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धोनी को लिखे प्रमं के पत्र पर बवाल और भाषाई राजनीतिक चाल

हिंदी से जुड़े कई मंचों पर एक चर्चा हो रही है कि,प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने महेंद्र सिंह धोनी को जो पत्र लिखा है वह अंग्रेजी में क्यों लिखा गया है,हिंदी में क्यों नहीं ? यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाता है,क्योंकि प्रधानमंत्री सामान्य वार्तालाप हिंदी में करते हैं,उनकी हिंदी भी अच्छी है,जबकि अंग्रेजी सामान्य है। सबसे बड़ी बात यह है कि धोनी हिंदीभाषी हैं,अच्छी हिंदी बोल और समझ लेते हैं,तो पत्र अंग्रेजी में क्यों ? जो पत्र सामाजिक माध्यमों में घूम रहा है,वह अंग्रेजी में है और प्रथम दृष्टया यह किसी भी लिहाज़ से प्रधानमंत्री की वाक शैली जैसा नहीं है, बल्कि किसी अधिकारी द्वारा तैयार किया हुआ है।
उधर,कन्नीमोई ने हंगामा किया हुआ है कि अप्रत्यक्ष रूप से हिंदी थोपी
जा रही है और हमेशा की तरह पी. चिदंबरम और शशि थरूर भी इस भभक में अपने हाथ सेंक रहे हैं। हालांकि,मसला इतना बड़ा नहीं था पर उनके द्वारा सीआईएसएफ के बाद आयुष मंत्रालय को भी चपेट में ले लिया गया है।
राजनीतिक विवशताएं क्या-क्या नहीं करवाती। प्रधानमंत्री और उनके सलाहकार जानते हैं कि,धोनी एक अंतर्राष्ट्रीय हस्ती है और विशेषकर
चेन्नई सुपर किंग्स के कप्तान भी। अपने पत्र का प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने के लिए उन्होंने अंग्रेजी चुनी। कुछ लोगों का मानना है कि,चूंकि तमिलनाडु में २०२१ में विधानसभा चुनाव हैं और धोनी वहां की क्रिकेट टीम के कप्तान,अतः तमिलनाडु चुनावों को ध्यान में रखकर हिंदी में पत्र लिख कर वे वहां दूर से भी कोई ख़तरा मोल नहीं लेना चाहते थे। जो भी हो,दुर्भाग्यवश उनके हिंदी प्रशंसकों को इससे निराशा ही मिली।
वही हाल कन्नीमोई,चिदंबरम और शशि थरूर का है। चुनाव के मद्देनजर वहां तमिल विरुद्ध हिंदी भाषा को एक महत्त्वपूर्ण चुनावी मुद्दा बनाकर भाजपा और उनके सहयोगी दल एआईडीएमके को जनता की नज़रों में स्थानीय लोगों का दुश्मन बताया जा सकता है। जनता के हितों से किसी का कोई लेना-देना नहीं है।मैं कई तमिल मित्रों को जानता हूँ,जो कहते हैं कि तमिलनाडु में हिंदी के पक्ष में अनेक लोग और संस्थाएं हैं, लेकिन राजनेताओं ने भाषा के प्रश्न को स्थानीय लोगों की अस्मिता से जोड़कर ऐसे लोगों की आवाज़ को दबाया हुआ है।
हिंदी के पक्षधर राजनेता पूर्णतः सापेक्षता में विश्वास रखते हैं। यदि हिंदीभाषियों से समर्थन चाहिए,तो वे हिंदी के कसीदे पढ़ने लगते हैं। जब दूसरे भाषा-भाषियों से समर्थन चाहिए, उनका हिंदी के प्रति समर्पण न जाने कहां गायब हो जाता है। दूसरी ओर हिंदी विरोधी राजनीति का दायरा जिन क्षेत्रों में है,वहां स्थानीय दलों ने जनता को भरमाया हुआ है। चूंकि,उनके सरोकारों को हिंदी बहुल क्षेत्रों के समर्थन से कोई फ़र्क नहीं पड़ता,अतः वे हिंदी के विरुद्ध बोलने से चूकते नहीं हैं। कष्ट तब होता है जब वे अंग्रेजी को हिंदी के विरुद्ध खड़ा करते हैं। यह हथियार क्यों कारगर साबित होता है,इसके मनोविज्ञान में जाना होगा । सोचने की बात यह है कि अगर स्थानीय भाषा को हिंदी के विरुद्ध खड़ा करेंगे,तो चूंकि वह स्थानीय भाषा आमजन की भाषा है,अतः उन्हें इकट्ठा करके विरोध करने में मेहनत करनी पड़ेगी,आंदोलन करना पड़ेगा। उससे अराजकता का माहौल पैदा हो सकता है,जिससे आम व्यक्ति जो रोज कमाने जाता है और रोज खाता है,वह इस सबसे परेशान होकर स्वयं को इससे अलग कर लेगा,लेकिन अंग्रेजी को विकल्प कहते हुए,संचार माध्यमों में विरोध करेंगे तो बहुत से तथाकथित विशेषज्ञ मैदान में आ जाएंगे। ये लोग हिंदी का डर स्थानीय भाषाओं को दिखाएंगे और पैरवी अंग्रेजी की करेंगे। क्या वाहियात आकलन है ?
यही कारण है कि हमने जब भी स्थानीय स्तर पर कोई आंदोलन देखा है,वह मूलतः हिंदी विरोधी होता है,न कि स्थानीय भाषा के पक्ष में। वे यह भी जानते हैं कि उनके दुराग्रह से स्थानीय भाषा पीछे जा रही है और अंग्रेजी दिन ब दिन परिपुष्ट हो रही है,लेकिन निजी-स्वार्थवश वे इस तरह के नाटक करते रहते हैं।
कई विचारक मानते हैं कि एक सशक्त केन्द्र सरकार हिंदी को राष्ट्रभाषा का गौरव प्रदान कर सकती है। इस तरह के विचारों का स्वागत करता हूँ,पर मेरी विचारधारा में सबसे पहले देश की सभी मान्य भाषाओं को उनका समुचित सम्मान तो मिले। स्थानीय भाषाओं के पक्षधर जब तक यह नहीं समझेंगे कि उनकी भाषा को अंग्रेजी से खतरा है, हिंदी से नहीं,तब तक कन्नीमोई, चिदंबरम,या शशि थरूर जैसे नेता जनतंत्र के नाम पर जनता को भाषाई भ्रम में डालते रहेंगे। केन्द्र में सरकार किसी की भी हो,वे भी मूकदर्शक रह कर राजनीतिक विवशतावश उनके विचारों के विरुद्ध कोई पहल नहीं करेंगे। जन-भावनाओं को प्रभावित करनेवाले भारतीय भाषाओं के प्रेमी समूह एक साथ आगे आएं,यह समय की आवश्यकता है,जो शनैः-शनैः अब हर क्षेत्र में सक्रिय होने लगे हैं। समय लगेगा,पर परिणाम सकारात्मक होंगेl ध्यान रहे हमें किसी भाषा का विरोध नहीं करना है,बल्कि अपनी स्थानीय भाषाओं को उनका योग्य सम्मान दिलाना है।

                        -रविदत्त गौड़

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)