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कृष्ण-सुदामा बनो

राधा गोयल
नई दिल्ली
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मित्रता-जिंदगी…

एक मित्र था अति निर्धन, और एक मित्र था बहुत धनी,
धन अवरोध न बन पाया, दोनों की मैत्री बड़ी घनी।

सांदीपनि से शिक्षा पाकर दोनों निज गृह लौट गए,
एक रहा हरदम गरीब, दूजे ने झंडे गाड़ दिए।

कंस का वध करके मात-पिता कारा से छुड़वाया,
नाना को उनका सिंहासन, श्री कृष्ण ने दिलवाया।

जरासंध ने कई बार जब मथुरा पर आक्रमण किया,
समझ गए तब कृष्ण कि मुझे मारने को आक्रमण किया।

निर्दोष प्रजा मारी न जाए, तो सबको द्वारिका बसा दिया,
रहे अकेले मथुरा में और जरासंध को छका दिया।

बुद्धिबल से भीमसेन द्वारा उसका वध करवाया,
जरासंध के भय से त्रस्त प्रजा का तन-मन हर्षाया।

राजा नहीं थे कृष्ण, मगर कहते थे ‘द्वारिकाधीश’ सभी,
अति व्यस्त होने पर भी बचपन के मित्र न भूले कभी।

आए सखा सुदामा द्वारिका, कृष्ण ने जब यह बात सुनी,
नंगे पैर ही दौड़ पड़े तब, नहीं किसी की बात सुनी।

बार-बार वो बड़े प्रेम से सखा को गले लगाते हैं,
नैनन के अंसुअन से ही वो उनके पाँव धुलाते हैं।

बचपन की यादों की बातें करते नहीं अघाते हैं,
जाने कितने किस्से हैं, और कितनी अनगिन बातें हैं।

बिन मांगे ही मित्र सुदामा को कितना कुछ दे डाला,
मित्र कृष्ण-सा जिसे मिले, वो है बेहद किस्मत वाला।

इतना कुछ दे दिया मित्र को, हो गया वो तो मालामाल,
कृष्ण-सुदामा सी मैत्री की जग में अद्भुत एक मिसाल॥