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मातृभाषा की महत्ता निर्विवाद

प्रो.डॉ. शरद नारायण खरे
मंडला(मध्यप्रदेश)

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अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस स्पर्धा विशेष….

इस धरा पर आने के उपरांत मानव जो प्रथम भाषा सीखता अपनी माता से सीखता है,उसे उसकी मातृभाषा कहते हैं। मातृभाषा,किसी भी व्यक्ति की सामाजिक एवं भाषाई पहचान होती है। शिक्षा के माध्यम के सन्दर्भ में गांधी जी के विचार स्पष्ट थे। वे अंग्रेजी भाषा को लादने को विद्यार्थी समाज के प्रति ‘कपटपूर्ण कृति’ समझते थे। उनका मानना था कि भारत में ९० प्रतिशत व्यक्ति १४ वर्ष की आयु तक ही पढ़ते हैं,अत: मातृभाषा में ही अधिक से अधिक ज्ञान होना चाहिए। उन्होंने १९०९ ई. में ‘स्वराज्य’ में अपने विचार प्रकट किए हैं। उनके अनुसार हजारों व्यक्तियों को अंग्रेजी सिखलाना उन्हें गुलाम बनाना है। गांधी जी विदेशी माध्यम के कटु विरोधी थे। उनका मानना था कि विदेशी माध्यम बच्चों पर अनावश्यक दबाव डालने,रटने और नकल करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करता है तथा उनमें मौलिकता का अभाव पैदा करता है। यह देश के बच्चों को अपने ही घर में विदेशी बना देता है। उनका कथन था कि-‘गाय का दूध भी माँ का दूध नहीं हो सकता।’
गांधीजी देश की एकता के लिए यह आवश्यक मानते थे कि अंग्रेजी का प्रभुत्व शीघ्र समाप्त होना चाहिए। वे अंग्रेजी के प्रयोग से देश की एकता के तर्क को बेहूदा मानते थे। सच्ची बात तो यही है कि भारत विभाजन का कार्य अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों की ही देन है। गांधी जी ने कहा था-‘यह समस्या १९३८ ई. में हल हो जानी चाहिए थी,अथवा १९४७ ई. में तो अवश्य ही हो जानी चाहिए थी।’ गांधी जी ने न केवल माध्यम के रूप में अंग्रेजी भाषा का मुखर विरोध किया,बल्कि राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर भी राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता को प्रकट करने वाले विचार प्रकट किए। उन्होंने कहा था-‘यदि स्वराज्य अंग्रेजी बोलने वाले भारतीयों को और उन्हीं के लिए होने वाला हो तो नि:संदेह अंग्रेजी ही राष्ट्रभाषा होगी,लेकिन अगर स्वराज्य करोड़ों भूखों मरने वालों,करोड़ों निरक्षरों,निरक्षर बहनों और पिछड़ों व अत्यंजों का हो और इन सबके लिए होने वाला हो, तो हिंदी ही एकमात्र राष्ट्रभाषा हो सकती है।
विदेश में रहने वाले बच्चे जो अपने घर में परिवार वालों के साथ मातृभाषा में बात करते हैं और बाहर दूसरी भाषा बोलते हैं,वे ज्यादा बुद्धिमान होते हैं। एक नए अध्ययन से यह जानकारी मिली है। ब्रिटेन के यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग के शोधकर्ताओं ने शोध में पाया कि जो बच्चे शाला में अलग भाषा बोलते हैं और परिवार वालों के साथ घर में अलग भाषा का इस्तेमाल करते हैं,वे बुद्धिमत्ता जांच में उन बच्चों के मुकाबले अच्छे अंक लाए जो सिर्फ गैर मातृभाषा जानते हैं।
वास्तव में,दुनिया में मौलिकता का ही महत्व है।
मौलिक लेखन,चिंतन या रचनात्मकता को दुनिया भर में नोट किया जाता है। दुनिया में आज भी भारत की पहचान यहां की भाषा में लिखित उपनिषद,ब्रह्मसूत्र,योगसूत्र,रामायण,महाभारत, नाट्यशास्त्र आदि से है,जो मौलिक रचनाएँ हैं। नीरद चौधरी,राजा राव,खुशवन्त सिंह जैसे लेखकों से नहीं। समाज की रचनात्मकता और मौलिकता अनिवार्यत: उसकी अपनी भाषा से जुड़ी होती है।
दुनिया में मौलिकता का ही महत्व है,माध्यम का नहीं। इसलिए यदि स्वतंत्र भारत में मौलिक चिन्तन, लेखन का ह्रास होता गया तो उसका कारण ‘अंग्रेजी का बोझ’ है। मौलिक लेखन,चिन्तन विदेशी भाषा में प्रायः असंभव है। कम से कम तब तक,जब तक ऑस्ट्रेलिया,अमेरिका की मूल सभ्यता की तरह भारत सांस्कृतिक रूप से पूर्णत: नष्ट नहीं हो जाता और अंग्रेजी यहाँ सबकी एकमात्र भाषा नहीं बन जाती। तब तक भारतीय बुद्धिजीवी अंग्रेजी में कुछ भी क्यों न बोलते रहें,वह वैसी ही यूरोपीय जूठन की जुगाली होगी,जिसकी बाहर पूछ नहीं हो सकती।
यथार्थ यह है कि हमें अपनी मातृभाषा चाहे वह कोई भी भाषा हो,वह हमें आंतरिक चेतना,नव सोच,नव दृष्टि,सांस्कृतिक प्रगति व संपन्नता प्रदान करती है। कमाल पाशा ने तुर्की व बिस्मार्क ने जर्मन,लेनिन ने रूसी,माओत्सेतुंग ने चीनी को जिस प्रकार पल्लवित-पोषित कर उत्थान अर्जित किया, वह इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठों पर दर्ज़ है। नि:संदेह मातृभाषा का महत्व निर्विवाद है।

