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गिरगिट

डॉ. योगेन्द्र नाथ शुक्ल
इन्दौर (मध्यप्रदेश)
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दोनों दरख्त उदास होकर चारों ओर देख रहे थे। कुछ देर पहले परेड ग्राउंड, स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों और जनता से भरा हुआ था, पर अब वहाँ चारों ओर पानी के खाली पाउच, पूड़ी-सब्जी के खाली पॉलिथिन इधर-उधर बिखरे पड़े थे।
“भाई बरगद ! हमने यहाँ कितने ईमानदार जनसेवकों के भाषण सुने। उन लोगों के मुँह से शहीदों के किस्से सुनकर सभी का मन देशप्रेम की भावना से भर जाया करता था और एक ये हैं-झूठे… बेईमान… धूर्त…! आज झंडावन्दन के कार्यक्रम में रसिकलाल नेता और बड़े साहब ने अपने भाषण में जनता को सच्चाई और ईमानदारी से जीवन गुजारने की कितनी सीख दी !… ओफ़, खुद तो उन सीखों का पालन नहीं करते और दूसरों को सुधारते फिरते हैं।”
“भाई नीम! इसीलिए इन लोगों की बातों का जनता में जरा भी असर नहीं होता। जनता तो जानती है कि रसिकलाल ने किस-तरह गलत काम करके धन कमाया… भोली- भाली गरीब जनता को रुपया बाँट कर उसके कार्यकर्ताओं ने उन्हें भगवान् की कसम खिलाई, तब वह चुनाव जीत पाया। शपथ लेते ही उसने ईमानदार-अधिकारी का यहाँ से ट्रांसफर करवाया और इस भ्रष्ट अधिकारी को यहाँ लेकर आया, ताकि शासन की योजनाओं का धन दोनों डकार सकें।”
“दोनों के दोनों गिरगिट हैं! ऐसे गिरगिटों के कारण ही देश चौपट होता जा रहा है… भाई! ये कितने बेअदब हैं कि जिस तिरंगे के नीचे खड़े होकर स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भारत माता पर मर मिटने की कसम खाया करते थे, उसी के नीचे खड़े होकर ये इतना झूठ बोल रहे हैं। उनके इस दुस्साहस से मेरा मन छलनी-छलनी हो गया।”

दोनों दरख्तों की डगालें एक-दूसरे से टकराने लगीं। …शायद वे एक- दूसरे का स्पर्श कर अपना दुःख हलका कर रहे थे। उनकी निगाहें कागज के उस झंडे पर टिकी थीं, जो जमीन पर पड़ा था और पैरों के नीचे आ जाने के कारण मैला- कुचैला हो गया था।