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आत्महत्या

सीमा जैन ‘निसर्ग’
खड़गपुर (प.बंगाल)
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“रेणु, तुम अंशुल से कह दो, इस दिवाली पर न आए… फिर दस-बारह हजार लग जाएंगे चार दिन के, अभी वैसे भी बहुत खर्च हो गया है… हॉस्टल और कॉलेज की सालभर की फीस जमा दी है। मैंने कहा तो उसका पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया है।”
अभिजीत ने भुनभुनाते हुए फिर कहा…, “पता नहीं आजकल के लड़कों को ये क्या हो गया है…? अपनी चादर देखते नहीं और पैर पसारते चले जाते हैं। पिछले महीने ही तो आकर गया है, तब फ्लाइट का १० हजार खर्च हो गया था। कहता है कि,”अब तो ये गाँव लगता है, मुझे यहाँ अच्छा नहीं लगता और अब फिर दीवाली पर आने को उछल रहा है।”
“मैं बात करती हूँ, प्लीज़ तुम कुछ न कहना”, रेणु ने अभिजीत को समझाते हुए कहा। उसे डर था कि कहीं फिर बाप-बेटे में बहस न छिड़ जाए। बेचारी हमेशा इन दोनों के बीच में सैंडविच बन जाती थी। उसकी नज़र में तो दोनों ही बच्चे जैसे हैं। अभिजीत समझने को तैयार नहीं और अंशुल तो खैर बच्चा ही था…, पर २१ वर्ष का होने के बाद भी उसमें ज़िंदगी के प्रति गंभीरता और समझदारी नहीं आई थी। उसका एक अलग ही दृष्टिकोण था ज़िंदगी के प्रति… वह आज में जीना चाहता था। उसे अभी ही सब-कुछ चाहिए था… अब तक पैसे का मैनेजमेंट समझ नहीं पाया था या समझना नहीं चाहता है। “क्यों फिक्र करते हो पापा, एक दिन मैं आपको बहुत धन कमा के दिखाऊंगा। गाड़ी, बंगला सब होगा तुम्हारे पास”, अंशुल अपने पापा से लाड में कहता।
मन-ही-मन बेटे को देख उनकी छाती चौड़ी हो जाती। बेटा उन्हें उनकी ताकत लगता, उनके बुढ़ापे का सहारा लगता। तब वे मन को दिलासा देते, “ठीक है अभी नासमझ है, कई बच्चे देर से समझदार होते हैं, मुझे तो शादी के बाद भी अक्ल नहीं आई थी, बाबूजी अक्सर कहा करते थे,” सोच कर वो मुस्कुरा दिए। वो हमेशा उस पल को याद करते, जब अंशुल का जन्म हुआ था। बाप कहलाने का सुख महसूस कर अभिजीत हमेशा गर्वित हो जाते, किंतु वे भी क्या करें…? महंगाई और ऑनलाइन शॉपिंग ने पूरे व्यवसाय का सत्यानाश कर के धर दिया था। मध्यम वर्ग के व्यवसायी, जो कभी लाखों में खेलते थे, आज सूने पड़े बाजार से सहमे हुए थे। ऊपर से कुछ पुराने खयालात के होने की वजह से उन्हें ये नए जमाने के चोंचले कम ही भाते थे, ऊपर से अब बच्चों को फ्लाइट की हवा लग गई थी, जो उन्हें बिल्कुल हजम नहीं होती थी।
अभिजीत रेणु को सफाई देते,”मैं उनका दुश्मन थोड़ी हूँ, बाप हूँ… मैंने दुनिया देखी है… बिन पैसे के आजकल कुछ नहीं होता।”
दोनों बच्चों का भविष्य भी तो सुरक्षित करना है, उनकी शादी, मकान इत्यादि जाने कितने आगामी खर्चे हैं, जिसके लिए वे बचत करते रहते थे, किंतु आज में जीने वाले बच्चे ये सब कहाँ समझते हैं।
रेणु ने शाम को काम से निवृत्त होकर अंशुल को फोन लगाया… रिंग होती रही, पर उसने फोन नहीं उठाया। शायद कॉलेज से आकर नहाने वगैरह गया होगा, रेणु ने सोचा। रात में फिर व्यस्त होने के कारण उनकी बात नहीं हो पाई। सबेरे रेणु ने अभिजीत से ही कॉल लगाने को कहा, “२ दिन हो गए, शाम को भी बात नहीं हुई, तुम अभी बात कर लो… पता नहीं कितना व्यस्त रहता है… ये नहीं, कि कभी खुद ही फोन लगा ले।”
अभिजीत ने तैयार होते-होते अंशुल को फोन किया, तो फिर से रिंग होती रही, पर फोन रिसीव नहीं हुआ। घड़ी देखते हुए चिंता से उनके माथे पर बल पड़ गए, “११ बज रहे हैं, अंशुल तो कभी ऐसा नहीं करता… लाख बहस करे, पर फोन तो उठा ही लेता है,” चिंतित अभिजीत ने कहा।
“उसके वार्डन को फोन करो”, उतावली हो रेणु कहने लगी, आशंका से उसे अपनी साँसें थमती-सी लगी।
“रिंग तो हो रही है, पर रूम का दरवाजा अंदर से बंद है… अभी देखते हैं,” वार्डन ने बताया।
अभिजीत पत्थर की मूरत बने धम्म से कुर्सी पर बैठ गए, उनके दिमाग में अखबारों में छपे विद्यार्थियों के उल्टे-सीधे किस्से उतराने लगे।
रेणु बदहवास-सी बोली, “सो रहा होगा, उसकी नींद भी बड़ी गहरी है… रातभर जागने से हो सकता है, देर से सोया होगा।”
वो उम्मीद का दामन थामे ईश्वर को जपने लगी। तभी फोन की घंटी बजी…लगा, कान के पर्दे ही फट जाएंगे। कांपते हाथों से अभिजीत ने फोन उठाया, “आप अंशुल के पेरेंट्स हैं… आ जाइए… आपके बेटे ने सु…”, एक भारी-सी आवाज कानों में पड़ी, किंतु बाकी के शब्द सुनने का किसे होश था…!! एक निर्जीव शरीर के साथ दो मुर्दा जिस्म भी थे, जिन्होंने आत्महत्या नहीं की थी…!!

जो बच्चों के साथ हर हाल में समझौता कर लेते हैं, जो समस्याओं से भागते नहीं… उसका समाधान ढूंढते हैं, जो संघर्षों से लड़ना जानते हैं, जो आशाओं का दामन थाम… तिनके का सहारा ले, संसार रूपी महासागर में कूद पड़ते हैं, जो माँ-बाप कहलाते हैं… वो अब धीरे-धीरे चलती-फिरती लाश में तब्दील हो जाएंगे… हमेशा के लिए…!!