संजीव एस. आहिरे
नाशिक (महाराष्ट्र)
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कहाँ गया रिश्तों से प्रेम…?…
अभी कुछ दिन पहले मप्र की एक शादीशुदा महिला ने प्रेमी के साथ मिलकर पति की हत्या कर दी, जो उससे बेहद प्यार करता था। अन्य प्रदेशों भी ऐसी चौंकाने वाली खबरें आए-दिन आती रहती हैं। भाई-भाई की आपसी दुश्मनी, औरतों के एक-दूसरी के खिलाफ जानलेवा षड्यंत्र, मित्र के साथ विश्वासघात, देखते ही देखते जान लेने पर उतारू हो रहे मानवीय व्यवहार की ऐसी अनेक खबरों से अखबार पटे रहते हैं। टी.वी. पर तो अभद्र मानवीय व्यवहार और उसके भयावह परिणामों की खबरें सुनकर मन सुन्न हो जाता है। हाल ही में एक प्रतिष्ठित विद्यालय की एक शिक्षिका के अपने ही ११ विद्यार्थियों से शारीरिक संबंध बनाने की खबर सुर्खियों में है। यह सब-कुछ अविश्वसनीय-सा है, लेकिन प्रत्यक्ष में घटित हो रहा है। आखिर क्या हो गया है आदमी को, जो कुछ भी करने पर तुला हुआ है। ये कैसा दौर आया है, जिसमें आदमी न्याय, नीति, रीति, संस्कृति, पद्धति, आदर्श और मानवीय व्यवहार भुलाकर हैवान बनता जा रहा है! रिश्तों की गरिमा, वो रिश्तों का प्यार आखिर कहाँ गया ? मन में बार-बार ये प्रश्न कौन्धने लगता है।
कुछ २० साल पहले तक स्थिति ठीक-सी थी, पर इन २ दशकों में आर्थिक, मानसिक, सामाजिक परिवर्तन की जो बाढ़ आई है, उसने अगर सबसे कीमती कुछ छीना है, तो आदमी के प्यार को छीना है। वैज्ञानिक क्रांति के चलते संसाधनों की बाढ़ ने आदमी को समाज से हटाकर स्वकेंद्री बना दिया है, जिसका असर बच्चे से बूढ़े तक होकर केवल क्षुद्र स्वार्थ की खातिर आदमी कुछ भी करने पर उतारू हो चला है। सुख पाने की संकल्पना बदलने के साथ केवल ‘मैं और मेरा’ तक हर आदमी सिमट-सा गया है। ‘मैं’ आदमी पर इतना हावी हो गया है कि उसके सामने रिश्तों की गरिमा, स्नेह के धागे, मानवीय विचार और सौहार्द ‘कपूर’ की भांति सम्पलवनशील हो गए हैं।
अंतरजाल, मोबाईल और दूरदर्शन जैसे साधनों की जानलेवा लहर ने सम्बंधों के ताने-बाने को इस कदर उधेड़ दिया है कि आदमी के अंदर का पशु वर्तमान दौर में कुछ भी करने पर राजी है। तेजी से छाए समाज माध्यमों ने युवाओं, औरतों और समाज के सभी घटकों में ऐसा विष पनपाया है, जिसमें नैतिकता जलकर राख हो गई है। वासना इस कदर हावी है कि आदमी आदमी न रहकर पशु से ज्यादा वीभत्स कृत्य कर रहा है। ऐसे-ऐसे मामले उभर रहे हैं, जिसने न्याय व्यवस्था को भौंचक्का करके रख दिया है। अब बच्चे शिक्षक के डाँटने पर घबराते नहीं हैं, सीधे पिस्तौल उठा लेते हैं या आत्महत्या कर लेते हैं। माँ-बाप के किसी चीज देने पर मना करने से वे या तो उनको मौत की नींद सुलाने की सोंचते हैं या खुद मौत की भेंट चढ़ जाते हैं। सास और बहू में इन दिनों क्या रिश्ते रह गए, छिपा नहीं है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने सब-कुछ बदलकर रख दिया है।
अब सोचना यह है कि जो साधन आदमी को सुखी बनाने के लिए निर्मित हुए थे, उन्हीं ने आदमियत को स्वाहा: कर दिया है। सौहार्द की महीन रेशमी डोर एवं सम्बन्धों की बुनावट के मलमली धागों को इन संसाधनों ने तहस-नहस करके रख दिया है। ऐसे में अगर स्थिति को संभालना है तो निश्चित है कि इन संसाधनों के उपयोग पर विचार करना होगा। सरकार और समाज को मिलकर कुछ ऐसे ठोस निर्णय लेने होंगे, जिससे स्थिति संभल सकती है। अन्यथा यह आँधी किस ठोर पर जाकर रुकेगी, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है। इस कड़ी में दसवीं कक्षा तक के बच्चों के मोबाईल उपयोग पर रोक लगा देना कारगर साबित हो सकता है, क्योंकि एल.के.जी. से दसवीं तक यह ऐसी उमर होती है, जिसमें पूरे जीवन की नींव खड़ी होती है। इस पडाव पर जो संस्कार व आदतें डाली जाती है, उसी पर जीवन की मंजिल खड़ी होती है। दूसरा माँ द्वारा अपने शिशुओं को मोबाईल पकडाना बेहद खतरनाक काम है, जिसे स्वयं के स्तर पर सुधारा जाना चाहिए। बाकी तो सब समझदार लोग हैं, उन्हें अपने पर काबू रखना चाहिए।
