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नए वर्ष में हो जीवन,शैली का सार्थक संकल्प

ललित गर्ग
दिल्ली

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नए वर्ष का स्वागत हम इस सोच और संकल्प के साथ करें कि हमें कोरोना महामारी को अलविदा कहते हुए कुछ नया करना है,नया बनना है,नए पदचिह्न स्थापित करने हैं। बीते वर्ष की पीड़ाओं,दर्द एवं प्रकोप पर नजर रखते हुए उन पर नियंत्रण पाने का संकल्प लेना है। हमें यह संकल्प करना और शपथ लेनी है कि आने वाले वर्ष में हम ऐसा कुछ नहीं करेंगे जो हमारे उद्देश्यों,उम्मीदों,उमंगों और आदर्शों पर प्रश्नचिह्न टांग दे। हमें नए साल में अपनी जीवनशैली को नया रंग और आकार देना है।
नववर्ष का स्वागत करते हुए हमारे द्वारा यह कामना करना अस्वाभाविक नहीं थी कि हमारे नष्ट हो गए आदर्श एवं संतुलित जीवन के गौरव को हम फिर से प्राप्त करेंगे और फिर एक बार हमारी जीवन-शैली में पूर्ण भारतीयता का सामंजस्य एवं संतुलन स्थापित होगा। कोरोना के जटिल ९ माह के बीतने एवं नए साल की अगवानी पर हालात का जायजा लें,तो हमारे राष्ट्रीय,सामाजिक,पारिवारिक और वैयक्तिक जीवन में जीवन-मूल्य एवं कार्यक्षमताएं खंड-खंड होते दृष्टिगोचर होते हैं। हर व्यक्ति जीवन को उन्नत बनाना चाहता है, लेकिन उन्नति उस दिन अवरुद्ध होनी शुरु हो जाती है जिस दिन हम अपनी कमियों एवं त्रुटियों पर ध्यान देना बन्द कर देते हैं। रही-सही कसर पूरी कर देती है हमारी त्रुटिपूर्ण जीवनशैली। असंतुलित जीवन है तो आदमी सकारात्मक चिंतन कर नहीं सकता। विचारणीय बात यह है कि किस उद्देश्य से जीवन जीया जाए ? यह प्रश्न हर व्यक्ति के सामने होना चाहिए कि मैं क्यों जी रहा हूँ ? जीवन के उद्देश्य पर विचार करेंगे तो एक नई सच्चाई सामने आएगी और जीवन की शैली का प्रश्न भी सामने आएगा।
हम मनुष्य जीवन की मूल्यवत्ता और उसके तात्पर्य को समझें। वह केवल पदार्थ भोग और सुविधा भोग के लिए नहीं,बल्कि कर्म करते रहने के लिए है। मनुष्य जन्म तो किन्हीं महान उद्देश्यों के लिए हुआ है। प्रयत्न यही रहे कि मूल्य बढ़ता जाए,लेकिन यह बात सदा ध्यान में रहे कि मूल्य जुड़ा हुआ है जीवनमूल्यों के साथ। अच्छी सोच एवं अच्छे उद्देश्यों के साथ। हायमैन रिकओवर ने कहा है कि,अच्छे विचारों को स्वतः ही नहीं अपनाया जाता है। उन्हें पराक्रमयुक्त धैर्य के साथ व्यवहार में लाया जाना चाहिए।
हमारे घर-परिवारों में ऐसे-ऐसे खान-पान,जीने के तौर-तरीके और परिधान घर कर चले हैं कि हमारी संस्कृति और सांस्कृतिक पहचान ही धूमिल हो गई है। अन्तरजाल एवं छोटे-परदे की आँधी ने समूची दुनिया को एक परिवार तो बना दिया है,लेकिन इस संस्कृति में भावना का रिश्ता,खून का रिश्ता या पारिवारिक संबंध जैसा कुछ दिखता ही नहीं है। यही नहीं,इस जीवनशैली से अकर्मण्यता एवं उदासीनता भी पसर रही है। सभी अपने स्वार्थों के दीयों में तेल डालने में लगे हैं। इससे हमारी संयुक्त परिवार,आदर्श जीवनशैली एवं प्रेरक संस्कृति की परम्परा बिखर रही है। ऐसे परिवार ढूँढ़ने पर भी मुश्किल से मिलते हैं,जो संतोष के साथ आनंदित जीवन जीते हैं। अर्थोपार्जन से जुड़ी गतिविधियों का हिसाब तो जीडीपी में आ जाता है,लेकिन देशवासियों का जो समय गैर-आर्थिक गतिविधियों में लगता है, उसका अंदाजा लेने की कोई कोशिश नहीं की गई है। घरेलू महिलाओं के कामकाज एवं श्रम का मूल्यांकन कभी होता ही नहीं,यदि ऐसा आकलन हो तो जीडीपी में उनका योगदान कम नहीं है।
