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एक जर्जर-सा किला

सुरेश चन्द्र ‘सर्वहारा’
कोटा(राजस्थान)
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एक ऊँची-सी पहाड़ी
उस पर खड़ा है यह किला,
आँधियाँ सहकर समय की
जो आज तक भी ना हिला।
एकान्त वासी यह किला
शोरगुल को अब तरसता,
तोप की आवाज से जो
शेर-सा था कल गरजता।
द्वार पर ताला जड़ा है
है कैद में वीरानियाँ,
न यहाँ अब रहते राजा
और ना रहती रानियाँ।
चमगादड़ें,झींगुर यहाँ
मौज से करते बसेरा,
ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर
घास का है डला डेरा।
संगमरमरी फर्श और
कक्ष की भी चित्रकारी,
सह रहे अपनी उपेक्षा
बोझ दिल पर रखे भारी।
खोई-खोई-सी सुरंग
सोया-सोया तहखाना,
चारदीवारी देखती
धूप का आ चले जाना।
दीप तुलसी का बुझा है
पड़ा सूना देव-थानक,
जाली झरोखे ड्योढ़ियाँ
खो रहे अपना कथानक।
टूटकर बिखरे पड़े हैं
ऐश्वर्य के सभी साधन,
छतों-छज्जों-खिड़कियों का
आज जर्जर हुआ तन-मन।
थक गए हैं गोल गुम्बद
चुपचाप-से कब के खड़े,
दुश्मनों के वार सहकर
जो मौत से जी भर लड़े।
कब जवानी लौटती है
कब फूल मुरझाया खिला,
आँख में फिर भी रही हैं
क्यों आस-किरणें झिलमिला।
रात में यह चाँद-तारे
है सूर्य दिन में ताकता,
हाथ से फिसले समय को
अब वृद्ध जन-सा आँकता।
सोचता मन में किला यह
अच्छे दिन फिर आएँगे।
धूल की परतें हटेगी,
रोम-रोम मुस्काएँगे॥

परिचय-सुरेश चन्द्र का लेखन में नाम `सर्वहारा` हैl जन्म २२ फरवरी १९६१ में उदयपुर(राजस्थान)में हुआ हैl आपकी शिक्षा-एम.ए.(संस्कृत एवं हिन्दी)हैl प्रकाशित कृतियों में-नागफनी,मन फिर हुआ उदास,मिट्टी से कटे लोग सहित पत्ता भर छाँव और पतझर के प्रतिबिम्ब(सभी काव्य संकलन)आदि ११ हैं। ऐसे ही-बाल गीत सुधा,बाल गीत पीयूष तथा बाल गीत सुमन आदि ७ बाल कविता संग्रह भी हैंl आप रेलवे से स्वैच्छिक सेवानिवृत्त अनुभाग अधिकारी होकर स्वतंत्र लेखन में हैं। आपका बसेरा कोटा(राजस्थान)में हैl

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