कुल पृष्ठ दर्शन : 564

You are currently viewing गुरुनानक देव:विश्व दृष्टि और लोक व्याप्ति

गुरुनानक देव:विश्व दृष्टि और लोक व्याप्ति

प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा
उज्जैन (मध्यप्रदेश)
****************************************************************
भारतीय सन्त परम्परा में गुरुनानक देव जी (१५ अप्रैल १४५९-२२ सितम्बर १५३९) का स्थान अप्रतिम है। उनका प्रकाश पर्व कार्तिक पूर्णिमा को मनाया जाता है,यद्यपि उनका जन्म १५ अप्रैल को हुआ था। अनेक सदियों से सांस्कृतिक,सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त तमस को निस्तेज कर उन्होंने उजाला फैलाया था। कहा जाता है, ‘सतगुरु नानक प्रगट्या,मिटी धुंध जग चानन होया,कलतारण गुरु नानक आया,ज्यों कर सूरज निकलया,तारे छपे अंधेर पोलावा।‘ उन्होंने न केवल व्यापक लोक समुदाय को प्रभावित किया,वरन उसे नए ढंग से जीने और दुनिया को देखने का नजरिया दिया।
तलवंडी,वर्तमान ननकाना साहिब,लाहौर में जन्मे गुरु जी ने अल्प वय में संस्कृत,फ़ारसी और बहीखाता लिखने की शिक्षा प्राप्त की, लेकिन जल्द ही वे पारम्परिक लौकिक शिक्षा से परे अलौकिक शिक्षा की ओर प्रवृत्त हुए। उन्होंने कहा कि मुझे सांसारिक पढ़ाई की अपेक्षा परमात्मा की पढ़ाई अधिक आनन्ददायिनी प्रतीत होती है। यह कहकर वाणी का उच्चारण किया,-‘मोह को जलाकर (उसे) घिसकर स्याही बनाओ,बुद्धि को ही श्रेष्ठ काग़ज़ बनाओ,प्रेम की क़लम बनाओ और चित्त को लेखक। गुरु से पूछ कर विचारपूर्वक लिखो (कि उस परमात्मा का) न तो अन्त है और न सीमा है।‘

जालि मोह घसि मसु करि,मति कागदु करि सारू।
भाउ क़लम करि चितु लेखारी,गुरु पुछि लिखु बीचारू।
लिखु नाम सलाह लिखु लिखु अन्त न पारावारू”। (श्री गुरु ग्रन्थ, सिरी रागु,महला १,पृष्ठ १६)

९ वर्ष की अवस्था में उनका यज्ञोपवित संस्कार हुआ था,लेकिन उनके लिए यज्ञोपवित बाह्याचारों का अंग या महज औपचारिक नहीं है,उसका तात्पर्य है। वे पण्डित से कहते हैं-दया कपास हो,सन्तोष सूत हो,संयम गाँठ हो,(और) सत्य उस जनेउ की पूरन हो। यही जीव के लिए (आध्यात्मिक) जनेऊ है। ऐ पाण्डे यदि इस प्रकार का जनेऊ तुम्हारे पास हो,तो मेरे गले में पहना दो,यह जनेऊ न तो टूटता है,न इसमें मैल लगता है,न यह जलता है और न यह खोता ही है:

दइया कपाह सन्तोखु सृतु गंढी सतु बटु,एहु जनेऊ जी अका हई ता पाडे धतु॥
ना एहु तुटै न मलु लगै ना एहु जले न जाए॥ (श्री गुरु ग्रन्थ साहिब, आसा की वार,महला १)

नानक देव जी के यहाँ गुरु तत्त्व की महिमा अमित है,उसका जितना बखान किया जाए कम है:
नानक गुरु समानि तीरथु नहीं कोई,साचे गुरु गोपाल।
या फिर
बिन सतगुरु सेवे जोग न होई। बिन सतगुरु भेटे मुक्ति न होई।
बिन सतगुरु भेटे नाम पाइआ न जाई। बिन सतगुरु भेटे महा दुःख पाई।
बिन सतगुरु भेटे महा गरबि गुबारि। नानक बिन गुरु मुआ जन्म हारि।

