डॉ. शैलेश शुक्ला
बेल्लारी (कर्नाटक)
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काश! मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता-बस एक डिग्री फ्री रजिस्ट्रेशन भरने की बजाय पावर-पैक खाता हाथ में होता। यह पद केवल ‘शैक्षणिक जिम्मेदारी’ नहीं, बल्कि एक लाइफ-स्टाइल लाइसेंस होता, जो सुबह से शाम तक प्राचार्य स्टाइल में बिताने की अनुमति देता। कॉलेज में क्लास रूम की घंटी छात्रों के लिए होती, पर मेरा ऑफिस घंटा गनगुनाता-‘छात्र क्या समझे, मैं क्या समझूँ’ की नीति के साथ। जब फीस जमा होती, तो मैं सिर्फ अकादमिक मद की गिनती नहीं, बल्कि ‘आकर्षण-आय का इल्यूज़न’ ट्रैक करता। धन की जगह दोनों हाथ हर शाखा में बांधना प्राथमिकता होती-छात्रों को उसकी जरूरत, फैकल्टी को उसका भरोसा।
🔹परीक्षा-शैक्षणिक संयोजन के बजाए साझेदारी होती-
शिक्षक और स्टाफ-क्लास रूम में कम, ‘चाय-आलाप टीम’ के सदस्य ज्यादा दिखते। गणित, विज्ञान, इतिहास नहीं, पर ‘संबंध प्रबंधन १०१’ पढ़ाई जाती और पात्रता नहीं, प्रसंग योग्यता पर नियुक्तियाँ होतीं-“आप मेरे को अच्छा दोस्त साबित कर लो, कॉलेज आपकी अंगूठी दमकाएगा।”
🔹छात्रवृत्ति ? नहीं, ‘छात्र-भेंट’ की साजिश!
छात्रवृत्ति आवेदन अंगीकार पत्र, बैंक स्टेटमेंट और रिश्वत-लिफाफा साथ होना अनिवार्य। उसे कहते हैं ‘वित्तीय कल्याण’, पर मुझे लगता है-ये भेंट-प्रियता प्रणाली है।
🔹जो विभागीय निर्णय होता, वह ‘डिनर-बजट योजना’ होता-
छात्र एक्स-टूर, फैकल्टी पिकनिक और प्राचार्य के सैलेरी बॉक्स के बीच संबंध बनता। पीयर रिव्यू, शिक्षण मूल्यांकन नीचे, पर सेल्फ-ग्राफ्विक्स की छवि ऊपर! और मैं उसमें सबसे बड़ा ग्रेमी विजेता-डिनर, फ्लैट, बाइक, सब कार्यालयीकृत तरीके से दफ्तर-फंड में समा जाता।
🔹काश! प्राचार्य होता-
प्राचार्य होता तो प्रशासन नहीं, राज-नियंत्रण बनाए रखता। क्लास रूम में मास्टर नहीं, प्रबंधक होता। छात्रों के परिणाम, फीस की लोडिंग, फैकल्टी के प्रमोशन-सब एक स्कोर-कार्ड सिस्टम से होते। पूछिए कि ‘कहाँ पढ़ा है ?’ नहीं पूछा जाता, बल्कि पूछा जाता-‘कहाँ क्या घोड़ा खड़ा करोगे ?’ संबधित व्यक्ति नकल नहीं, सम्बन्ध योग्यता से तौला जाता। और अगर कोई असहज हो जाए-‘सर, नियम विपरीत!’ तो समझो उसका परिणाम रहता-‘आप अपेक्षित नहीं।’
🔹परीक्षा होती, लेकिन ‘जबर्दस्त व्यक्तिगत रोडमैप’-
जो छात्र मेहनत करता, वो ‘रिक्विज़िशन फाइल’ में फंसता और जो चाकलेट या उपहार भेजता, उसकी स्कोरबोर्ड-विशेष श्रेणी-‘पास विद डिस्टिंगशन’ की घोषणा होती।
🔹फंड निकालने की कला हो-
‘छात्र कल्याण नहीं, प्रियजन कल्याण!’ हर खर्च बजट से दिखता, पर वितरणी खाते मेरा होता। लाइब्रेरी में किताबें खरीदें, तो वे बड़े अक्षरों में ‘नॉलेज इनिशिएटिव’ कहलाते, पर वे वहीं तक पहुंचते-प्राचार्य के फार्म हाउस की धार्मिक विधि के लिए।
🔹बैठकें दिखाई जाती, लेकिन हकीकत…-
फैकल्टी जो पूछता, वह सवाल नहीं, ‘संकेत’ पूछा जाता-“सर को पसंद आएगा ?” और जो छात्र अनुरोध करता-“सर, डिजिटल नोट्स भेजिए”-तो उसे मिलता- “आप डिजिटली कैसे स्पेशल बन सकते हो, यही नोट भेजी जा रही है।” छात्र को परिणाम देने से पहले एक प्रेस नोट भेजा जाता-“हमारी परीक्षा पारदर्शी रही”-लेकिन वाकई होती थी एक ‘अनौपचारिक परिणाम प्रक्रिया’, जहां संगीत में ऊंचाई और फीस में गहराई पर निर्भरता होती थी। और मैं यह सोचकर मुस्कुराता-काश! मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता!
