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जरा याद करो कुर्बानी

विनय कुमार सिंह ‘विनम्र’ 
चन्दौली(उत्तरप्रदेश)
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भयानक मंजरों के दौर से,गुजरा हुआ अपना वतन,
जालिमों के जुल्म से,लूटा हुआ है ये चमन।

बस शिकस्तों पे शिकस्तों,का धरा पर अवतरण,
कुछ शहीदों ने न्यौछावर,कर दी अपनी जान तक।

एक लाठी से चली,ऐसी हवा की आंधियां,
उड गई गोरों की सब,उम्मीद रुपी अस्थियाँ।

जागरण का रण बजा,जैसे बिगुल बजता समर में,
उड गए तृण भस्म बन,नैया फंसी उनकी भंवर में।

एक गांधी ने सबल हो,स्वतंत्रता की अग्नि में,
अपनी हर स्वांस तक,कुर्बान कर दी।

क्रांतियों की रस्म में,जज्बे के बहते लहू से,
भगत सिंह ने सींच दी,भारत की सुन्दर क्यारियाँ।

आजाद बन ज्वाला समर में,जालिमों के जुल्म की,
रौंद कर निर्मूल कर दी,लहलहाती हस्तियां।

क्रोध रुपि अग्नि में गोरे जले,बिस्मिल,गुरु के,
फांसी के फंदों को शहीदों ने,लहू से सींच दिया।

सावरकर,सुभाष और खुदी,जेहन में कुछ ही बस सही,
नाम कुछ ही याद हैं,अफसोस गिनती कम रही।

पर सूर्य को भी याद है,तारे गहन को याद है,
याद है अपनी क्षितिज को,विस्तृत गगन को याद है।

चाँद को भी याद है,बहते पवन को याद है,
पेड की हर साख को,लाशों से रिसता खून वो।

गोरों ने जिनको सहज फाँसी पर,चढ़ाया,याद है,
याद है सबको,हमीं बस भूलते हीं जा रहे हैं॥