कुल पृष्ठ दर्शन : 182

You are currently viewing लोकतंत्र को कैसे मिले नेतातंत्र से मुक्ति

लोकतंत्र को कैसे मिले नेतातंत्र से मुक्ति

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
*******************************

हमारे ७२ वें गणतंत्र दिवस पर हम ज़रा गहरे उतरें और सोचें कि हमारे गणतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती क्या है ? क्या यह नहीं कि वह एक सच्चा गणतंत्र बन जाए ? गणतंत्र याने क्या ? गण का तंत्र अर्थात जनता का तंत्र। ऐसा तंत्र जिसमें जनता का राज हो,जनता के लिए हो और जनता के द्वारा हो। क्या भारत में सचमुच ऐसा राज है ? ऊपर से देखने में तो लगता है कि ऐसा ही है। हर ५ साल में या उसके पहले ही जनता मत डालकर केंद्र और राज्यों में सरकारें बनाती है। चुनाव लड़ते वक्त बेहद अकड़ू नेता भी भीगी बिल्ली बने रहते हैं। वे अपने आपको जनता का नौकर,दास,चौकीदार,सेवक,भक्त-क्या-क्या नहीं बताते ? मत मांगने के लिए वे ऐसे-ऐसे स्वांग रचते हैं कि पेशेवर भिखारी भी उनके आगे पानी भरने लगें। जाहिर है कि यह दृश्य न तो हम कभी ब्रिटिश भारत में देख सकते थे,न मुगल भारत में और न ही सामंती भारत में! इस दृष्टि से जनता शक्तिमंत तो हुई है,लेकिन यह शक्तिमंतता क्या क्षणिक नहीं है ? केवल मत डालते वक्त आम आदमी अपने-आपको भुलावे में डाल सकता है कि वह राजा है,मालिक है या नृप-निर्णेता है। क्या उसके बाद के ५ वर्षों में उसके हाथ में कोई ऐसा अंकुश होता है,जिससे वह अपने ‘सेवकों,नौकरों और चौकीदारों’ पर लगाम लगा सके ? अगर डॉ. राममनोहर लोहिया के शब्दों का इस्तेमाल करें तो वह जनता वोट डालने के बाद पांच साल तक मुर्दा हो जाती है। जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं,लेकिन हमारी कौम तो मर जाती है। वह न तो अपने सांसद और विधायक के कान खींच पाती है,न उन्हें वापस घर बिठा सकती है,न किसी अकर्मण्य प्रधानमंत्री या बेईमान मुख्यमंत्री को बेदखल कर सकती है और न ही किसी गलत कानून को बदलवा सकती है। अगर वह किसी गलत कानून के खिलाफ अहिंसक प्रदर्शन करती है तो भी उसे आतंकवादियों से जोड़ दिया जाता है।
हमारे संविधान-निर्माताओं ने हमें दुनिया का सबसे बड़ा संविधान दिया, लेकिन हमें वे यह चाबी देना भूल गए जिससे हम व्यवस्था के ताले को ५ साल के पहले भी खोल सकें। इसका नतीजा यह हुआ है कि हमारे चुने हुए नेताओं का बर्ताव हमारे विदेशी और सामंत शासकों से भी बदतर हो जाता है। ब्रिटिश शासकों को कम से कम अपनी संसद का डर रहता था और हमारे सामंत ‘राजधर्म’ की मर्यादा से भयभीत रहते थे,लेकिन हमारे लोकतांत्रिक शासकों ने ऐसी तरकीब भिड़ाई है कि उन्हें पटरी पर चलाए रखनेवाली २ संस्थाओं को उन्होंने लगभग नाकारा बना दिया है।