परिचय-प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे का वर्तमान बसेरा मंडला(मप्र) में है,जबकि स्थायी निवास ज़िला-अशोक नगर में हैL आपका जन्म १९६१ में २५ सितम्बर को ग्राम प्राणपुर(चन्देरी,ज़िला-अशोक नगर, मप्र)में हुआ हैL एम.ए.(इतिहास,प्रावीण्यताधारी), एल-एल.बी सहित पी-एच.डी.(इतिहास)तक शिक्षित डॉ. खरे शासकीय सेवा (प्राध्यापक व विभागाध्यक्ष)में हैंL करीब चार दशकों में देश के पांच सौ से अधिक प्रकाशनों व विशेषांकों में दस हज़ार से अधिक रचनाएं प्रकाशित हुई हैंL गद्य-पद्य में कुल १७ कृतियां आपके खाते में हैंL साहित्यिक गतिविधि देखें तो आपकी रचनाओं का रेडियो(३८ बार), भोपाल दूरदर्शन (६ बार)सहित कई टी.वी. चैनल से प्रसारण हुआ है। ९ कृतियों व ८ पत्रिकाओं(विशेषांकों)का सम्पादन कर चुके डॉ. खरे सुपरिचित मंचीय हास्य-व्यंग्य  कवि तथा संयोजक,संचालक के साथ ही शोध निदेशक,विषय विशेषज्ञ और कई महाविद्यालयों में अध्ययन मंडल के सदस्य रहे हैं। आप एम.ए. की पुस्तकों के लेखक के साथ ही १२५ से अधिक कृतियों में प्राक्कथन -भूमिका का लेखन तथा २५० से अधिक कृतियों की समीक्षा का लेखन कर चुके हैंL  राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में १५० से अधिक शोध पत्रों की प्रस्तुति एवं सम्मेलनों-समारोहों में ३०० से ज्यादा व्याख्यान आदि भी आपके नाम है। सम्मान-अलंकरण-प्रशस्ति पत्र के निमित्त लगभग सभी राज्यों में ६०० से अधिक सारस्वत सम्मान-अवार्ड-अभिनंदन आपकी उपलब्धि है,जिसमें प्रमुख म.प्र. साहित्य अकादमी का अखिल भारतीय माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार(निबंध-५१० ००)है।

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