गुरु नानक देव जी परमात्म तत्व के साक्षात्कार के लिए भटकते हुए लोगों को सही राह दिखाते हैं। उनका मार्ग पलायन और निष्कर्म से परे गहरे दायित्वबोध का मार्ग है। संन्यास लेने भर से मुक्ति नहीं मिलती,वह तो स्वभाव की प्राप्ति से सम्भव है। स्वयं को पहचाने बगैर भ्रम की काई नहीं मिटेगी:
काहे रे बन खोजन जाई।
सरब निवासी सदा अलेपा,तोही संग समाई॥१॥
पुष्प मध्य ज्यों बास बसत है,मुकर माहि जस छाई।
तैसे ही हरि बसै निरंतर, घट ही खोजौ भाई॥२॥
बाहर भीतर एकै जानों, यह गुरु ग्यान बताई।
जन नानक बिन आपा चीन्हे, मिटै न भ्रम की काई॥३॥

गुरु नानक के जीवन में उदासियों (यात्राओं) का विशेष महत्व है,जो एशिया के बहुत बड़े भूभाग के बाशिंदों को धर्म,जाति,सम्प्रदाय आदि के भेद से ऊपर उठाकर समन्वित करने का अविस्मरणीय उपक्रम सिद्ध हुई। उनकी उदासियाँ असम से लेकर मक्का-मदीना तक और सुमेरु से लेकर रामेश्वरम तक व्यापक क्षेत्रों को जोड़ने का सार्थक प्रयास सिद्ध हुई। पहली ‘उदासी’ (विचरण यात्रा) अक्तूबर , १५०७ ई में १५१५ ई तक रही। इस यात्रा में उन्होंने हरिद्वार,अयोध्या,प्रयाग,काशी,गया,पटना,असम, जगन्नाथपुरी,रामेश्वर,सोमनाथ,द्वारिका,नर्मदातट, बीकानेर,पुष्कर तीर्थ,दिल्ली,पानीपत,कुरुक्षेत्र, मुल्तान,लाहौर आदि स्थानों में भ्रमण किया। इस दौरान उन्होंने कई लोगों का हृदय परिवर्तन किया। राह चलते ठगों को साधु बनाया,वेश्याओं का अन्त:करण शुद्ध कर नाम का दान दिया, कर्मकाण्डियों को बाह्याडम्बरों से निकालकर रागात्मिकता भक्ति में लगाया। अभिमानियों का अभिमान दूर कर उन्हें मानवता का पाठ पढ़ाया। यात्रा से लौटकर वे २ वर्ष तक अपने माता-पिता के साथ रहे। दूसरी ‘उदासी’ १५१७ ई से १५१८ ई तक रही। इसमें उन्होंने ऐमनाबाद,सियालकोट,सुमेरु पर्वत आदि की यात्रा की और अन्त में करतारपुर पहुँचे। तीसरी ‘उदासी’ १५१८ ई से लगभग ३ वर्ष की रही। इसमें उन्होंने रियासत बहावलपुर, साधुबेला(सिन्धु),मक्का,मदीना,बगदाद,बल्ख बुखारा,काबुल,कन्धार,ऐमनाबाद आदि स्थानों की यात्रा की। १५२१ ई में ऐमराबाद पर बाबर का आक्रमण गुरु जी ने स्वयं अपनी आँखों से देखा। अपनी यात्राओं को समाप्त कर वे करतारपुर में बस गये और १५२१ ई से १५३९ ई तक वहीं रहे।
गुरु नानक देव जी की वाणी विपुल और व्यापक है। उनकी कई महत्वपूर्ण रचनाएँ गुरु ग्रंथ साहब में संग्रहित हैं। अध्ययन सुविधा की दृष्टि से उनकी प्रामाणिक वाणी चार भागों में बांटी गई हैं:
वृहदाकार रचनाएं:इसमें जपुजी,ओंकार,सिध गोसटि ,पट्टी,बारहमाह आदि प्रमुख़ हैं।
लघुकाय रचनाएं:पहरे, सोदर,अलाहिणया, आरती,कुचजी,सुचजी।
वारकाव्य:आसा की वार,मलार की वार, माझ की वार (तीन रागों में निबद्ध पंजाब का विशिष्ट काव्य रूप वार)।
फुटकल रचनाएं:चौपदे,अष्टपदियाँ,सोलहे, छंद,श्लोक आदि।

