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सभ्यता और संस्कृति के पुरोधा ‘ऋषभ देव’

ललित गर्ग

दिल्ली
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जन्म जयन्ती (२२ मार्च) विशेष…

जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ यानी भगवान ऋषभदेव विश्व संस्कृति के आदि पुरुष, आदि संस्कृति निर्माता थे। वे प्रथम सम्राट और प्रथम धर्मतीर्थ के आद्य प्रणेता थे। जैन, बौद्ध और वैदिक परम्परा में ही नहीं, विश्व की अन्य संस्कृतियों में भी उनकी यशोगाथा गाई गई है। भगवान ऋषभदेव ने भारतीय संस्कृति में असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प रूपी जीवनशैली दी, आज हमारा जीवन उसी पर आधारित है। इन ६ कर्मों द्वारा उन्होंने जहां समाज को विकास का मार्ग सुझाया, वहीं अहिंसा, संयम और तप के उपदेश द्वारा समाज की आंतरिक चेतना को जगाया। उनकी जन्म जयन्ती प्रयोजनात्मक उपक्रम है, जिसमें हम भारतीय संस्कृति को दिए योगदान को स्मरण करते हुए जीवन को आदर्श बना सकते हैं।
भगवान ऋषभदेव वर्तमान अवसर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर (जो तीर्थ की रचना करें) हैं। ऋषभदेव को ‘आदिनाथ’ भी कहा जाता है। वे भगवान विष्णु के अवतार थे। जन-जन की आस्था के केन्द्र तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव का जन्म चैत्र कृष्ण नवमी को अयोध्या में हुआ। उन्होंने मनुष्य जाति को नया जीवन दर्शन दिया। जीने की शैली सिखलाई। वे जानते थे, कि नहीं जानना बुरा नहीं, मगर गलत जानना व गलत आचरण करना बुरा है। इसलिए उन्होंने सही और गलत को देखने, समझने, परखने की विवेकी आँख दी, जिसे सम्यक् दृष्टि कहा जा सकता है।
युवराज ऋषभ ने संसारी रहते हुए प्रजाजनों को शस्त्र, लेखनी, विद्या, व्यापार, खेती एवं शिल्प इन ६ कार्यों को करना सिखलाया। उन्होंने जनता को इनके द्वारा आजीविका पैदा करने के उपदेश दिए। इसीलिए वे युगकर्ता, सृष्टि के पालनहार और सृष्टि के ब्रह्मा कहलाए। ऋषभदेव ने प्रजा का पालन किया, इसलिए उन्हें ‘प्रजापति’ भी कहा गया।
महाराज नाभि के यहाँ ऋषभ रूपी दिव्य बालक का जन्म हुआ। उसके चरणों में वज्र, अंकुश आदि के चिन्ह जन्म के समय ही दिखाई दिए। बालक के जन्म के साथ राज्य में सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सुख-शांति एवं वैभवता परिव्याप्त हो गई।
ऋषभ जब शासक बने, तब उनकी शासन-व्यवस्था अनूठी थी, क्योंकि उनके लिए सत्ता से ऊँचा समाज एवं मानवता का हित सर्वाेपरि था। उन्होंने कानून कायदे बनाए, सुरक्षा की व्यवस्था की, संविधान निर्मित किए और नियमों का अतिक्रमण करने वालों के लिए दण्ड संहिता भी तैयार की। सचमुच वह भी कैसा युग था। न लोग बुरे थे, न विचार बुरे थे और न कर्म बुरे थे। राजा और प्रजा के बीच विश्वास जुड़ा था। बाद में जब कभी बदलते परिवेश, पर्यावरण, परिस्थिति और वैयक्तिक विकास के कारण व्यवस्था में रुकावट आई, कहीं कुछ गलत हुआ, मनुष्य का मन बदला तो उस गलत कर्म के लिए इतना कह देना ही बड़ा दण्ड माना जाता कि ‘हाय! तूने यह क्या किया ?’ ‘ऐसा आगे मत करना’, ‘धिक्कार है तूने ऐसा किया।’ ये हाकार, माकार और धिक्कार नीतियाँ अपराधों का नियमन करती रहीं। आज की तरह उस समय ऐसा नहीं था, कि अपराधों के सच्चे गवाह और सच्चे सबूत मिल जाने के बाद भी अदालत उसे कटघरे में खड़ा कर अपराधी सिद्ध न कर सके। निर्दाेष व्यक्ति न्याय पाने के लिए दर-दर भटके और अपराधी धड़ल्ले से शान-शौकत के साथ ऐशो-आराम करे।
सत्ता के नाम पर युद्ध तो सदियों में होते रहे हैं, मगर ऋषभ के राज-वैभव छोड़कर संन्यस्त बन जाने के बाद सिंहासन के लिए भाई-भाई भरत बाहुबली में जो संघर्ष हुआ, वह ऐतिहासिक प्रसंग भी आज के संदर्भ में एक सीख है। आज भी सत्ता और स्वार्थ का संघर्ष चलता है। सब लड़ते हैं, पर देश के हित में कम, अपने हित में ज्यादा, लेकिन न तो आज ऋषभ के ९८ पुत्रों की तरह समस्या के समाधान पाने की जिज्ञासा है, न ही कोई ऐसा ऋषभ है जो अंतहीन समस्याओं के बीच सबको सामयिक संबोध दे। राज्य प्राप्ति के प्रश्न पर जब भरत बाहुबली के बीच अहं और आकांक्षा आ खड़ी हुई तो ऋषभ ने शस्त्र युद्ध को नकारा और आत्मयुद्ध की प्रेरणा दी, क्योंकि स्वयं को जीत लेना ही जीवन की सच्ची जीत है।

भगवान ऋषभदेव को सभ्यता और संस्कृति की विकास यात्रा का प्रणेता माना जाता है, उनका अवतरण आदिम युग का परिष्कारक बना। वे पुरुषार्थ चतुष्टयी के पुरोधा थे। अर्थ और काम संसार की अनिवार्यता है तो धर्म और मोक्ष जीवन के चरम लक्ष्य तक पहुँचाने वाले सही रास्ते। समाज व्यवस्था उनके लिए कर्तव्य थी, इसलिए कर्तव्य से कभी पलायन नहीं किया तो धर्म उनकी आत्मनिष्ठा बना, इसलिए उसे कभी नकारा नहीं। वे प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों की संयोजना में सचेतन बने रहे। ऋषभ की दण्डनीति और न्यायनीति आज प्रेरणा है उस संवेदनशून्य व्यक्ति के लिए, जो अपराधीकरण एवं हिंसक प्रवृत्तियों की चरम सीमा पर खड़ा है। व्यक्तित्व बदलाव का प्रशिक्षण ऋषभ की बुनियादी शिक्षा थी। ऋषभ ने राजनीति का सुरक्षा कवच धर्मनीति को माना। राजनेता के पास शस्त्र है, शक्ति है, सत्ता है, सेना है फिर भी नैतिक बल के अभाव में जीवन मूल्यों के योगक्षेम में वे असफल होते हैं, जबकि उन सबके अभाव में संत चेतना के पास अच्छाइयाँ और आदर्श चले आते हैं, क्योंकि उसके पास धर्म की ताकत, चरित्र की तेजस्विता है।