दिल्ली
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‘अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस’ (१ अक्टूबर) विशेष…
संयुक्त राष्ट्र संघ ने १ अक्टूबर को ‘अंतर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस’ के रूप में घोषित किया है। इसका उद्देश्य वृद्धों के अधिकारों, उनकी गरिमा और उनके योगदान को रेखांकित करना है। यह दिन हमें यह सोचने को विवश करता है कि जीवन के इस अंतिम पड़ाव में, जिसे कभी सम्मान और अनुभव का प्रतीक माना जाता था, आज वह उपेक्षा, अकेलेपन और असुरक्षा का पर्याय क्यों बन गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वर्ष २०३० तक ६० वर्ष से अधिक आयु के लोग पूरी दुनिया में १.४ अरब से अधिक हो जाएंगे और २०५० तक यह संख्या दोगुनी होकर लगभग २.१ अरब तक पहुँच जाएगी। विकसित देशों में वृद्धजन आबादी का चौथाई हिस्सा बन चुके हैं, वहीं विकासशील देशों में भी उनकी संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। विडंबना यह है कि इस बढ़ती जनसंख्या के साथ उनकी सुरक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक भागीदारी की चुनौतियाँ भी बढ़ रही हैं। यूरोप और अमेरिका जैसे देशों में वृद्धजन पेंशन और स्वास्थ्य देखभाल से तो सुरक्षित हैं, परंतु अकेलेपन और मानसिक अवसाद की समस्या विकराल है। एशिया और अफ्रीका में, जहां परिवार व्यवस्था मजबूत मानी जाती थी, अब संयुक्त परिवार टूटने से वृद्धजन आर्थिक व सामाजिक असुरक्षा से जूझ रहे हैं।
वृद्धजन लचीले और समतामूलक समाज बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उन्नत एवं आदर्श समाज के निर्माण में वृद्धजनों की आवाज़, उनके दृष्टिकोण और अनुभव को विशेष महत्व है, पर वृद्धावस्था में कठिनाइयाँ अनेक रूपों में सामने आती हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से हृदय रोग, मधुमेह, जोड़ों के दर्द और डिमेंशिया जैसी बीमारियाँ उन्हें घेरे रहती हैं, परंतु चिकित्सा सुविधाओं तक उनकी पहुंच सीमित है। आर्थिक दृष्टि से पेंशन व सामाजिक सुरक्षा योजनाएं हर वृद्धजन तक नहीं पहुँचतीं और ग्रामीण क्षेत्रों में स्थिति और भी दयनीय है। सामाजिक स्तर पर आधुनिक जीवन की दौड़ में वृद्धजन अकेलेपन, उदासी और उपेक्षा से पीड़ित हैं। मानसिक दृष्टि से आत्मसम्मान को ठेस, भूमिका से वंचित होना और बेकारपन का एहसास उन्हें भीतर तक तोड़ देता है।
भारत में वृद्धों की स्थिति अधिक चिन्ताजनक है, जबकि वृद्धजन भारतीय समाज की धरोहर मानी जाती रही हैं, उन्हें अनुभव और ज्ञान का भंडार मानते हैं। इसके बावजूद यदि हम उन्हें उपेक्षित करेंगे तो यह केवल अन्याय ही नहीं, बल्कि सभ्यता एवं संस्कृति की पराजय होगी। वृद्धजन केवल जीवित बोझ नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति, परंपरा और मूल्यों के संरक्षक हैं। उनका सम्मान करना न केवल हमारा नैतिक कर्तव्य है, बल्कि एक बेहतर, संवेदनशील और संतुलित समाज के निर्माण की अनिवार्यता है। भारत जैसे विकसित देश के नागरिकों की औसत आयु ६० वर्ष से अधिक ६५ हो रही है। जीवन प्रत्याशा में वृद्धि के कारण देश में वृद्धजन की संख्या बढ़ रही है। देश में २०११ में १०.३८ करोड़ वरिष्ठ नागरिक थे, जिनके २०५० तक ३० करोड़ होने का अनुमान है। यह बात भारत के नीति आयोग ने कही है, इसी के कारण बुजुर्गों की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं।