ये संस्थाए हैं-संसद और राजनीतिक दल! संसद में जो भी बहस पक्ष और विपक्ष में होती है,आप क्या समझते हैं कि उनमें क्षीर-नीर विवेक होता है ? क्या हर वक्ता अपने विषय पर निष्पक्ष और निर्भय राय प्रकट करता है ? उसका हर तथ्य,हर तर्क और हर निष्कर्ष दल-लाइन पर चलता है। उस लाइन पर चलते हुए सच्ची बात भी मुँह से निकल जाती है लेकिन कोई गारंटी नहीं है कि उसी विषय पर वही वक्ता,जो आज एक दल में है,अगर वह कल दूसरे में होगा तो वही बात कहेगा। उसे हमेशा दल-लाइन का ही अनुसरण करना होगा? इसका अर्थ क्या हुआ ? जनता की लाइन कहां गई ? वह चुनाव तक जिंदा रही और उसके बाद ५ साल के लिए मर गई। इन सांसद या विधायक महोदय से कोई पूछे कि तुम्हें संसद में किसने चुनकर भेजा है ? तुम्हारी पार्टी ने या तुम्हारे मतदाताओं ने ? संसद में बैठते ही तुम अपने मतदाताओं को भूल गए,लोक को भूल गए, बस नेता याद रहे। यह लोकतंत्र है या नेतातंत्र है ? संसद संप्रभु है या वह पार्टी-नेताओं की चेरी है ? यही वजह है कि किसी भी लोकतंत्र में संसद का जो दबदबा होना चाहिए,वह भारत में नहीं है। जवाहरलाल नेहरु का वह युग बीत गया,जब कांग्रेस के सांसद ही सदन में खड़े होकर अपनी सरकार पर बरस पड़ते थे। अब तो सभी दलों का हाल एक-जैसा है।
क्यों नहीं इस गणतांत्रिक वर्ष में हम हमारे सांसदों को स्वविवेक का अधिकार प्रदान करें ? उन पर दल-सचेतक का डंडा क्यों चले ? प्रत्येक सांसद को छूट हो कि वह अपने स्वविवेक से जिस बात को ठीक समझे, वही बोले और तदनुसार मतदान भी करे। संसद संप्रभु तभी होगी और सरकार भी जवाबदेह तभी होगी। अभी तो सभी सांसदों की चाबियां उनके दल-नेताओं की जेब में पड़ी रहती हैं। यदि सांसदों को खुद-मुख्तारी मिलेगी तो वे भी देश की हर समस्या को समझने के लिए ज्यादा मेहनत करेंगे और जो बात भी बोलेंगे,अपने मतदाताओं के हित में बोलेंगे,लेकिन क्या यह संभव है ? संभव तभी होगा जब कि,हमारे राजनीतिक दल स्वयं लोकतांत्रिक बनेंगे। जिन दलों के कंधों पर हमारा गणतंत्र खड़ा है,उनमें से ज्यादातर ‘प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां’ बन गई हैं। उन दलों पर या तो कुछ परिवारों का कब्जा हो गया है या कुछ गिरोहों का! दल-अध्यक्ष या उपाध्यक्ष या महामंत्रियों की नियुक्तियां क्यों नहीं लाखों कार्यकर्ताओं की सहमति से होती हैं? कम से कम प्रांतों और जिलों के लगभग हजार-डेढ़ हजार पार्टी-अधिकारियों को नेताओं के चुनाव का यह सीधा अधिकार भी दिया जा सकता है।
यदि दलों में आंतरिक लोकतंत्र आ जाए तो सांसद और विधायक नेताओं के कृपाकांक्षी बनाने की बजाय जनता को ज्यादा महत्व देंगे। अभी हमारे देश की राजनीति उर्ध्वमूल है,याने उसकी जड़ें ऊपर हैं। उसे अधोमूल (जमीन में जड़) बनाए बिना भारत सच्चा गणतंत्र कैसे बनेगा ? हमारी राजनीति उर्ध्वमूल है,इसीलिए जन-आंदोलनों के प्रति हमारी सरकार का रवैया अंग्रेजों या सामंतों-जैसा हो जाता है। हमारे शासक जनता के प्रति कृतज्ञ नहीं होते हैं,उसका वे दिखावा करते हैं,वे उन पार्टी-नेताओं के प्रति कृतज्ञ,विनत और आज्ञाकारी होते हैं,जिन्होंने उनको मखमली कुर्सियों पर बिठा दिया है। न तो उन्हें देश के किसानों और यवुकों का आक्रोश व्यथित करता है,न अरबों-खरबों की धांधलियां और न ही करोड़ों गरीबों की आहें-कराहें! इस समय दो ही ताकतें ऐसी हैं, जो हमारे गणतंत्र को पूरी तरह से नेतातंत्र में बदलने से बचा सकती हैं। एक तो है खबरपालिका और दूसरी है न्यायपालिका,लेकिन ये कब तक जोर मारेंगी? क्या नेता तब जागेंगे,जब जनता खुद दुर्गा बन जाएगी ?

परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

Leave a Reply