गुरु नानक जी की काव्यानुभूति गहरे मूल्य बोध और अध्यात्मपरक दृष्टिकोण पर आधारित है। उनकी वाणी के केन्द्र में गुरु-भक्ति,नाम-स्मरण,अद्वैतवाद,परमात्मा की व्यापकता तथा अखिल विश्व के प्रति उत्कट अनुराग अंतर्निहित है। वे मानते हैं कि नाम जप के बिना मुक्ति सम्भव नहीं है:
राम सुमिर,राम सुमिर, एही तेरो काज है॥
माया कौ संग त्याग,हरिजू की सरन लाग।
जगत सुख मान मिथ्या,झूठौ सब साज है॥१॥
सुपने ज्यों धन पिछान, काहे पर करत मान।
बारू की भीत तैसें, बसुधा कौ राज है॥२॥
नानक जन कहत बात, बिनसि जैहै तेरो गात।
छिन छिन करि गयौ काल्ह तैसे जात आज है ॥३॥
यह नाम-जप ऊपरी तौर पर बेहद आसान लगता है,किंतु वह ऐसा है नहीं। गुरु नानक जीवन का पर्याय बनाने में उसकी अर्थवत्ता मानते हैं,यदि मैं नाम का जप करूं तो जिऊँ, यदि भूल जाऊं तो मर जाऊं। उस सच्चे के नाम का जप बड़ा कठिन है। यदि सच्चे नाम की भूख लग उठे तो खाकर तृप्त हो जाने पर भूख की व्याकुलता चली जाती है। ऐसे में हे मेरी माता उसे मैं कैसे भुला दूं ? स्वामी वह सच्चा है,उसका नाम सच्चा है। उस सच्चे नाम की तिल मात्र भी महिमा बखान-बखान कर मनुष्य थक गए,तब भी उसका मोल नहीं लगा सके। यदि सारे ही मनुष्य एकसाथ मिलकर उसके वर्णन का यत्न करें,तब भी उसकी बड़ाई न तो उससे बढ़ेगी और न घटेगी। वह ना मरता है और ना उसके लिए शोक होता है। वह देता ही रहता है नित्य सबको आहार। कभी चुकता नहीं देने से।

आखा जीवा विसरै मरि जाउ॥ आखणि अउखा साचा नाउ।
साचे नाम की लागै भूख॥ उतु भूखै खाइ चलीअहि दूख॥
सो किउ विसरै मेरी माइ॥ साचा साहिबु साचै नाइ॥
साचे नाम की तिलुवडिआई॥ आखि थके कीमति नहीं पाई॥
जे सभि मिलिकै आखण पाहि॥ बड़ा न होवै घाटि न जाइ॥
ना ओहु मरै न होवै सोगु।। देदा रहै न चुकै भोगु॥(आसा)

साहिब सत्य हैं और उनका नाम भी उतना ही सत्य है। अलग अलग नाम होकर भी वह एक ही है। सबके प्रति उसकी दृष्टि भी समान है:

साचा साहिबु साचु नाइ भाखिआ भाउ अपारू।
आखहि मंगहि देहि देहि दाति करे दातारू।
प्रभु सत्य है एवं उसका नाम सत्य है। अलग अलग विचारों एवं भावों तथा बोलियों में उसे भिन्न-भिन्न नाम दिए गए हैं। प्रत्येक जीव उससे दया की भीख माँगता है तथा सब जीव उसकी कृपा का अधिकारी है और वह भी हमें अपने कर्मों के मुताबिक अपनी दया प्रदान करता है।
फेरि कि अगै रखीऐ जितु दिसै दरबारू।
मुहौ कि बोलणु बोलीएै जितु सुणि धरे पिआरू।
उनकी दृष्टि में,हमें यह ज्ञात नहीं है कि उसे क्या अर्पण किया जाए,जिससे वह हमें दर्शन दे। हम कैसे उसे गाएँ,याद करें,गुणगान करें कि वह प्रसन्न होकर हमें अपनी कृपा से सराबोर करे और अपना प्रेम हमें सुलभ कर दे।

भक्ति तत्त्व से जुड़ी जिज्ञासा का समाधान करते हुए नारद ने उसे परमप्रेमस्वरूप माना है-
अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः
सा तस्मिङ्न् परमप्रेमरूपा।
अमृतस्वरूपा च।
यल्लब्धवा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति।

इस प्रेमस्वरूपा भक्ति प्राप्त होने पर किसी भी प्रकार की इच्छा,आसक्ति,शोक,द्वेष, विषय भोगों का उत्साह नहीं रहता है। गुरु नानक देव जी की भक्ति इसी प्रकार की प्रेमस्वरूपाभक्ति है। वे परमात्मा से प्रेम भक्ति के अनुग्रह के अभिलाषी हैं-
प्रभु मेरे प्रीतम प्रान पियारे।
प्रेम-भगति निज नाम दीजिये, द्याल अनुग्रह धारे॥
सुमिरौं चरन तिहारे प्रीतम, हृदै तिहारी आसा।
संत जनाँपै करौं बेनती,मन दरसन कौ प्यासा॥
बिछुरत मरन,जीवन हरि मिलते,जनको दरसन दीजै।
नाम अधार, जीवन-धन नानक प्रभु मेरे किरपा कीजै॥