भारत में परंपरागत भारतीय परिवार व्यवस्था में वृद्धजनों को सम्मान, सुरक्षा और निर्णय लेने की अहम भूमिका प्राप्त थी, लेकिन आज शहरीकरण, एकल परिवार, प्रवास और उपभोक्तावादी सोच ने उनकी भूमिका को हाशिए पर पहुँचा दिया है। परिवार के भीतर उन्हें आर्थिक बोझ समझा जाने लगा है। नौकरी पेशा बच्चों के व्यस्त जीवन में धैर्य और देखभाल की कमी स्पष्ट हो रही है और संपत्ति तथा अधिकारों को लेकर तनाव आम हो गया है। इसके परिणामस्वरूप वृद्धजन शारीरिक बीमारियों से जूझते हैं, पर पर्याप्त चिकित्सा नहीं मिलती। उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया से बाहर कर दिया जाता है और कभी-कभी घरेलू हिंसा और संपत्ति विवादों में भी उलझना पड़ता है।
चिन्तन का महत्वपूर्ण पक्ष है कि वृद्धों की उपेक्षा के इस गलत प्रवाह को रोकें, क्योंकि सोच के गलत प्रवाह ने न केवल वृद्धों का जीवन दुश्वार कर दिया है, बल्कि आदमी-आदमी के बीच के भावात्मक फासलों को भी बढ़ा दिया है। वृद्धावस्था जीवन की सांझ है। वस्तुतः वर्तमान के भाग-दौड़, आपाधापी, अर्थ प्रधानता व नवीन चिन्तन तथा मान्यताओं के युग में जिन अनेक विकृतियों, विसंगतियों व प्रतिकूलताओं ने जन्म लिया है, उन्हीं में से एक है वृद्धों की उपेक्षा। वस्तुतः वृद्धावस्था तो वैसे भी अनेक शारीरिक व्याधियों, मानसिक तनावों और अन्यान्य व्यथाओं भरा जीवन होता है, अगर उस पर परिवार के सदस्य, विशेषतः युवा परिवार के बुजुर्गों/वृद्धों को अपमानित करें, उनका ध्यान न रखें या उन्हें मानसिक संताप पहुँचाएं, तो स्वाभाविक है कि वृद्ध के लिए वृद्धावस्था अभिशाप बन जाती है।
इन समस्याओं का समाधान केवल सरकारी योजनाओं से संभव नहीं है, बल्कि इसके लिए परिवार, समाज और सरकार-सभी स्तरों पर समन्वित प्रयास की आवश्यकता है। परिवार व्यवस्था का पुनर्जीवन जरूरी है, बच्चों में बचपन से ही सेवा, सहानुभूति और सम्मान की भावना विकसित की जाए। सामाजिक सुरक्षा के दायरे का विस्तार हो, पेंशन, स्वास्थ्य बीमा और वृद्धाश्रमों की गुणवत्ता में सुधार किया जाए। प्रत्येक नगर और गाँव में वृद्धजन के लिए स्वास्थ्य केंद्र स्थापित हों। मानसिक स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जाए, अकेलेपन से लड़ने के लिए सामुदायिक केंद्र, क्लब और वृद्धजन मंच सक्रिय किए जाएँ। वृद्धजनों को डिजिटल तकनीक से जोड़कर उन्हें सामाजिक और पारिवारिक संवाद में सक्रिय बनाया जाए। माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण अधिनियम २००७ का प्रभावी क्रियान्वयन किया जाए और समाज में उनके अधिकारों के प्रति जागरूकता लाई जाए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जब नया भारत, विकसित भारत और समृद्ध भारत का निर्माण हो रहा है, तब यह आवश्यक है कि इस विकास यात्रा में वृद्धजन उपेक्षित न हों, बल्कि उन्हें इसका सक्रिय भागीदार बनाया जाए। साथ ही ‘डिजिटल इंडिया’ और ‘स्किल इंडिया’ जैसी योजनाओं से वृद्धजनों को जोड़ा जाए, ताकि वे सामाजिक संवाद और आर्थिक गतिविधियों में सक्रिय बने रहें। काउंसलिंग केंद्र स्थापित हों और ‘सेवा भाव’ को बढ़ावा देने वाले राष्ट्रीय अभियान चलाए जाएँ। जब भारत आत्मनिर्भरता और वैश्विक नेतृत्व की ओर बढ़ रहा है, तब उसके अनुभव-संपन्न वृद्धजन राष्ट्र की अमूल्य पूंजी हैं, इसलिए सरकार को उनके लिए संवेदनशील और समग्र कल्याणकारी नीतियाँ लागू करनी चाहिए।