निचुड़ गया मन
विजयलक्ष्मी विभा इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)************************************ बूंद-बूंद चुनर-सा निचुड़ गया मन,तार-तार सिकुड़ गया मानवी वसन।सूख-सूख टूट गये,चाहों के तानेइधर-उधर फैल गये,सपनों के बानेअसहनीय हुई उसे धूप की तपन।बूंद-बूंद चुनर-सा…॥ उड़-उड़ के रंग हुआ,ऐसा चितकबरादिखता ज्यों सावन का,अम्बर में बदरानये-नये जीवन को लग गया व्यसन।बूंद-बूंद चुनर-सा…॥ गीतों के मैंने,पैबन्द कुछ लगायेफटी हुई चुनर न,पूरी फट पायेजोड़-जोड़ छिने सकल बीते कुछ … Read more