हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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हिमाचल की हसीन वादियों की एक चोटी पर नंदू का भी अपना एक छोटा-सा घर परिवार है। वह अपने परिवार के भरण पोषण के लिए दिन-रात कड़ी मेहनत करता है। न सुबह की परवाह, न सांझ की खबर, बस लगा रहता है। उसकी १ बेटी है और १ बेटा। बेटी का नाम है ‘सरोज’ और बेटे का ‘जोगिंदर’ है।
पत्नी बड़ी सुंदर थी। इसी सौंदर्य की ताकत से वह किसी शहरी मर्द को भा गई और नंदू की गरीबी से तंग आकर वह जीवन की हसरतें पूरा करने के लिए उस शहरी बाबू के साथ भाग गई थी। २ छोटे-छोटे बच्चे नंदू को पालने-पोसने को छोड़ गई। पहाड़ों में पहले यह अमूमन होता ही रहता था।
नंदू ने दूसरी शादी भी की थी, ताकि उसकी जवानी भी कट जाए और उन छोटे-छोटे बच्चों का लालन-पालन भी विधिवत हो जाए तथा माँ की कमी उन्हें न खले। दुर्भाग्य देखिए, कि दूसरी पत्नी भी पत्तियाँ काटते हुए एक बान के पेड़ से पाँव फिसलने के कारण गहरे नाले में जा गिरी और बेचारी भगवान को प्यारी हुई। इस बीच वह गर्भ से थी। सालभर का वह साथ, नंदू के जीवन में खुशियाँ लाया जरूर था, पर कुदरत को वह भी गवारा न गुजरा।
अब पहले वाली के दोनों बच्चों के साथ जीने का इरादा बना लिया, शादियाँ भी कितनी करता बेचारा ? नंदू के माँ-बाप उसके इन बच्चों का लालन-पालन करने में ता-उम्र उसकी मदद करते आए थे। पिछले ही साल वे भी दोनों बुढ़ापे के चलते लगभग ५-६ महीने के अंतराल में खुदा को प्यारे हो गए थे।
बेटी बड़ी है, जवान हो गई है। पवन से उसकी शादी तय हो चुकी है। बस पैसों की तंगी के चलते नंदू शादी आगे टाल देता है, पर इस बार खेतों में नंदू ने एड़ी-चोटी का जोर लगाकर जान फूंक दी है। आलू भी अच्छे हैं और मटर तो और भी अच्छे हैं। सब गाँव वाले कहते-“नंदू इस बार तो तू हाथ रंग लेगा।”
“हाँ! सो तो है भाई। शायद कुदरत ने मेरी इस बार सुन ली। अबकी मैं बेटी के हाथ पीले कर ही दूंगा।” नंदू यह सबसे कहता फिरता।
एक रोज सरोज हाँफते हुए खेतों की रखवाली करते हुए नंदू के पास दौड़ कर आई और रोते हुए बोली-“बाबा! बाबा! जोगिंदर… जोगिंदर….!”
“क्या हुआ जोगिंदर को ? तू कुछ बोलती क्यों नहीं ?” नंदू ने चौंकते हुऐ पूछा।
“बाबा वह कमलू के साथ मोटर साइकिल पर स्कूल से घर आ रहा था। उन दोनों का एक्सिडेंट हो गया है। उसे सिर पर गहरी चोट लगी है। उसे लोग शहर के अस्पताल ले गए हैं। यहाँ के डॉक्टर ने कहा तुरंत ले जाओ।” यह कहते-कहते सरोज फूट-फूट कर रोने लगी।
नंदू पैसों का प्रबंध करके शहर चला जाता है। सरोज खेत- खलियान की रखवाली कर रही थी। इस बीच एक दिन उसे तेज बुखार आया। मौसम खराब था, वह बिस्तर से उठ ही नहीं पा रही थी। उधर, बाहर तेज ओला वृष्टि हो रही थी। मटर की फसल, जो लगभग तैयार थी, वह तो ओला वृष्टि ने लील ली थी और रही-सही कसर जंगली जानवरों ने रखवाला न होने के चलते पूरी की। बचे आलुओं की फसल की कमाई जोगिंदर के इलाज में लग गई। मजबूर नंदू को सरोज की शादी फिर से टाल देनी पड़ी।
उस दिन जोगिंदर, सरोज की गोद में सिर रख कर रो रहा था और कह रहा था “दीदी, तुम जीजा जी से कहो न कि वह तुम्हें भगा कर ले जाए। बाबा के पास पैसे नहीं है। और तुम कब तक इंतजार करोगी ?”
दोनों भाई-बहन एक-दूसरे का हाथ सहलाते हुए रो रहे थे। यह सब नंदू ने पिछवाड़े से चुपके से सुन लिया था। वह भी चुपके- चुपके खूब रोया, पर किस्मत के आगे विवश था।
दूसरे ही दिन वह अपने होने वाले दामाद को बुलाता है और कुछ दिन बाद एक मंदिर में बेटी का छोटा-सा विवाह करके उसे अपने घर भेज देता है। उसकी यह हसरत भी अधूरी ही रह जाती है, कि मैं अपनी बेटी की शादी धूमधाम से करूंगा, ताकि उसे माँ की कमी न खले।