कि सरस्वती की वीणा की झंकार, उर्वशी के नूपुरों की रुनझुन और कृष्ण की मुरली का स्वर, इन सबको समाहित कर विधाता ने लता का कंठ निर्माण किया होगा।”
अत्रे जी ने ही लता को २८ सितम्बर १९६४ में (जन्मदिन पर) ‘दैनिक मराठा’ समाचार-पत्र में उनके मराठी में लिखे अविस्मरणीय मान-पत्र को अर्पण किया था। इतने मान-सन्मान, शोहरत, ऐश्वर्य और फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध के होते हुए भी लता का रियाज़ निरंतर चलता रहा एवं उसके कदम भी उसी जमीं पर ही रहे। सम्भ्रम में हूँ कि जागतिक कीर्ति प्राप्त प्रतिष्ठित अल्बर्ट हॉल में उसे अंतरराष्ट्रीय गायिका के रूप में प्रस्थापित करने वाले कार्यक्रम की तारीफ़ करें, या सर्वश्रेष्ठ दादा साहेब फालके और ‘भारत रत्न’ पुरस्कार मिलने के उपरान्त भी लता की विनम्रता कम कैसे नहीं होती, इसका आश्चर्य करें ?
क्या कहें इस विविधरंगी, तितलियों की सी इंद्रधनुषी स्वर मलिका को ? सत्य तो यह है कि, वह कुमुदिनी है, उसकी सुगंध का ज्ञान उसे है ही नहीं। उसी तरह लता को क्या मालूम कि, उसने हमारा जीवन कितना और कैसे समृद्ध किया है। उसके गाए हुए ३६ भाषाओं में से गाने की भाषा कोई भी रहे, उसके स्वरों से गानों का एकदम मूल लहज़ा सुनकर मानों वह भाषा ही धन्य हो गई। यह अचेतन हिसाब करने की बजाय एक भाव रखें,-“आम खाओ, पेड़ मत गिनो” बस बात ख़त्म। लता यानि बहु सुविधाओं से भी ऊपर। बीमारी कोई भी हो, उसके पास गाने के रूप में इलाज वाली दवा मौजूद है ही। इस दवा को न खाना तो सख्त मना है। छोटी बच्ची का ‘बच्चे मन के सच्चे’, सोलह साल की नवयुवती का ‘जा जा जा मेरे बचपन’, विवाहिता का ‘तुम्हीं मेरी मंजिल’, समर्पिता का ‘छुपा लो यूँ दिल में प्यार मेरा’, तो एक रूपगर्विता का ‘प्यार किया तो डरना क्या’, एक माता का ‘चंदा है तू’, एक क्लब डांसर का (है यह भी) ‘आ जाने ना’, एक भक्तिरस से परिपूर्ण ऐसी भाविका का ‘अल्ला तेरो नाम’ व एक जाज्वल्य राष्ट्राभिमानी स्त्री का ‘ऐ मेरे वतन के लोगों’ ऐसे कितनी सारी लता की मधु-मधुर स्वरमाधुरी से सजे बहुरंगी स्त्री रूप याद करें

हम सब कोकिल कण्ठी लता की इस अनन्त स्वर-यात्रा के सदैव अनुगामी रहे हैं और रहेंगे। स्वर शारदा लता के चरणों में अत्यंत आदरपूर्वक यह शब्द सुमनांजलि अर्पण करती हूँ।