कुल पृष्ठ दर्शन : 8

You are currently viewing विश्व व्यवस्था में एक निर्णायक आवाज ‘२१वीं सदी का भारत’

विश्व व्यवस्था में एक निर्णायक आवाज ‘२१वीं सदी का भारत’

पूनम चतुर्वेदी
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
**********************************************

भारत का लोकतंत्र विश्व में सबसे बड़ा और जीवंत माना जाता है। यहाँ की चुनाव प्रणाली को संविधान द्वारा सुनिश्चित की गई स्वतंत्रता, निष्पक्षता और पारदर्शिता की कसौटी पर खरा उतरना होता है, परंतु कुछ ऐसे क्षण आते हैं, जब लोकतंत्र को उसकी परिभाषा और नैतिकता पर कसौटी से गुजरना पड़ता है। ऐसा ही एक ऐतिहासिक अवसर वर्ष १९७५ में आया, जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय देते हुए देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के १९७१ के लोकसभा चुनाव को रद्द कर दिया। यह निर्णय भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में एक क्रांतिकारी मोड़ था, जिसने न केवल सत्ता की जवाबदेही को रेखांकित किया, बल्कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता को भी ऐतिहासिक रूप से प्रतिष्ठित किया।
२१वीं सदी का आगमन केवल एक कालखंड का बदलाव नहीं था, बल्कि यह वैश्विक शक्ति-संतुलन के पुनः परिभाषित होने की शुरुआत थी। इस सदी में भारत का उभार केवल आर्थिक या सैन्य शक्ति के रूप में नहीं देखा जा रहा है, बल्कि एक ऐसी नैतिक और सांस्कृतिक शक्ति के रूप में सामने आया है, जो वैश्विक राजनीति, विकासशील राष्ट्रों की आकांक्षाओं, पर्यावरणीय न्याय, तकनीकी लोकतंत्र और बहुपक्षीय कूटनीति में निर्णायक भूमिका निभा रहा है। आज भारत न केवल अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहा है, बल्कि वह नई विश्व व्यवस्था के निर्माण में एक केंद्रीय स्तम्भ के रूप में उभर रहा है। भारत की इस भूमिका की नींव उसके ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मूल्यों में निहित है, जिसे वह सदियों से विश्व को देता आया है-‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ (संपूर्ण विश्व एक परिवार) की भावना। आज जब विश्व अनेक संकट से जूझ रहा है-चाहे वह रूस-यूक्रेन युद्ध हो, जलवायु परिवर्तन हो, या वैश्विक मंदी की आशंका-तब भारत ने अपने संतुलित और संवादप्रधान रुख से यह सिद्ध कर दिया है कि वह संघर्षों में पक्षधर नहीं, बल्कि समाधानकर्ता बनकर खड़ा है। भारत की इस नीति को उसकी ‘रणनीतिक स्वायत्तता’ कहा गया, जिसे रूस से ऊर्जा आयात के मामले में और पश्चिमी देशों से कूटनीतिक रिश्तों में संतुलन बनाकर सफलतापूर्वक निभाया गया। भारत की वैश्विक नेतृत्वकारी भूमिका को सबसे स्पष्ट रूप से जी-२० की अध्यक्षता के दौरान देखा गया। वर्ष २०२३ में जब भारत ने जी-२० का नेतृत्व किया, तो उसने ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ का मंत्र दिया, जो केवल नारा नहीं था, बल्कि एक वैचारिक दृष्टिकोण था, जो भविष्य की वैश्विक साझेदारी का खाका प्रस्तुत करता है। यह दर्शाता है कि भारत केवल अपने लिए नहीं, बल्कि उन देशों के लिए भी सोचता है;जो वर्षों से वैश्विक निर्णय प्रक्रियाओं से बाहर रहे।
भारत की तकनीकी क्षमता और डिजिटल सशक्तीकरण का मॉडल भी आज पूरी दुनिया के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया है। चाहे वह ‘आधार’ जैसी डिजिटल पहचान हो, ‘यूपीआई’ भुगतान प्रणाली हो, या फिर ‘कोविन’ जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म-भारत ने यह सिद्ध किया है कि तकनीक केवल सम्पन्न देशों का औजार नहीं है, बल्कि वह विकासशील देशों की भी पूँजी बन सकती है। आज अनेक देश भारत से ‘यूपीआई’ जैसी तकनीकों को अपनाने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं, जिससे भारत वैश्विक डिजिटल लोकतंत्र के निर्माता के रूप में सामने आया है।
