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फागुन का श्रंगार-होली

प्रो.डॉ. शरद नारायण खरे
मंडला(मध्यप्रदेश)

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फागुन संग-जीवन रंग (होली) स्पर्धा विशेष…

‘जीवन फागुन बन गया,गाता मंगल गीत।
आओ,हम अंकर भरे,नेह भरी नव प्रीत॥’
होली वसंत का एक उल्लासमय पर्व है। होली को ‘वसंत का यौवन’ भी कहा जाता है। इस समय प्रकृति सरसों की पीली साड़ी पहनकर किसी की राह देखती हुई प्रतीत होती है। हमारे पूर्वजों में भी होली त्यौहार को आपसी प्रेम का प्रतीक माना जाता है। इसमें सभी छोटे-बड़े लोग मिलकर पुराने भेद-भावों को भुला देते हैं। होली रंग का त्योहार होता है और रंग आनन्द का पर्याय होते हैं। वसंत के मौसम में प्रकृति की सुन्दरता भी मनमोहक होती है।
जब सारी प्रकृति यौवन से सराबोर हो जाती है तो मनुष्य भी आनन्द से झूमने लगता है,होली पर्व इसी का प्रतीक है। इस रंगीन उत्सव के समय पूरा वातावरण उल्लासमय हो जाता है।
वसंत में जब प्रकृति के अंग-अंग में यौवन फूट पड़ता है,तो होली का त्यौहार उसका श्रंगार करने आता है। होली एक ऋतु संबंधी त्यौहार है। शीतकाल की समाप्ति और ग्रीष्मकाल का आरम्भ यानी इन दोनों ऋतुओं को मिलाने वाले संधि काल का पर्व ही होली कहलाता है। शीतकाल की समाप्ति पर किसान लोग आनन्द विभोर हो उठते हैं। उनका साल भर का किया गया कठोर परिश्रम सफल हो उठता है,और उनकी फसल पकनी शुरू हो जाती है।
होली के त्योहार को होलिकोत्सव भी कहा जाता है। होलिका शब्द से ही होली बना है। होलिका शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के होल्क शब्द से हुई है,जिसका शाब्दिक अर्थ भुना हुआ अन्न होता है। प्राचीनकाल में जब किसान अपनी नई फसल काटता था,तो सबसे पहले देवता को भोग लगाया जाता था इसलिए नवान्न को अग्नि को समर्पित कर भूना जाता था। उस भुने हुए अन्न को सब लोग परस्पर मिलकर खाते थे। इसी ख़ुशी में नवान्न का भोग लगाने के लिए उत्सव मनाया जाता था। आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में इस परम्परा से होलिकोत्सव मनाया जाता है।
होली के उत्सव के पीछे एक रोचक कहानी है, जिसका काफी महत्व है। पुरातन काल में राजा हिरण्यकश्यप और उसकी बहन होलिका के अहंकार और हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद की भक्ति से ही इस उत्सव की शुरुआत हुई थी। हिरण्यकश्यप को ब्रह्मा द्वारा वरदान स्वरूप बहुत- सी शक्तियाँ प्राप्त हुई थीं,जिनके बल पर वह अपनी प्रजा का राजा बन बैठा था।
कहा जाता है कि,भक्त प्रहलाद भगवान विष्णु का नाम लेता था। प्रहलाद का पिता उसे ईश्वर का नाम लेने से रोकता था,क्योंकि वह खुद को भगवान समझता था। प्रहलाद इस बात को किसी भी रूप से स्वीकार नहीं कर रहा था।
हिरण्यकश्यप की एक बहन थी,जिसका नाम होलिका था। होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि उसे अग्नि जला नहीं सकती थी। होलिका अपने भाई के आदेश पर प्रहलाद को अपनी गोद में लेकर चिता पर बैठ गई। भगवान की महिमा की वजह से होलिका उस चिता में चलकर राख हो गई,लेकिन प्रहलाद को कुछ नहीं हुआ था। इसी वजह से इस दिन होलिका दहन भी किया जाता है।
भगवान श्री कृष्ण से पहले यह पर्व सिर्फ होलिका दहन करके मनाया जाता था,लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने इसे रंगों के त्यौहार में परिवर्तित कर दिया। भगवान श्रीकृष्ण ने इस दिन पूतना राक्षसी का वध किया था,जो होली के अवसर पर उनके घर आई थी। बाद में उन्होंने इस त्यौहार को गोप-गोपिकाओं के साथ रासलीला और रंग खेलने के उत्सव के रूप में मनाया। तभी से इस त्यौहार पर दिन में रंग खेलने और रात्रि में होली जलाने की परम्परा बन गई थी।
