हरिहर सिंह चौहान
इन्दौर (मध्यप्रदेश )
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मुफ्तखोरी और राष्ट्र का विकास…..
किसी भी देश के लिए उसकी अर्थव्यवस्था बहुत ही आवश्यक है, पर जब इन पैसों से मुफ्तखोरी की योजना से तड़का लगता है तो मध्यमवर्गीय परिवारों को इसका नुकसान होता है। सरकारी पैसे को देश के विकास में लगाना उचित है, पर फिजूल की योजनाओं से देश का नुक़सान होता है। राजनीति की रोटी सेंकने के लिए लालच का यह परिदृश्य ठीक नहीं है। जनता को भी ऐसी मुफ्तखोरी का पाठ पढ़ा कर आलसी बनने का कुचक्र ठीक नहीं है।
जनता ईमानदारी से काम करना चाहती है, रोजगार चाहती है, पर उसे वह क्यों नहीं मिल पाता है ?
सस्ती लोकप्रियता के लिए राजनीति के इस परिदृश्य में साम, दाम, दंड, भेद सब जायज है। आजादी के इतने वर्षों बाद भी भारतीय राजनीति की रंगत में निखार आने से ज्यादा बंद रंग क्यों होती जा रही है! कई जो इसका फायदा उठाते हैं, उनके वारे-न्यारे हो जाते हैं। जो नहीं उठा पाते हैं, मध्यमवर्गीय परिवार ही का नुक़सान होता है। जो ईमानदारी से आम नागरिक का फ़र्ज़ निभाता है, उसे ही समस्या आती है। राजनीति के लालच का यह क्या खेल हो रहा है कि हर तरफ खैरात बांटने वाले राजनेताओं की भीड़ लगी हुई है। आज पूरे देश में हर राज्य में कहीं लाड़ली लक्ष्मी है, कहीं लाड़ली बहना, मुफ्त इलाज, मुफ्त अनाज और कहीं मुफ्त की रोटी सभी के लिए यह समझ से परे है! मेहनतकश जनता जब अपना हक़ मांगने के लिए पसीना बहा रही है, तो उनके लिए सरकारों के पास कोई योजना नहीं है। वह तो मुफ्त का चंदन घिस रही है। जिस प्रकार से किसी भी सामान्य-सी मिठाई को हर कोई लेना चहता है, पर राजनीति के क्षेत्र में यह बहुत सामान्य बात हो गई है। हर राज्य में पूरे देश में इस के बिना मझधार पार होना वर्तमान समय में बहुत मुश्किल हो गया है। तभी तो हर राजनीतिक दल के मुखिया इस रेवड़ी संस्कृति को बढ़ावा देने में आगे हैं। अगर इसके लिए उन्हें सरकार का खजाना खाली करना पढ़े, तो भी चिंता किसी को नहीं है। वर्तमान समय में हर कोई इस मुफ्त की रेवड़ी की मिठास में घिरे जा रहा है, क्योंकि यह एक उपाय है। इसे जनमत को पाने का सस्ता व सुलभ संसाधन कह सकते हैं। पहले मुफ्त की चीजों को लेने पर हर कोई नहीं आगे आता था। जो योग्य यानी कमजोर गरीब-मजदूर इसके लिए सही हकदार थे, वही इसे लेते थे, पर वर्तमान में कुछ जिम्मेदारों ने इसे रेवड़ी बना दिया है वह भी मुफ्त की। इसे सभी को बांटना भी शुरू कर दिया है। इससे आमजन की मेहनत का पैसा और उसके कर पर चलती देश की अर्थव्यवस्था सभी ध्वस्त हो रही है। मुफ्त की बिजली, पानी और अन्य चीजें दोनों हाथों से बांटती यह सरकारें क्या बताना चाहती हैं ? वह भूल जाती हैं, कि यह जनता है सब जानती है और यह उनका पैसा सभी के लिए है। फिर क्यों मुफ्त की रेवड़ी बांटने में राजनेता अपनी वाह-वाही कर रहे हैं ? ऐसी संस्कृति ठीक नहीं है। कोई भी प्रदेश हो, मुफ्त की हर एक योजना में हर कोई कतार में लगा हुआ है, ऐसा क्यों ? गलत व सही का मूल्यांकन कौन करेगा! रेवड़ी संस्कृति के इस बढ़ते परिदृश्य में राजनेता फायदा क्यों उठा रहे हैं ?
सामाजिक समरसता में जनमानस को कर्मवीर बनना चाहिए, न कि मुफ्तखोर। राष्ट्र की प्रगति में सभी मिल-जुल कर सहायक होते हैं, तभी देश आगे बढ़ता है, पर सत्ता पाने के लिए लालच के इस पिटारे में मुफ्तखोरी के दाग अच्छे नहीं हैं। लोक-लुभावन घोषणा व वादों के चलते राजनीति में कुर्सी पाने वाले अपनी झूठी शान-शौकत के लिए देश के धन की बर्बादी कर रहे हैं, जो दिवाला ना निकाल दे।
भारत जैसे विकासशील व संविधान को मानने वाले लोकतांत्रिक देश में सही में यह मुफ्तखोरी घातक ही है। इसके व्यूह से बहार निकलने के लिए मंथन जरूरी है। यही पैसा रोजगार व देश के विकास के कार्य में लगेगा तो भारत का भविष्य सुनहरा होगा और हम विश्व पटल पर शीर्ष पर होंगे।