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उपजाऊ भूमि को मरुस्थल होने से बचाना होगा

ललित गर्ग

दिल्ली
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विश्व मरुस्थलीकरण एवं सूखा निवारण दिवस (१७ जून) विशेष…

मानव एवं जीव-जंतुओं का जीवन भूमि पर निर्भर है, फिर भी पूरी दुनिया में प्रदूषण, भूमि का दोहन, जलवायु अराजकता और जैव विविधता विनाश का एक जहरीला मिश्रण स्वस्थ भूमि को रेगिस्तान में और सम्पन्न पारिस्थितिकी तंत्र मृत क्षेत्रों में बदल रहा है। ‘हमारी भूमि’ नारे के तहत भूमि बहाली, मरुस्थलीकरण और सूखा निवारण आज की जलवायु समस्याओं का सटीक समाधान हो सकता है। इसी को ध्यान में रखते हुए ‘विश्व मरुस्थलीकरण एवं सूखा निवारण दिवस’ मनाया जाता है। यह दिन जागरूकता बढ़ाने और लोगों को एकजुट करने के लिए है।
स्वस्थ भूमि सम्पन्न अर्थव्यवस्थाओं का आधार है, वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का आधे से अधिक हिस्सा प्रकृति पर निर्भर है। फिर भी हम इस प्राकृतिक पूंजी को खतरनाक दर से नष्ट कर रहे हैं-हर मिनट, भूमि क्षरण के कारण ४ फुटबॉल मैदानों के बराबर भूमि नष्ट हो जाती है। इससे जैव विविधता का नुकसान होता है, सूखे का खतरा बढ़ता है और समुदाय विस्थापित होते हैं। इसके प्रभाव वैश्विक हैं-खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों से अस्थिरता और पलायन तक। मरुस्थलीकरण, भूमि क्षरण और सूखा हमारे समय की सबसे गंभीर पर्यावरणीय चुनौतियों में से हैं तथा विश्वभर में ४० प्रतिशत भूमि क्षेत्र पहले से ही क्षरित माना जाता है। हमें भूमि क्षरण की लहर को बड़े पैमाने पर बहाली में बदलने के प्रयासों में तेजी लानी चाहिए। यदि मौजूदा रुझान जारी रहे, तो हमें २०३० तक १.५ बिलियन हेक्टेयर भूमि को बहाल करना होगा और १ ट्रिलियन डॉलर की भूमि बहाली अर्थव्यवस्था को गति देनी होगी।

यह दिन हमें अंतरराष्ट्रीय सहयोग से उपजाऊ भूमि को मरुस्थल होने से बचाता, बंजर और सूखे के प्रभाव का मुकाबला करने में सक्षम बनाता है। बढ़ते मरुस्थल के प्रति सचेत होना इसलिए जरूरी है कि दुनिया हर साल २४ अरब टन उपजाऊ भूमि खो देती है। बचाव के लिए जल संसाधनों का संरक्षण तथा समुचित मात्रा में विवेकपूर्ण उपयोग काफी कारगर भूमिका अदा कर सकती है।
मरुस्थलीकरण एक तरह से भूमि क्षरण का वह प्रकार है, जब शुष्क भूमि क्षेत्र निरंतर बंजर होता है और नम भूमि भी कम हो जाती है। वन्य जीव व वनस्पति भी खत्म होती जाती है। इसकी कई वजह होती हैं, इसमें जलवायु परिवर्तन और इंसानी गतिविधियाँ प्रमुख हैं। इसे रेगिस्तान भी कहा जाता है। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक २०२५ तक दुनिया के दो-तिहाई लोग जल संकट की परिस्थितियों में रहने को मजबूर होंगे। उन्हें कुछ ऐसे दिनों का भी सामना करना पड़ेगा, जब जल की मांग और आपूर्ति में भारी अंतर होगा। ऐसे में विस्थापन बढ़ने की संभावना है और २०४५ तक करीब १३ करोड़ से ज्यादा लोगों को अपना घर छोड़ना पड़ सकता है। विश्व में जमीन का मरुस्थल में परिवर्तन होना गंभीर समस्या एवं चिन्ता का विषय है। भारत में भी यह चिंता लगातार बढ़ रही है। इसकी वजह यह है कि भारत की करीब ३० फीसदी जमीन मरुस्थल में बदल चुकी है। इसमें से ८२ प्रतिशत हिस्सा केवल ८ राज्यों (राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, जम्मू-कश्मीर, कर्नाटक, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश और तेलंगाना) में है।
भारत में लगातार बढ़ रहे रेगिस्तान की गंभीर चिन्ताजनक स्थिति पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीसरी पारी में अब प्रकृति-पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण-मुक्ति के साथ बढ़तेे रेगिस्तान को रोकने के लिए उल्लेखनीय कदम उठाए हैं। उम्मीद करें कि आजादी के अमृतकाल में सरकार की नीतियों में जल, जंगल, जमीन एवं जीवन की उन्नत संभावनाएं और भी प्रखर रूप में झलकेंगी और धरती के मरुस्थलीकरण के विस्तार होते जाने की स्थितियों पर काबू पाने में सफलता मिलेगी।
सरकार के इन्हीं प्रयासों के तहत अहमदाबाद स्थित स्पेस एप्लीकेशंस सेंटर ने १९ अन्य राष्ट्रीय एजेंसियों के साथ मिलकर मरुस्थलीकरण और भूमि की गुणवत्ता के गिरते स्तर पर देश का पहला एटलस बनाया है तथा दूरसंवेदी उपग्रहों के जरिए जमीन की निगरानी की जा रही है। मरुभूमि की लवणता व क्षारीयता को कम करने में वैज्ञानिक उपाय को महत्व दिया जाना चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वतः उत्पन्न होने वाली अनियोजित वनस्पति के कटाई को नियंत्रित करने के साथ ही पशु चरागाहों पर उचित मानवीय नियंत्रण स्थापित करना चाहिए।

अगर प्रकृति के साथ इस प्रकार से खिलवाड़ होता रहा तो शुद्ध पानी, शुद्ध हवा, उपजाऊ भूमि, शुद्ध वातावरण एवं शुद्ध वनस्पतियाँ नहीं मिल सकेंगी। आज आवश्यकता है कि प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की ओर विशेष ध्यान दिया जाए। संघ व भारत सरकार के प्रयास सराहनीय हैं, लेकिन फिर भी उपलब्धियाँ नाकाफी रही हैं।