होली के दिन एक झंडा या कोई बड़ी डंडी को किसी सार्वजनिक स्थान पर गाड़ा जाता है। इस डंडे की पूजा कर उसके फेरे लगाकर मंगलकामना की जाती है। होली के मुहूर्त के समय इस डंडे को निकालकर इसके चारों तरफ लकड़ियाँ और उपले इकट्ठे किए जाते हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार पूजा के बाद इन लकड़ियों में आग लगाई जाती है और राख से तिलक लगाया जाता है। इसे होलिका दहन का प्रतीक माना जाता है। इस आग में किसान अपने अपने खेत के पहले अनाज के कुछ दानों को
सेंकते हैं और सबमें बांटते हैं। इसी से मिलन और भाईचारे की भावना जागृत होती है।
होली २ दिन का त्यौहार है। पहली रात को होलिका दहन किया जाता है,जिस पर घमंड और नकारात्मक प्रवृति का आहुति स्वरूप दहन किया जाता है। दहन से अगली सुबह फूलों के रंगों से खेलते हुए होली का शुभारम्भ किया जाता है। इस दिन को धुलेंडी भी कहा जाता है। इस दिन लोग एक-दूसरे पर रंग-गुलाल डालते हैं। होली को सभी लोग रंग-बिरंगे गुलाल और पानी में रंगों को घोलकर पिचकारियों से रंग डालकर प्रेम से खेलते हैं।
सड़कों पर बच्चों,बूढ़ों,लड़कियों और औरतों की टोलियाँ गाती,नाचती,गुलाल मलती और रंग भरी पिचकारी छोड़ती हुई देखी जाती हैं। सबकों के दिलों में प्रसन्नता छाई रहती है। सारे देश में लोग अपनी-अपनी परम्परा से होली मनाते हैं,परन्तु सभी रंग द्वारा अपनी खुशी की अभिव्यक्ति करते हैं। छोटे बच्चे बड़ों को उनके पैरों में गुलाल डालकर प्रणाम करते हैं और बड़े छोटों को गुलाल से टीका लगाकर आशीर्वाद देते हैं। सभी लोग अपने प्रियजनों के घर जाकर पकवान खाते हैं और बधाईयाँ देते हैं। चारों दिशाएं खुशियों से सराबोर हो जाती हैं।
होली के दिन का हिन्दुओं में बहुत महत्व होता है। होली का त्योहार दुश्मनों को भी दोस्त बना देता है। अमीर-ग़रीब,क्षेत्र,जाति,धर्म का कोई भेद नहीं रहता है। इस दिन लोग एक-दूसरे के घर जाते हैं और रंगों के साथ खेलते हैं। दूर रहने वाले दोस्त भी इस बहाने से मिल जाते हैं।
इस दिन सभी लोग अपनी नाराजगी, गम और नफरत को भुला कर एक-दूसरे के साथ एक नया रिश्ता बनाते हैं। समाज में बेहतर गठन के लिए होली की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है। होली का त्यौहार अपने साथ बहुत से संदेश लाता है। होली का त्यौहार हमें भेदभाव और बुराईयों से दूर रहने की सलाह देता है।
होली आनन्द का सरोवर व खुशी का खज़ाना सबके अंत:करण में विद्यमान है,परन्तु वह कुछ बाह्य शिष्टाचार के बंधनों की वजह से पूर्ण-रूपेण व्यक्त नहीं हो पाता है। जब वे बंधन टूट जाते हैं तो खुशी का खजाना फूट जाता है हम एक अतुलित आनन्द की अनुभूति करते हैं। होली के पीछे यही मनोवैज्ञानिक नियम समाविष्ट है,उसमें हम शिष्टाचार के बंधन तोड़ कर एक-दूसरे पर रंग बिखेरते हैं। शब्दों द्वारा कुछ कहकर,खुद नाचकर, गाकर अपने अंत:करण की खुशियाँ व्यक्त करते हैं।
होली प्रेम और एकता का प्रतीक है। होली ही एक ऐसा त्यौहार है जिसमें हम शिष्टाचार के बंधन तोड़कर छोटे-बड़े,वृद्ध-बाल,राजा-रंक का विविध तरीके से उपहास करते हैं,मिलकर गाते हैं,नाचते हैं। होली के इस त्यौहार में हर कोई एकता में बंध जाता है। इस दिन बुरा मानना अनुचित समझा जाता है, लेकिन बुरा कहने में कोई रोक नहीं होती है। व्यक्ति एक-दूसरे से गले मिलते हैं,मानो इससे मेल व प्रेम का स्त्रोत बहने लगता है।
वास्तव में होली का त्योहार बड़ा ही ऊँचा दृष्टिकोण लेकर प्रचलित हुआ है,पर आज लोगों ने इसका रूप ही बिगाड़ दिया है। वस्तुत: होली मेल, एकता,प्रेम,खुशी व आनन्द का त्योहार है। इसमें बुजुर्ग या प्रतिष्ठित व्यक्ति भी सबके बीच नाचते हुए दिखाई देते हैं। इस दिन की खुशी नस-नस में नया ख़ून प्रवाहित कर देती है। बाल-वृद्ध सभी में एक नई उमंगें भर जाती हैं। सभी के मन से निराशा दूर हो जाती है,और प्रतीत होता है कि मानो सम्पूर्ण जीवन ही वसंत समग्र सृष्टि को ही उल्लासित कर रहा है।
‘फगुनाया मौसम रचे,जीवन का संगीत।
होली आकर दे रही,अंतस को नव जीत॥’