जन्मदिवस पर केक काटने,मोमबत्तियाँ जलाने और बुझाने की जगह अब हम दीपक कोरोना महामारी को भगानेे के लिए जलाते हैं, ताली भी उसी के विरुद्ध अपने संकल्प को दृढ़ करने के लिए बजाते हैं। जन्मदिवस पर,विवाह समारोहों पर,खुशी के अन्य अवसरों पर मन की प्रसन्नता की अभिव्यक्ति कहां कर पा रहे हैं ? हमारे यहाँ सारे विश्व को देने व सिखाने के लिए दीपक जलाने,नृत्य,संगीत आदि की अति समृद्ध परम्परा है,जिनसे हमने विश्व को रू-ब-रू किया है। यह देश तानसेन व बैजू बावरा का देश है। इस देश को कर्ण कटु एवं तेज-कर्कश संगीत उधार लेने की आवश्यकता क्यों है ? हमारी जीवनशैली में इनके लिए समय का नियोजन जरूरी है,क्योंकि ये हमारी समृद्धि, स्वास्थ्य एवं विकास के प्रेरक हैं।
समस्या यही है कि हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं,जीवन असन्तुलित बना हुआ है। जीवन की सबसे बड़ी बाधा है जीवन में कार्यों एवं परम्पराओं के लिए समय का असंतुलित बंटवारा,असंतोष की मनोवृत्ति और अतृप्ति। जब मन की चंचलता बनी हुई है,तो मनोबल नहीं बढ़ सकता। मनोबल की साधना ही नहीं है तो संकल्पबल मजबूत कैसे होगा ? मन में तो तरह-तरह की तरंग उठ रही हैं। क्षण भर के लिए भी मन स्थिर होने के लिए तैयार नहीं है। देश के शीर्ष औद्योगिक घरानों में गिने जाने वाले टाटा,बिड़ला,रिलायंस अब सब्जी-भाजी बेच रहे हैं। बड़े शहरों में इनके स्टोर हैं,जिनमें तेल,लूण और रोज के काम में आने वाले सारी चीजें शामिल हैं। छोटे दुकानदार की रोजी-रोटी तो अब वे लोग हथिया रहे हैं। तृप्ति हो कैसे ? शांति, संतोष और तृप्ति का एक ही साधन है और वह है योग। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से इसीलिए कहा है कि,अब तुम तृप्त होकर योगी बन जाओ। इसी तृप्ति में जीवन की समृद्धि का स्रोत समाहित है,इसलिए दैनिक जीवन में योग का समावेश जरूरी है।
महामात्य चाणक्य को राजनीति का द्रोणाचार्य माना जाता है। उनका दिया हुआ सूूत्र है-शासन को इन्द्रियजयी होना चाहिए। बात शासन से पहले व्यक्ति की है। व्यक्ति का जीवन ही राष्ट्र का निर्माण है। इसलिए ये प्रयास वहीं से शुरु होने चाहिए और नया वर्ष एक अवसर है इस प्रयास के संकल्पों का। हर वर्ष एक दिन के लिए ही हम स्वयं को स्वयं द्वारा जानने की कोशिश इस संकल्प के साथ करते हैं कि ऐसा हम ३६५ दिन करेंगे,लेकिन वर्ष की दूसरी तारीख ही हमें अपने संकल्प,शपथ से भटका देती है। नए वर्ष को सचमुच सफल और सार्थक बनाने के लिए हमें कुछ जीवन-मंत्र धारण करने होंगे।मार्ग पर चलना कठिन होता है,पर जो चलते हैं वे बड़े मधुर फल पाते हैं। कठोपनिषद् का एक मंत्र है-‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।’ इसका अर्थ है-`उठो,जागो और नया रचो।‘ नए वर्ष का मंत्र यानी हमारा संकल्प’ हमारा ध्यान अच्छाइयों की ओर आकृष्ट करता है और उन्हें प्राप्त करने के लिए उद्योग करने को प्रोत्साहित करता है।
बस,वही क्षण जीवन का सार्थक है जिसे हम पूरी जागरूकता के साथ जीते हैंl सच और संवेदना की यह संपत्ति ही नए वर्ष में हमारी सफलता को सुनिश्चित कर सकती है। अतः,इस विश्वास और संकल्प को सचेतन करें कि अब महामारी जैसे संकट नहीं रहेंगे। बिना किसी को मिटाए निर्माण की नई रेखाएं खींचें।

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