🔹‘अनुशासन’ नहीं, ‘रिश्वत नीति’ का नियंत्रण-
काश! मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता-तो अनुशासन-बोर्ड नहीं, एक रिश्वत-कमेटी की स्थापना करता! छात्र देर से आते तो पहले बाल्टी के पानी से स्वागत, लेकिन वही यदि ‘वेलकम-बॉक्स’ भेजें तो उन्हें छोड़ने के बजाय विभागीय सम्मान मिलता। टीचर समय पर नहीं आता, तो समझो-ट्रांसफर का इंतज़ाम फाइल में शुरू हो गया, लेकिन अगर कोई ‘एफ़िशिएंट मर्जिंग-ऐसी रिपोर्ट लेकर आए’ जिसमें उसके रिश्तेदारों का नाम हो, तो प्रमोशन उसकी ब्रीफ़केस का हिस्सा बन जाता। यह वह व्यवस्था है जहाँ ‘अनुशासन’ नहीं, पसंद का स्वाद मायने रखता है।
🔹’पड़ोस का पुरस्कार’, ‘दूर-दुश्मन की डिग्री’-
काश! मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता-तो जीत जाता ‘पड़ोस का पुरस्कार।’ जीत इसलिए कि जब भी कोई बाहरी एजेंसी या यूनिवर्सिटी निरीक्षण पर आए, मैं दिखाता ‘प्रोफेशनल पेंशन कल्चर-प्रैक्टिस’, लेकिन अंदर चलता ‘फैमिली फंड फंक्शन।’ लाइब्रेरी में ‘ई–लर्निंग सिस्टम’ दिखाते समय अंदर होते चाय–डेट की तैयारी, छात्र-फेस नहीं, बल्कि वीआईपी चेहरों की मुस्कुराहट की तस्वीरें दीवारों पर टंगी होतीं। कॉलेज की वर्षगाँठ पर ‘गुरु-गौरव सम्मान’ होता, लेकिन यह सम्मान संगीत-अतिरेक और डिनर-प्लानिंग से ज्यादा कुछ नहीं होता एवं छात्र-मद से लौटी गई राशि ‘सुबह-सुशिक्षा-अवसर निधि’ कहलाती। और जो शिक्षक ‘एथिकल प्रोसीजर’ लागू करने को कहते, उन्हें भेजा जाता-‘दूसरे कॉलेज में ट्रेनिंग देने’, ताकि वह देर शाम हिसाब-किताब के बजाय ‘क्लास लीडरशिप’ सिखा सकें। यह व्यवस्था छात्रों को ‘धोखे के अलग-अलग रूप’ सिखाती-‘चाहे तुम्हारा पेपर क्लियर हो या न हो, लेकिन क्लास सेशन पर तुम्हारी उपस्थिति दर्ज होगी।
🔹स्मार्ट क्लास नहीं, स्मार्ट कमिटमेंट पर जोर देता-
क्लासरूम में एलसीडी दिखते हैं और बाहर प्राचार्य कार्यालय में एलईडी पर पावर-पॉइंट गारंटी चलती रहती है। छात्र आएं या ना आएं, लेकिन वाई-फाई कनेक्शन होना ज़रूरी, ताकि वह ‘ई-जगजगीरी’ कनेक्टिविटी रिपोर्ट भेजने के लिए तैयार रहे। अंग्रेज़ी अभिव्यक्ति में नार्गरी, कहा जाए ‘इमेज बिल्डिंग’, ‘ब्रांड कम्पैटीबिलिटी’ और ‘ट्रेंड-टू-बजट’ पर फंड मंजूरी हो जाती। लाइब्रेरी में ज़रूरी नहीं कि छात्र बोलें, पर इमेज लाइटिंग रखना ज़रूरी होता, ताकि बाहरी निरीक्षकों को लगे कि कॉलेज डिजिटल डिस्कवरी जंक्शन है।
और परीक्षा परिणाम जो आते हैं, वे नोटिस बोर्ड पर नहीं, बल्कि प्रतिनिधि प्रोफाइल में ट्वीट-रिव्यू होकर आते। हर परिणाम प्रेस नोट में लिखा-“हमारा संस्थान शिक्षा के साथ-साथ ‘डेटा-आधारित निर्णय’ लेता है।” और असल में हम डाटा फ्रेमिंग में इतने माहिर होते हैं कि छात्रों की अंकसूची से ज़्यादा ‘ट्विटर लाइक’ और ‘रिट्वीट’ की संख्या मायने रखती।
इस व्यवस्था में शिक्षा को इंफ्लुएंसर-डिज़ाइन लर्निंग कहा जाता और फंडिंग को फॉलोअर बेस्ड कैप्शन माना जाता। मुझे पूरा विश्वास होता-जब तक कॉलेज का रिटर्न ऑन इंटरेक्शन बढ़ रहा है, तब तक कॉलेज ‘उन्नत’ है। और मैं कुर्सी पर बैठ कर सोचता-काश! मैं किसी कॉलेज का प्राचार्य होता!