कुल पृष्ठ दर्शन : 221

You are currently viewing अमृत,विद्यालय और अकेला चना

अमृत,विद्यालय और अकेला चना

डॉ.अर्चना मिश्रा शुक्ला
कानपुर (उत्तरप्रदेश)
***************************************

संध्या,पप्पी,मंजू और सुधा पास ही के गाँव के उच्च प्राथमिक विद्यालय में पढ़ते थे। चारों एक ही गाँव के थे,इसलिए विद्यालय भी सब साथ में ही जाते थे। बातें करते कब रास्ता पार हो जाता,पता ही नहीं चलता था। इस उमर में संगी-साथी ही सब कुछ होते हैं। कहीं जाना हो सब साथ हो लेते। अगस्त-सितंबर की तेज धूप और संध्या को जोर की प्यास सता रही थी,तभी सुधा बोली प्यास तो मुझे भी लगी है। पप्पी भी प्यासी थी। मंजू बोली प्यास तो मुझे भी लगी है,लेकिन पण्डितन की चक्की से पहले कहीं पानी नही है। जैसे ही वह चक्की के नजदीक पहुँची,दौड़कर अपनी प्यास बुझाने के लिए हैण्डपम्प के पास गई और पप्पी हैण्डपम्प चलाने लगी,पर उससे एक बूँद भी पानी न निकला। पम्प खराब था,इधर चारों का प्यास से हाल बेहाल हो रहा था। आज सबको पानी अमृत-सा जान पड़ता था। तभी पण्डित जी घर से बाहर निकले और चारों बच्चों को देखा। तभी बच्चे बोल पड़े- बाबा जी हमें बहुत जोरों की प्यास लगी है। वह तुरंत ही एक बाल्टी और लोटा में पानी लाए और दे दिया। सबने पानी पीकर अपनी प्यास बुझाई। बाकी बचा पानी संध्या ने फेंक दिया। यह देखकर बाबा जी बोले,अभी कुछ मिनट पहले तुम लोग प्यास बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। तब भी पानी बहा रहे हो,पानी ही जीवन है। इसकी कीमत समझो। पानी न मिलने पर जान भी जा सकती है। चारों बाबा जी की बात सुनकर मन ही मन बुदबुदा रही थी। अभिवादन करके चारों शाला चले गए।
इन चारों की पहला कक्षा तो छूट ही गई थी कि तभी तिवारी दीदी ने कहा,तुम लोग इतनी देर से क्यों आ रहे हो ? बच्चों ने रास्ते वाली सारी बात बताई। फिर क्या था विद्यालय और गाँव की बुराई करते हुए दूसरी शिक्षक से बात करने लगी,और यह घंटा भी खाली ही निकल गया। पढ़ाई तो जैसे-तैसे ही टरक रही थी,लेकिन पटेल सर समय के पक्के थे। घंटी बजते ही कक्षा में पहुंचे। हाजिरी भरी और बच्चों की गणित और विज्ञान की कक्षा शुरू कर दी। अब बच्चे बड़े खुश थे। उनका दुःखी मन कुछ संतोष पा रहा था। तभी मंजू और अन्य बच्चे भी बोल पड़े कि यह मैडम तो सिर्फ फोन पर बातें या गप्प मारा करती है। दूसरे यह अध्यापक हैं,जो हमें अच्छे से पढ़ाते हैं। इनकी शिकायत भी किससे करो, खुद ही आपस में लड़ती रहती हैं। यहाँ पढ़ाई की इतनी बुरी दशा है।
सब अपना कर्तव्य भूले हुए हैं और परिस्थितियों का हवाला देकर अपना काम नहीं करना चाहते। तभी गाँव में सब लोग कहते हैं बेकार ही जा रही हो पढ़ने। सरकारी विद्यालय है। सरकारी नौकरी भर मिल जाए, फिर कोई सुनने वाला नहीं। सब बड़ी खुशी से विद्यालय आते हैं,जब यहाँ बच्चों को सीखने को कुछ मिलता ही नहीं तो उदास होकर बैठ जाते हैं। कुछ तो शाला ही नहीं आते। कुछ बे-मन होकर आ जाते हैं,लेकिन अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। यह तो हम सभी जानते हैं, लेकिन यहाँ एक ऐसे अध्यापक भी हैं,जिन्होंने अकेले भाड़ फोड़ने की प्रतिज्ञा ले रखी है कि मैं इस विद्यालय और बच्चों का अकेले दम उद्धार करके ही रहूँगा और एक अध्यापक का फर्ज निभाऊँगा। देश के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाहन करूंगा। इसी आस में आज भी बच्चे दौड़े-भागे विद्यालय जा रहे हैं कि, अमुक मास्टर साहब तो आएंगें ही।

Leave a Reply