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रंगरेज

डॉ. वंदना मिश्र ‘मोहिनी’
इन्दौर(मध्यप्रदेश)
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फागुन संग-जीवन रंग (होली) स्पर्धा विशेष…

‘समय’ अपनी गति में,तेजी से आगे बढ़ रहा था, और साथ मे मेरी ट्रैन भी। ‘गुड़िया’ को अपने सीने से लगाए मैं चुपचाप चली जा रही थी! एक ऐसी यात्रा पर,जिसकी कोई मंजिल नहीं थी।
आज होलिका दहन है,रास्ते में कई छोटे-छोटे गाँव पड़े,जहां पर रात्रि में जलने वाली होलिका दहन की तैयारी चल रही थी। होलिका की गोद में भक्त प्रहलाद पुतले के रूप में बैठे दिखाई दे रहे थे। ऐसे में मेरे सामने मेरा ‘अतीत’ ‘घूमता-फिरता नजर आने लगा। मन एक बार फिर,यादों के गलियारों में उतर गया।
हल्की ‘ठंडक’ के साथ यादें भी अंदर चली आई थीं
क्योंकि,मौसम के साथ ‘यादों’ का रिश्ता बहुत गहरा होता है। यह मैं आज समझ पाई थी।
वो गाँव की कच्ची-पक्की पगडंडियों पर दौड़ती खिलखिलाती एक मासूम-सी लड़की,बेफिक्र बचपन कितना अल्हड़,अनघड़ सुंदरता लिएअपने में गुम-सा,जैसे समेट लेना चाहता हो अपने अंदर कितने ही सुंदर लम्हों को।
होली का त्यौहार मुझे बहुत पसंद था,दिनभर सुबह से शाम हाथ में पिचकारी लिए पूरे गाँव में सखियों के साथ खूब धमाल करती। शाम के समय माँ को यह पता नहीं चलता था कि,यह मैं हूँ या कोई ओर.. इतनी काली-पीली होकर आती थी। माँ खूब डाँटती ,और रगड़-रगड़ मेरा रंग छुड़ाती जाती। थोड़ा फिर भी रह जाता था मेरे शरीर पर पूरा क़भी नहीं मिटता।
ऐसे ही कुछ रिश्तें होते है जो पूरे कभी नहीं टूटते। रह जाते हैं,थोड़े से बाकी और उनके रंग हमारी रूह से लिपटे रहते हैं जीवन पर्यन्त।
मेरा विवाह हुए ५ वर्ष बीत गए थे। इन वर्षों में कभी कोई रंग मुझे छू कर नहीं गुजरा,इतनी तकलीफ में गुजरे हैं यह दिन। पति राजीव मिला,वो भी एक नम्बर का शराबी..आए दिन झगड़ा करता।
आज सुबह की बात है,घर में किसी बात को लेकर बहुत झगड़ा हुआ। राजीव ने मुझे बहुत मारा-पीटा जो वो अक्सर हर छोटी-बड़ी लड़ाई के बाद करता था। उसके लिए औरत पैर की जूती थी,जिसको वो जब चाहे बदल सकता था। आजकल वो एक औरत के चक्कर में पड़ा था। आए दिन वो मुझ पर ‘अत्याचार’ करता,मैं सह जाती अपनी बेटी की खातिर। फिर माँ के ‘बचपन’ से मिले संस्कार,कि- औरत जहां ‘डोली में बैठ कर जाए,उसे उस घर से ‘अर्थी’ में ही बाहर निकलना चाहिए,यही उसका ‘धर्म’ है। बस,इसलिए उसके ‘अत्याचार’ दिन पर दिन बढ़ते जा रहे थे।
आज तो ‘हद’ हो गई थी,राजीव ने बहुत ‘बेदर्दी’ से मुझे मारा और घर से बाहर निकाल दिया,साथ में २ साल की बेटी को भी बाहर कर दरवाजा बंद कर दिया। मैंने बहुत हाथ-पैर जोड़े,गुहार लगाई,कि-आज होली का दिन है,मैं कहाँ जाऊंगी ? पर दरवाजा नहीं खोला। सोचा! पिता के घर चली जाऊं,फिर याद आया कि अभी कुछ समय पहले ही वो अपने पिता के घर इसी तरह से नाराज होकर चली गई थी। उसके पिता ने यह कहकर वापस भेज दिया कि-अब तुम्हारा वही घर है। वहाँ मरो या जियो,पर यहां वापस मत आना।
मैं सिसकते हुए स्टेशन आ गई,जो ट्रेन मिली,उसी में ही चढ़ गई..पता नहीं कहाँ जाना था मुझे…।
बहन जी आप कहाँ जा रही हो ? अचानक इस सवाल ने मुझे जैसे वापस मेरे वर्तमान में ला खड़ा किया। जी,जी….पता नहीं।
मतलब! आपको नहीं पता,कहाँ जाना है ? उस अजनबी ने पूछा।
अरे,आपकी बेटी को तो बहुत बुखार है। रुको,मैं कुछ दवाई देता हूँ।
मैं डर गई,कहीं यह मेरी बच्ची को कुछ कर न दे।मैंने मना किया-रहने दो,मैं ठंडे पानी की पट्टी रख दूँगी।
अरे!बहन डरो मत,यह ‘बुखार’ की दवाई है। जल्दी अच्छी हो जाएगी। पता नहीं क्या था उस अजनबी की बातों में,मुझे यकायक विश्वास हो गया। बिटिया का ‘बुखार’ अब उतर गया था। मेरा दर्द अब ‘आँसू’ बनकर उस अजनबी इंसान के सामने बह निकला।
तभी ट्रेन किसी ‘स्टेशन’ पर जा रुकी! उसने मेरा हाथ थाम कर नीचे उतारा,बोला-बहन चलो मेरे घर आज आराम करना,फिर हम कुछ सोचते हैं।
जब उनके घर पहुँची,तो उनकी पत्नी ने दरवाजा खोला। अपने पति की तरफ इशारा कर कुछ पूछना चाहा,तभी उन भैया ने उन्हें रोक दिया। मुझे बाहर ‘बैठक’ में बैठा कर अन्दर गए। उन्होंने अपनी पत्नी को सारी घटना सुनाई ओर बोले-याद कर,आज के दिन मेरी बहन ‘सुभद्रा’ हमे छोड़ कर चली गई थी! कितना दु:ख दिया था उसे उसके ससुराल वालों ने कि,उसे मौत को गले लगाना पड़ा। ट्रेन में इस बहन को देख मुझे अपनी सुभद्रा याद आ गई। जैसे भगवान ने मेरी बहन आज मुझे लौटा दी…।
इध,मेरी नींद मेरे सिरहाने भटकती रही,कब ‘सुबह’ हुई,पता ही नहीं चला।
जब ‘सुबह’ हुई तो मैंने कहा-अब मैं जाती हूँ।
बहन आज धुलेंडी है,सब तरफ होली का माहौल रहेगा,कहाँ जाओगी ऐसे माहौल में ? फिर तुमने सोचा ? क्या करोगी ? अब कहाँ जाओगी इस छोटी-सी बच्ची को लेकर..? उनकी पत्नी ने मुझसें कहा।
पता नहीं ? जहां जगह मिलेगी,रह लूँगी। आपका बहुत धन्यवाद,जो आपने एक रात मुझे अपने घर ‘पनाह’ दी।
क्या तुम हमारे साथ मेरी ‘बहन’ बनकर नहीं रह सकती ? मेरी ‘बहन’ आज के दिन ही मुझे छोड़ कर चली गई थी! लगता है तुम्हारे रूप में ‘भगवान’ ने उसे वापस भेज दिया है।
मैं आश्चर्य से उन भैया जी की तरफ देखने लगी। उनकी पत्नी मीरा ने भी मुझे रुकने को कहा,बोली- तुम्हें अब मजबूत बनना पड़ेगा! जीवन में किसी एक बुरे रंग के कारण पूरा जीवन बर्बाद नहीं किया करते। आज से तुम हमारे साथ रहोगी,मेरी ‘ननंद’ ‘बनकर… और प्यार से मेरे गाल पर ‘गुलाल’ लगा दिया,और मेरा हाथ थाम कर पूरे गाँव में घुमाती रही। मुझे लगा होली पर मुझे मेरे भाई के रूप में मेरे जीवन को रंगने वाला ‘रंगरेज’ मिल गया हो।दूसरे दिन भाई-दूज’ थी। मैंने बड़े प्रेम से अपने भाई को ‘टीका’ लगाया। इस होली पर मेरी ‘गुड़िया’ को अब एक बहुत प्यारे ‘मामा’ और मुझे अपना ‘मायका’ मिल गया था।