परिचय-प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे का वर्तमान बसेरा मंडला(मप्र) में है,जबकि स्थायी निवास ज़िला-अशोक नगर में हैL आपका जन्म १९६१ में २५ सितम्बर को ग्राम प्राणपुर(चन्देरी,ज़िला-अशोक नगर, मप्र)में हुआ हैL एम.ए.(इतिहास,प्रावीण्यताधारी), एल-एल.बी सहित पी-एच.डी.(इतिहास)तक शिक्षित डॉ. खरे शासकीय सेवा (प्राध्यापक व विभागाध्यक्ष)में हैंL करीब चार दशकों में देश के पांच सौ से अधिक प्रकाशनों व विशेषांकों में दस हज़ार से अधिक रचनाएं प्रकाशित हुई हैंL गद्य-पद्य में कुल १७ कृतियां आपके खाते में हैंL साहित्यिक गतिविधि देखें तो आपकी रचनाओं का रेडियो(३८ बार), भोपाल दूरदर्शन (६ बार)सहित कई टी.वी. चैनल से प्रसारण हुआ है। ९ कृतियों व ८ पत्रिकाओं(विशेषांकों)का सम्पादन कर चुके डॉ. खरे सुपरिचित मंचीय हास्य-व्यंग्य  कवि तथा संयोजक,संचालक के साथ ही शोध निदेशक,विषय विशेषज्ञ और कई महाविद्यालयों में अध्ययन मंडल के सदस्य रहे हैं। आप एम.ए. की पुस्तकों के लेखक के साथ ही १२५ से अधिक कृतियों में प्राक्कथन -भूमिका का लेखन तथा २५० से अधिक कृतियों की समीक्षा का लेखन कर चुके हैंL  राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में १५० से अधिक शोध पत्रों की प्रस्तुति एवं सम्मेलनों-समारोहों में ३०० से ज्यादा व्याख्यान आदि भी आपके नाम है। सम्मान-अलंकरण-प्रशस्ति पत्र के निमित्त लगभग सभी राज्यों में ६०० से अधिक सारस्वत सम्मान-अवार्ड-अभिनंदन आपकी उपलब्धि है,जिसमें प्रमुख म.प्र. साहित्य अकादमी का अखिल भारतीय माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार(निबंध-५१० ००)है।

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