गुरु नानक देव जी की विश्व दृष्टि अत्यंत व्यापक और स्वानुभूति पर आधारित है। उनकी वाणी में सृष्टि की विराट आरती का दृश्य देखते ही बनता है:

राग धनासरी महला१
गगन मै थाल रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती॥
धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती॥१॥
कैसी आरती होइ॥ भवखंडना तेरी आरती ॥ अनहता सबद वाजन्त भेरी॥१॥
सहस तव नैन नन नैन हहि तोहि कउ सहस मूरति नना एकु तोही॥
सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु सहस तव गंध इव चलत मोही॥२॥
सभ महि जोति जोति है सोइ ॥
तिसदै चानणि सभ महि चानणु होइ ॥
गुर साखी जोति परगटु होइ॥
जो तिसु भावै सु आरती होइ॥३॥
हरि चरण कवल मकरंद लोभित मनो अनदिनो मोहि आही पिआसा॥
कृपाजलु देहि नानक सारिंग कउ होइ जाते तेरै नाइ वासा॥४॥

यह समूचा आकाश मंडल थाल है। सूर्य और चंद्र उसके दीपक हैं और उसमें तारों के मोती जड़े हुए हैं। मलयानिल तेरी धूप है, स्वयं पवन तुझे चँवर डुलाता है। हे ज्योति स्वरूप सारे ही कानन तेरे फूल हैं। भव खंडन (जन्म- मरण के चक्र से मुक्ति दिलाने वाले) यह तेरी कैसी आरती है! अनहद नाद की तुरही बज रही है यहां पर। तेरी सहस्रों आँखें हैं तब भी तु बिना आँख का है। तेरे सहस्रों रूप हैं तब भी तू बिना रूप का है। तेरे सहस्रों निर्मल चरण हैं तब भी बिना चरण का है। तेरी सहस्रों नासिकाएँ हैं,तब भी तू बिना घ्राण का है। मैं तो मुग्ध हूँ तेरी इस विराट लीला पर। सब तेरी ही ज्योति से ज्योति पा रहे हैं। तेरे ही आलोक से सब प्रकाशित हैं। गुरु के उपदेश से यह ज्योति प्रकट होती है जो तुझे प्रिय लगे वही तेरी आरती है। तेरे चरणारविन्दों के मकरंद से मेरा मन मधुकर लुब्ध हो गया है-सदैव मुझे उस मकरंद की प्यास लगी रहती है।
उनकी स्पष्ट मान्यता है कि अच्छे-बुरे कर्मों से यह शरीर बदल जाता है-मोक्ष नहीं मिलता है। मुक्ति तो केवल प्रभु कृपा से संभव है।

करमी आवै कपड़ा नदरी मोखु दुआरू।
नानक एवै जाणीऐ सभु आपे सचिआरू।
इसीलिए हमें अपने समस्त भ्रमों का नाश करके ईश्वर तत्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। हमें प्रभु के सर्वत्रता एवं सर्वव्यापी सत्ता में विश्वास करना चाहिये। एक बार जब परमात्म तत्त्व से साक्षात्कार होता है तब सुख-दु:ख,राग-द्वेष और सभी प्रकार के भेद मिट जाते हैं:

जो नर दुखमें दुख नहिं मानै।
सुख-सनेह अरु भय नहिं जाके,कंचन माटी जानै॥
नहिं निंदा,नहिं अस्तुति जाके, लोभ-मोह-अभिमाना।
हरष सोकतें रहै नियारो,नाहिं मान-अपमाना॥
आसा-मनसा सकल त्यागिकें, जगतें रहै निरासा।
काम-क्रोध जेहि परसै नाहिन,तेहि घट ब्रह्म निवासा॥
गुरु किरपा जेहिं नरपै कीन्ही,तिन्ह यह जुगति पिछानी।
नानक लीन भयो गोबिंद सों,ज्यों पानी सँग पानी॥

