राधा गोयल
नई दिल्ली
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कहना तो बहुत कुछ है अगर कहने पे आऊँ,
पर सोचती हूँ कहने से क्या होगा ?
कभी सोचती हूँ कम से कम मन का आक्रोश कुछ तो कम होगा,
हर समय हमारे जीवन में आरोप- प्रत्यारोप का दौर चलता ही रहा
एक झुकता रहा, दूसरा झुकाता ही रहा,
पर झुकने की भी एक सीमा होती है
तुम केवल आरोप लगाते रहे, मैंने हर आरोप को सिर माथे स्वीकार किया,
कभी-कभी प्रतिरोध भी किया
लेकिन ज्यादातर केवल मौन समर्पण ही किया,
तुम मेरे मौन समर्पण को अपना अधिकार समझते रहे
मेरे तन-मन और जीवन पर हमेशा केवल तुम्हारा अधिकार रहा,
क्या मेरे इस जीवन पर सिर्फ तुम्हारा ही अधिकार है ?
मेरा कुछ भी नहीं ?
जब-जब अपनी इच्छा से जीने की कोशिश की,
आरोपों-प्रत्यारोपों का रेला चल पड़ा।
आखिर मेरे अधिकार कहाँ हैं ?
आरोप लगाने मुझे भी आते हैं
प्रत्यारोप मैं भी कर सकती हूँ,
पर क्या होगा इस आरोप और प्रत्यारोप से ?
जीवन की साँझ आ गई है,
अच्छा यही है कि शांति से जीवन गुजार लें
ज्यादा पूर्णता की उम्मीद से,
अपना और दूसरों का जीवन बर्बाद करके क्या होगा ?
माना कि तुममें बहुत पूर्णता है,
पर सबसे पूर्णता की उम्मीद क्यों रखते हो ?
इसी लिए, हर समय हर किसी पर आरोप-प्रत्यारोप लगाते रहते हो,
कभी सोचा है कि इस व्यवहार से बुढ़ापे में क्या हाल होगा ?
सब छोड़ कर चले जाएंगे, कोई साथ नहीं देगा।
फिर बिस्तर में पड़े-पड़े सोचते रहना,
और अपने व्यवहार पर शर्मिंदा होते रहना॥