भारत की अंतरराष्ट्रीय भूमिका में एक और महत्वपूर्ण पहलू है-भू- राजनीतिक कूटनीति में उसकी विश्वसनीयता। हाल के वर्षों में भारत ने अमेरिका, रूस, फ्रांस, इजराइल, खाड़ी देशों, जापान और दक्षिण एशियाई देशों के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों को संतुलित और परिपक्व बनाया है। यह बहुस्तरीय कूटनीति भारत को एकमात्र ऐसा राष्ट्र बनाती है, जो पश्चिम और पूर्व, उत्तर और दक्षिण-सभी के बीच संवाद का पुल बन सकता है। जब संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाओं की विश्वसनीयता पर प्रश्न उठ रहे हों, तब भारत एक ‘मध्यस्थ लोकतांत्रिक शक्ति’ के रूप में अधिक प्रभावशाली बनकर उभरा है।
आर्थिक दृष्टि से भी भारत की स्थिति वैश्विक मंच पर निर्णायक होती जा रही है। हाल ही में भारत ने ब्रिटेन को पीछे छोड़कर विश्व की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का गौरव प्राप्त किया। विश्व बैंक, आईएमएफ और ओइसीडी जैसी संस्थाओं ने भी भारत की आर्थिक संभावनाओं को आने वाले दशकों के लिए सबसे मजबूत बताया है। ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्टार्ट-अप इंडिया’ व ‘पीएलआई स्कीम’ जैसी योजनाओं ने निवेशकों के बीच विश्वास पैदा किया है, कि भारत अब केवल एक उपभोक्ता नहीं, बल्कि एक उत्पादक शक्ति भी है।
भारत की ऊर्जा नीति और जलवायु परिवर्तन पर उसकी स्थिति भी अब वैश्विक विमर्श का हिस्सा बन चुकी है। भारत ने पेरिस समझौते के तहत तय लक्ष्यों से अधिक तीव्रता से नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन में वृद्धि की है। ‘इंटरनेशनल सोलर अलायंस’ जैसे संगठनों की स्थापना कर भारत ने यह साबित किया है कि वह केवल समस्या की बात नहीं करता, समाधान भी देता है। इस वैश्विक नेतृत्व में भारत की सोच समावेशी है-वह पश्चिमी राष्ट्रों की तरह अपनी बात थोपता नहीं, बल्कि सबको साथ लेकर चलता है।
भारत की सैन्य स्थिति और आत्मनिर्भर रक्षा उत्पादन भी एक महत्वपूर्ण संकेत है, कि वह अब वैश्विक शक्ति संतुलन में केवल एक संख्या नहीं, बल्कि एक नीति-निर्माता है। हिंद महासागर क्षेत्र में भारत की समुद्री नीति, चीन की बढ़ती गतिविधियों पर निगरानी एवं क्वाड जैसे संगठनों में सहभागिता और रणनीतिक साझेदारी इस बात को रेखांकित करते हैं कि भारत एक वैश्विक सामरिक ताकत बन चुका है।
२१वीं सदी में वैश्विक नैतिकता, तकनीकी न्याय और मानवतावादी नीतियों की आवश्यकता पहले से अधिक हो गई है। भारत ने न तो उपनिवेश बनाए, न ही विस्तारवादी युद्ध लड़े। वह आज भी सबको जोड़ने, सहेजने और साथ चलने की बात करता है। यही कारण है कि आज वैश्विक मंच पर भारत को केवल सुना नहीं जा रहा, बल्कि माना भी जा रहा है।
इस सबके बीच भारत के सामने कुछ चुनौतियाँ भी हैं, जैसे-आंतरिक-सामाजिक समरसता बनाए रखना, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सुधार और रोजगार के अधिक अवसर उत्पन्न करना। यदि भारत इन आंतरिक मोर्चों को संतुलित रखता है, तो वह न केवल २१वीं सदी में विश्व व्यवस्था की आवाज़ बन सकता है, बल्कि विश्व व्यवस्था का स्वरूप भी बदल सकता है। इस सदी की वैश्विक व्यवस्था एक ऐसे बहुध्रुवीय वैश्विक समाज की ओर अग्रसर है, जिसमें नैतिक नेतृत्व, प्रौद्योगिकीय समावेशन और समरसता-प्रधान कूटनीति की आवश्यकता होगी। भारत में ये तीनों विशेषताएँ मौजूद हैं-और यही कारण है कि २१वीं सदी भारत की सदी हो सकती है–एक ऐसी सदी, जिसमें भारत न केवल विश्व व्यवस्था का भागीदार हो, बल्कि उसका मार्गदर्शक भी हो।