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निरंकुश अभिव्यक्ति से जुड़े सर्वोच्च फैसलों का स्वागत हो

ललित गर्ग

दिल्ली
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सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति की आजादी एवं सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर समाज विरोधी अभिव्यक्ति की सुनवाई करते हुए समय-समय पर जो कहा, वह जहां संवैधानिक और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिहाज से खासा अहम है, वहीं संतुलित- आदर्श राष्ट्र एवं समाज व्यवस्था का आधार भी है। सोशल मीडिया मंचों पर समाज विरोधी अभिव्यक्ति के चलते उपजी विभाजनकारी एवं विध्वंसकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश की जरूरत बताते हुए देश की शीर्ष अदालत ने आत्म-नियमन, वाणी संयम एवं विचार संयम की जरूरत बताई है। धर्म विशेष के देवताओं के खिलाफ आपत्तिजनक पोस्ट के चलते दायर याचिका पर पीठ ने विचार करते हुए कहा कि समाज में विद्वेष, घृणा व नफरत फैलाने वाले संदेश समरसता, सौहार्द एवं सद्भावना के भारतीय परिवेश के लिए गंभीर चुनौती बने हुए हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ी इन जटिल होती स्थितियों को गंभीरता से लिया और अनेक धुंधलकों को साफ किया है। अदालत का कहना था कि नागरिकों को अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का मूल्य समझना चाहिए, साथ ही इस अधिकार का इस्तेमाल करते हुए आत्म-संयम बरतना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति की आजादी व धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने से जुड़े अनेक मामलों के साथ-साथ ताजा मामले में जो फैसले किए हैं और जो टिप्पणियाँ की हैं, उसके निहितार्थों को समझते हुए इन फैसलों रूपी उजालों का स्वागत होना ही चाहिए।
आज सोशल मीडिया जैसे मंचों के बेजा इस्तेमाल की प्रवृति बढ़ रही है। सोशल मंचों एवं टी.वी. चैनलों पर ऐसी सामग्री प्रस्तुत की जा रही है, जो अशिष्ट, राष्ट्र-विरोधी एवं समुदाय विशेष के लोगों को आहत करने वाली होती है, जिसका उद्देश्य राष्ट्र को जोड़ना नहीं, तोड़ना है। इन सोशल मंचों पर ऐसे लोग सक्रिय हैं, जो तोड़-फोड़ की नीति में विश्वास करते हैं तथा उच्छृंखल एवं विध्वंसात्मक नीति अपनाते हुए अराजक माहौल बनाते हैं। एक प्रगतिशील, सभ्य एवं शालीन समाज में इस तरह की हिंसा, अश्लीलता व नफरत की कोई जगह नहीं होनी चाहिए, लेकिन विडम्बना है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कानून के चलते सरकार इन अराजक स्थितियों पर काबू नहीं कर पा रही है।
सर्वोच्च न्यायालय ने चेताया है कि यदि सोशल मीडिया पर विभाजनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश नहीं लगता है तो सरकार को हस्तक्षेप करने का मौका मिलता है, जो अच्छी स्थिति नहीं होगी। आज सोशल मीडिया, समाचार चैनलों और राजनीतिक मंचों पर जिस प्रकार की उग्र भाषा, झूठे आरोप, धार्मिक विद्वेष और भावनात्मक उकसावे देखे जा रहे हैं, वे न केवल समाज को विभाजित कर रहे हैं, बल्कि लोकतांत्रिक संवाद की गरिमा को भी ठेस पहुँचा रहे हैं। यही वजह है कि न्यायालय को कहना पड़ा कि वह नियमन के लिए दिशा-निर्देश जारी करने पर विचार कर रही है। अदालत का मानना था कि भारत के संविधान नागरिकों को ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ देता है, इसके तहत प्रत्येक नागरिक को विचार, वाणी, लेखन, चित्रण आदि के माध्यम से स्वतंत्र रूप से अपनी बात कहने का अधिकार है, लेकिन आज इस अधिकार के दुरूपयोग की