डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ सम्मान मिलने पर…
भीड़ है घर पर-
शुभेच्छुओं की, पत्रकारों की,
सजदे में झुके माइक पूछ रहे हैं-
“आपको कैसा लगा ?”
प्रश्न वाक्य नहीं,
मानो जीवन के यज्ञकुंड में
शेष रहे अक्षरों की आहुति की माँग हो।
क्या कहूँ ?
जब संपूर्ण जीवन को
लेखन-यज्ञ में जला दिया हो-
भावों की समिधा,
अनुभव की घृतधारा
और स्वप्नों की अग्निशिखा में,
स्वयं को आहुत कर दिया हो…
तब अंतिम क्षण में
मस्तक पर रखा गया सम्मान का तिलक,
कैसे परिभाषित करूँ ?
यह सम्मान-
मेरे लेखन की परिपक्वता का घोष नहीं,
बल्कि उस मौन पंक्ति पर रखा गया
एक दिव्य हस्ताक्षर है
जहाँ मेरी कलम,
शब्दों के पार जाकर ठिठक गई थी।
यह उस अधूरी पांडुलिपि पर,
किसी अदृश्य साक्षी की स्वीकृति है
जो जानता है,
कि जो नहीं लिखा गया…
वही शायद सबसे ज़्यादा अर्थवान था।
यह सम्मान,
मेरे अंतिम अविराम चिन्ह पर
टिकी हुई एक गूढ़ दृष्टि है-
जहाँ,
मैं शिथिल था,
पर शून्य नहीं…
उस ठहराव में भी,
अनकही व्याख्याएँ उमड़ रही थीं।
बहुत कुछ देखा,
बहुत कुछ जिया…
पर बहुत कम लिख पाया।
शब्दों की मृदुता कठोर हो गई,
कागज़ कोमल तो रहा
पर मेरे विचार,
अब व्यक्त और अव्यक्त
की महीन रेखा पर चकित हैं।
जब भीतर की ज्वाला,
सांध्य-दीप की लौ में सिमट जाए
तो ‘क्या अच्छा लगा’,
‘कितना लगा’,
ये प्रश्न बेमानी लगते हैं।
प्रतिक्रिया ?
प्रतिक्रिया नहीं,
यह तो अंतःकरण की क्षीण-सी अभिव्यक्ति-
कि यदि यह सम्मान,
उस क्षण मिलता
जब मेरी लेखनी,
स्वर और प्रहार के उच्चतम आरोह पर थी,
तो शायद मैं…
कुछ और लिख सकता,
कुछ और कह सकता
इस युग को कुछ और दे सकता।
अब…
केवल एक अव्यक्त-सा मौन है,
जिसमें न वह पीड़ा है कि
कुछ छूट गया,
न वह गर्व कि
कुछ पा लिया।
बस एक श्लथ-सी अनुभूति-
कि कोई श्रम अप्रतिफल नहीं जाता,
भले ही वह
अपने युग में न पहचाना जाए।
यही मेरी प्रतिक्रिया है-
मौन, शांत, निश्चल
और पूर्ण॥