रिश्तों का छिना हुआ प्रेम अगर लौटाना है, तो भारतीय दर्शन, संस्कृति, धर्म-कर्म एवं आचार की पनाह लेकर संयत और मर्यादाशील जीवन की राहें अनुसरणीय होंगी, वरना उस युवा ऋषि का किस्सा कहीं हमारे साथ दोहराया न जाए, जिसने संजीवनी विद्या प्राप्त करके जंगल से लौटते समय रास्ते में पड़ी हड्डियाँ एकत्रित कर अपना सिद्ध मंत्र आजमाना चाहा। दुर्भाग्य से वो बाघ की हड्डियाँ थी। मंत्र का संस्कार होते ही उनसे एक बाघ निकला और उस ऋषि को चट कर गया।
परिचय-संजीव शंकरराव आहिरे का जन्म १५ फरवरी (१९६७) को मांजरे तहसील (मालेगांव, जिला-नाशिक) में हुआ है। महाराष्ट्र राज्य के नाशिक के गोपाल नगर में आपका वर्तमान और स्थाई बसेरा है। हिंदी, मराठी, अंग्रेजी व अहिराणी भाषा जानते हुए एम.एस-सी. (रसायनशास्त्र) एवं एम.बी.ए. (मानव संसाधन) तक शिक्षित हैं। कार्यक्षेत्र में जनसंपर्क अधिकारी (नाशिक) होकर सामाजिक गतिविधि में सिद्धी विनायक मानव कल्याण मिशन में मार्गदर्शक, संस्कार भारती में सदस्य, कुटुंब प्रबोधन गतिविधि में सक्रिय भूमिका निभाने के साथ विविध विषयों पर सामाजिक व्याख्यान भी देते हैं। इनकी लेखन विधा-हिंदी और मराठी में कविता, गीत व लेख है। विभिन्न रचनाओं का समाचार पत्रों में प्रकाशन होने के साथ ही ‘वनिताओं की फरियादें’ (हिंदी पर्यावरण काव्य संग्रह), ‘सांजवात’ (मराठी काव्य संग्रह), पंचवटी के राम’ (गद्य-पद्य पुस्तक), ‘हृदयांजली ही गोदेसाठी’ (काव्य संग्रह) तथा ‘पल्लवित हुए अरमान’ (काव्य संग्रह) भी आपके नाम हैं। संजीव आहिरे को प्राप्त सम्मान-पुरस्कार में अभा निबंध स्पर्धा में प्रथम और द्वितीय पुरस्कार, ‘सांजवात’ हेतु राज्य स्तरीय पुरुषोत्तम पुरस्कार, राष्ट्रीय मेदिनी पुरस्कार (पर्यावरण मंत्रालय, भारत सरकार), राष्ट्रीय छत्रपति संभाजी साहित्य गौरव पुरस्कार (मराठी साहित्य परिषद), राष्ट्रीय शब्द सम्मान पुरस्कार (केंद्रीय सचिवालय हिंदी साहित्य परिषद), केमिकल रत्न पुरस्कार (औद्योगिक क्षेत्र) व श्रेष्ठ रचनाकार पुरस्कार (राजश्री साहित्य अकादमी) मिले हैं। आपकी विशेष उपलब्धि राष्ट्रीय मेदिनी पुरस्कार, केंद्र सरकार द्वारा विशेष सम्मान, ‘राम दर्शन’ (हिंदी महाकाव्य प्रस्तुति) के लिए महाराष्ट्र सरकार (पर्यटन मंत्रालय) द्वारा विशेष सम्मान तथा रेडियो (तरंग सांगली) पर ‘रामदर्शन’ प्रसारित होना है। प्रकृति के प्रति समाज व नयी पीढ़ी का आत्मीय भाव जगाना, पर्यावरण के प्रति जागरूक करना, हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु लेखन-व्याख्यानों से जागृति लाना, भारतीय नदियों से जनमानस का भाव पुनर्स्थापित करना, राष्ट्रीयता की मुख्य धारा बनाना और ‘रामदर्शन’ से परिवार एवं समाज को रिश्तों के प्रति जागरूक बनाना इनकी लेखनी का उद्देश्य है। पसंदीदा हिंदी लेखक प्रेमचंद जी, धर्मवीर भारती हैं तो प्रेरणापुंज स्वप्रेरणा है। श्री आहिरे का जीवन लक्ष्य हिंदी साहित्यकार के रूप में स्थापित होना, ‘रामदर्शन’ का जीवनपर्यंत लेखन तथा शिवाजी महाराज पर हिंदी महाकाव्य का निर्माण करना है।