ईश्वरानुभूति और प्रकृति के सरस अंकन की दृष्टि से उनका बारहमाहाँ अत्यंत महत्वपूर्ण है। परमात्म रूप पति के प्रति जीवात्मा रूप स्त्री की मिलनोत्कण्ठा इस कृति को वैशिष्ट्य देती है। वियोग की तड़फ चैत्र से शुरू होती है और फागुन में समाप्त। ‘तखारी’ राग के बारहमाहाँ (बारहमासा) में प्रत्येक मास का तरल और हृदयग्राही चित्रण है। चैत्र में सारा वन प्रफुल्लित हो जाता है,पुष्पों पर भ्रमरों का गुंजन बड़ा ही सुहावना लगता है। वैशाख में शाखाएँ अनेक वेश धारण करती हैं। इसी प्रकार ज्येष्ठ-आषाढ़ की तपती धरती,सावन-भादों की रिमझिम,दादुर,मोर,कोयलों की पुकार,दामिनी की दमक,सर्पों एवं मच्छरों की उपस्थिति का सरस वर्णन है। प्रत्येक ऋतु की विलक्षणता की ओर संकेत किया गया है।
माहु जेठु भला प्रीतम किउ बिसरै॥
थल तापहि सर भार सा धन बिनउ करै॥

नानक तिना बसंतु है जिनि घरि वसिआ कंतु।
जिन के कंत दिसापुरी से अहनिसि फिरहि जलंत।।

वसंत का पर्व केवल उन्हीं जीव रूपी स्त्रियों के लिये आनंदमय है,जिनका पति यानी परमात्मा उनके हृदय रूप घर में वास करता है। जिन जीव रूपी स्त्रियों का पति परमेश्वर उनके हृदय से बाहर है,वे दिन-रात विरह की अग्नि में जलती रहती हैं।
उन्होंने प्रसिद्ध सूफी संत शेख फरीद का भी सत्संग किया था। उनकी भाषा पंजाबी मिश्रित ब्रजी और हिंदी है। उनकी वाणी बहते नीर के समान है,जिसमें संस्कृत,पंजाबी,मुल्तानी,सिंधी,ब्रजी,अरबी,फ़ारसी के शब्दों की सहज आमद होती है। उनकी वाणी का प्रभाव इतना गहरा है कि सिख पंथ के सभी गुरुओं ने अपनी रचनाओं में स्वयं नाम न देकर लेखक के स्थान पर नानक नाम का ही प्रयोग किया है। उनकी वाणी में शान्त एवं शृंगार रस की प्रधानता है। इन दोनों रसों के अतिरिक्त करुण,भयानक,वीर,रौद्र, अद्भुत,हास्य और वीभत्स रस भी मिलते हैं। उनकी कविता में वैसे तो सभी प्रसिद्ध अलंकार मिल जाते हैं,किन्तु उपमा और रूपक की प्रधानता है। विशेष तौर पर लोक जीवन से जुड़े सहज उपमानों के प्रयोग देखते ही बनते हैं। वाणी में कहीं-कहीं अन्योक्तियाँ बड़ी सुन्दर बन पड़ी हैं। संगीत उनकी रचनात्मक शक्ति का पर्याय है। उन्होंने अपनी वाणी में उन्नीस रागों के प्रयोग किए हैं,जैसे-सिरी,माझ, गऊड़ी,आसा,गूजरी,बडहंस,सोरठि,धनासरी,तिलंग, सही,बिलावल,रामकली,मारू,तुखारी,भरेउ,वसन्त, सारंग,मला,प्रभाती। आज भी परिशुद्धता और सरसता के साथ उनकी शबद वाणी के गायन की परम्परा जीवित है।
स्पष्ट है कि,गुरु नानक देव जी की विश्व दृष्टि अत्यंत व्यापक है, जिसमें चराचर जगत से तादात्म्य का भाव अंतर्निहित है। उन्होंने शाश्वत मूल्य दृष्टि को केन्द्र में रखते हुए प्राणी मात्र के प्रति प्रेम और सद्भाव का संदेश दिया। उनका जीवन और कृतित्व एक और अखण्ड मानवता के प्रति समर्पित रहा है। जात पात में बंटे हुए समाज को उन्होंने एक संगत और एक पंगत में ला खड़ा किया। उनकी वाणी न केवल अपने दौर में,वरन आज भी व्यापक लोक समुदाय को आंदोलित करने में समर्थ सिद्ध हो रही है।

परिचय-आचार्य एवं विभागाध्यक्ष (हिंदी अध्ययनशाला कुलानुशासक,विक्रम विश्वविद्यालय) के रुप में कार्यरत प्रो. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का निवास उज्जैन (म.प्र) में है। आप हिंदी भाषा के लिए सक्रियता से प्रयासरत हैं।

Leave a Reply