सीमा जैन ‘निसर्ग’
खड़गपुर (प.बंगाल)
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“ओह…जल्दी गाड़ी निकालो न, ट्रेन आने में बस आधा घंटा बाकी है, राहुल थका-हारा आएगा और हम नहीं पहुंचे तो कितना परेशान होगा..? सुबह ८ बजे से अपने कॉलेज हॉस्टल से निकला हुआ है”। चिंतित राधिका ने अजय से कहा।
“बस…बस, तुम आओ, मैं रेडी ही हूँ”, कहते हुए अजय गैराज की ओर भागा।
गाड़ी में बैठते हुए राधिका मन-ही-मन अपनी तैयारी पर फिर से निगाह डाल रही थी, कि कहीं कुछ बाकी तो नहीं है। ठंडे पानी की बोतल ले ली है, खाना बन ही गया। उसकी पसंद के दम आलू और शुद्ध घी के पराठे, खीर, भुजिया सब तैयारी कर ली है मैंने… शाम से ही। आते ही जल्दी से उसे खाना खिला दूंगी, कार में ए.सी. की ठंडक से अब कहीं जाकर उसका पसीना कुछ सूखने को हुआ था।
जब भी ३-४ महीने में रिनी या राहुल, दोनों बच्चों में से जो भी घर आनेवाला होता था… वो दोनों उत्साह से उनके स्वागत में पलकें बिछाए बैठ जाते थे। जब कभी दोनों साथ आ जाते, तो घर गुलज़ार हो जाता, उसे बैठने तक का समय नहीं मिलता। राधिका उन्हें कोई काम ही नहीं करने देती। वैसे ही बेचारे हॉस्टल में खुद ही सब काम करते हैं, पढ़ते हैं… तो घर में उन्हें पूरा आराम मिलना चाहिए। ऐसा उसका सोचना था, जबकि हॉस्टल में धोबी, मेस, रूम क्लीनिंग इत्यादि सभी सुविधाएं थी। वास्तव में… माँ ऐसी ही होती है। खुद मर-मर के काम कर लेगी, पर मजाल है कि हॉस्टल से आए बच्चों पर हुकुम झाड़े। “क्या खाओगे, आज तुम्हारी पसंद की पाव-भाजी बना दूंगी, कल के लिए मैंने डोसे के चावल भिगो दिए हैं।” उसे पता है कि दोनों को मम्मी के हाथ के डोसे बहुत पसंद हैं। “शाम को शॉपिंग, डॉक्टर या जो भी काम हो, कहना… साथ ही चलेंगे।”
मोबाइल में मुँह घुसाए बच्चे…”हाँ मम्मी”, “ठीक है मम्मी” कहते और वो उसी में निहाल हो जाती। “मेरे सब कपड़े धोकर आयरन भी करवा देना मम्मी, और जूते भी ठीक करवाना है, आप पापा से बोल देना।” पापा सुबह १० बजे ऑफिस जाते हैं, तब तक तो वो सोकर उठ भी नहीं पाते हैं। “हाँ.. हाँ बेटा, मैं हूँ न..।” सेवा में तत्पर खड़ी राधिका एक-एक कर सभी जिम्मेदारियाँ ओढ़ लेती।
भर-भर घी दाल-चावल में डालती,-” घर में अच्छे से खाया करो, वहाँ ये सब कहाँ मिलेगा।” खाने के संग इतने दिनों का हृदय में उमड़ता बकाया लाड़-प्यार भी बरसाती जाती। कई-कई महीने अपने कलेजे के टुकड़े के बिन रहना माँ को अंदर-ही-अंदर खोखला बना देता है, पर सभी ग़म हँस कर पीने वाली माँ ईश्वर का दूजा नाम इसलिए ही नहीं कहलाती। जाते समय उनके लिए मठरी, चूड़ा, गुजिया, लड्डू और न जाने क्या-क्या साथ में भी बांध देती। “बेटा, मैंने ज्यादा-सी पूरी और सब्जी बना दी है, तुम भी खा लेना और अपने रूम मेट को भी दे देना। उसे भी घर का खाना मिल जाएगा।”
क्या… माँ की ‘डिक्शनरी’ में थकान नाम का कोई शब्द होता है…?? ज्यादा कष्ट हो तो दो आँसू ढलका देती है और फिर मैदान में डट जाती है। जब बच्चे चले जाएं तो चुपचाप डब्बे में से क्रोसिन निकाल कर खा लेती, “पता नहीं क्या हो गया है, जो इतनी थकान हो गई है… शायद उमर होने से ऐसा होता है”, सोचकर किसी से कुछ नहीं कहती। नाज़ुक- सी पहलवान होती है… माँ..!!
बच्चे ४-५ साल बाहर पढ़ते हैं, उसके बाद जॉब के चलते बाहर के हो जाते हैं। आना-जाना उनका लगा रहता है और माँ उनकी सेवा करते-करते कब पस्त-सी होती चली जाती है, उन्हें ध्यान तक नहीं होता। माँ को भी मदद की जरूरत है, माँ को भी शारीरिक थकान हो सकती है, बच्चे कभी नहीं सोचते… कभी ध्यान नहीं देते, क्योंकि उन्हें इतना सोचने की न आदत होती है न ही समय….। वह भी उस माँ के लिए, जो एक पैर पर उनकी सेवा में पूरे घर में दौड़ती-फिरती है…।
बच्चे जॉब के साथ नई जगह की नई चकाचौंध में डूबते चले जाते हैं, कब माँ का हाथ उनके हाथ से छूटता चला गया, उन्हें होश भी नहीं रहता, याद भी नहीं होता। फिर माँ की जगह कोई और आ जाता है, जिसकी देखभाल उनकी प्राथमिकता हो जाती है। वो पूरी ज़िंदगी उस माँ का न शुक्रिया अदा करते हैं और न ही उन्हें माँ का ये बलिदान याद रहता है। बच्चों की सेवा करना माँ का फर्ज है, उन्हें केवल यही लगता है।
माँ अभी भी धीरे-धीरे काम करती रहती है, करती ही रहती है…तब तक, जब तक है जान…।