घटनाएं जिस प्रकार सामने आ रही हैं, वह चिंता का विषय बन चुकी हैं। इसलिए आज जरूरत है विचार संयम और वाणी संयम की। इसीलिये अनुच्छेद १९(२) इसके कुछ ‘उचित प्रतिबंध’ भी निर्धारित करता है, जैसे-भारत की संप्रभुता और अखंडता, देश की सुरक्षा, राज्य की अखंडता, लोक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता, अश्लील या अनैतिक भाषण, अदालत की अवमानना, मानहानि, अपराध के लिए उकसावा एवं अन्य देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों से जुड़ी अराजकता पर प्रतिबंध। इन प्रतिबंधों का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि स्वतंत्रता का उपयोग अनुशासन और राष्ट्रीय हितों की मर्यादा में हो।
ताजा मामलों में कई राज्यों में स्वतंत्र अभिव्यक्ति के नियमन को लेकर सरकारी कार्रवाई को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं। कई जगह विचारों की अभिव्यक्ति व कार्टून आदि बनाने को राजनीतिक दुराग्रह बताते हुए लोगों को गिरफ्तार तक किया गया है, जिसे राजनीतिक दलों द्वारा बदले की भावना से की कार्रवाई बताया जाता रहा है। आरोप लगाया जाता रहा है कि सत्तारूढ़ दल की विचारधारा के अनुरूप अमर्यादित अभिव्यक्ति के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की जाती, लेकिन दूसरे राज्य में अन्य दल की सरकार में यही अभिव्यक्ति अपराध बन जाती है। कोई नहीं चाहता कि आम नागरिक की अभिव्यक्ति की आजादी को सरकार नियंत्रित करे। सही मायनों में लोगों को समझना चाहिए, कि देश की एकता व अखंडता बनाए रखना मौलिक कर्तव्य ही है। अदालत ने इस बाबत सवाल भी किया कि नागरिक स्वयं को संयमित क्यों नहीं कर सकते ? राजनीतिक दल, धार्मिक नेता या उग्रवादी कार्यकर्ता क्यों समाज में विषवमन करते हुए विवादास्पद एवं वर्ग-धर्म विशेष के लोगों की भावनाओं को आहत करने वाले कटु एवं कड़वे बयान देते हैं ? कोर्ट का मानना था कि लोग तभी अभिव्यक्ति की आजादी का आनन्द ले सकते हैं, जब यह संयमित ढंग से व्यक्त की जाए। पीठ का मानना था कि नागरिकों के बीच भाईचारा होना चाहिए, तभी समाज में नफरत से मुकाबला किया जा सकता है। तभी हम गंगा-जमुनी सांझा संस्कृति के राष्ट्र एवं समाज का निर्माण कर सकते हैं।
आज के दौर में हमें विचार संयम और वाणी संयम को अपनी संस्कृति और लोकतंत्र की आधारशिला बनाना होगा। जैसा कि स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि “बोलने से पहले ३ बार सोचो, क्या यह सत्य है ? क्या यह आवश्यक है? क्या यह दूसरों को आहत तो नहीं करेगा ?” संविधान हमें अधिकार देता है, लेकिन उसके साथ आत्मानुशासन और समाजहित की अपेक्षा भी करता है। यदि हम इसे समझ लें, तो हमारा लोकतंत्र और अधिक सशक्त और समरस बन सकता है। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम का भी मानना था कि “यदि आपके शब्द राष्ट्र को प्रेरित करने की बजाय भटकाने लगें, तो वह आजादी नहीं, अराजकता है।” वास्तव में हर नागरिक को इतना सचेत व जागरूक होना जरूरी है कि वह विभिन्न स्रोतों से आने वाली सामग्री से जुड़ी मंशा को समझ सके।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा था कि “लोकतंत्र में मतभेद होना स्वाभाविक है, लेकिन मर्यादा टूटे तो वह विरोध नहीं, विघटनकारी गतिविधि बन जाती है।”

यह निर्विवाद सत्य है कि विभिन्न राजनीतिक दलों व संगठनों द्वारा सोशल मीडिया मंच का जमकर दुरूपयोग किया जाता रहा है। दरअसल, आम नागरिकों को प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि सोशल मीडिया पर उनका संयमित व्यवहार कैसा होना चाहिए ?