परिचय-डॉ. वंदना मिश्र का वर्तमान और स्थाई निवास मध्यप्रदेश के साहित्यिक जिले इन्दौर में है। उपनाम ‘मोहिनी’ से लेखन में सक्रिय डॉ. मिश्र की जन्म तारीख ४ अक्टूबर १९७२ और जन्म स्थान-भोपाल है। हिंदी का भाषा ज्ञान रखने वाली डॉ. मिश्र ने एम.ए. (हिन्दी),एम.फिल.(हिन्दी)व एम.एड.सहित पी-एच.डी. की शिक्षा ली है। आपका कार्य क्षेत्र-शिक्षण(नौकरी)है। लेखन विधा-कविता, लघुकथा और लेख है। आपकी रचनाओं का प्रकाशन कुछ पत्रिकाओं ओर समाचार पत्र में हुआ है। इनको ‘श्रेष्ठ शिक्षक’ सम्मान मिला है। आप ब्लॉग पर भी लिखती हैं। लेखनी का उद्देश्य-समाज की वर्तमान पृष्ठभूमि पर लिखना और समझना है। अम्रता प्रीतम को पसंदीदा हिन्दी लेखक मानने वाली ‘मोहिनी’ के प्रेरणापुंज-कृष्ण हैं। आपकी विशेषज्ञता-दूसरों को मदद करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“हिन्दी की पताका पूरे विश्व में लहराए।” डॉ. मिश्र का जीवन लक्ष्य-अच्छी पुस्तकें लिखना है।

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