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हमारा अन्नदाता

डॉ.अर्चना मिश्रा शुक्ला
कानपुर (उत्तरप्रदेश)
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अन्नदाता अपना ही परिवार,
नहीं पाल पाता
देखा है क्या नजदीक से,
मैंने देखा है करीब सेl
सुबह जब आँख खुलती है,
क्षितिज के चहुँ ओर निहारता है
एक आस और विश्वास लिए,
ऋतुएं आती हैं चली जाती हैंl
हर बार बड़ी उम्मीद से,
उमंग लिए फसल बोता है
कभी धान लगाता है,
कभी गेहूँ उगाता हैl
कभी सब्जियों की क्यारी बनाकर,
नई उम्मीद लगाता है
मेघपुष्प पाने को वह,
पल-पल बादलों को निहारता हैl
मेघपुष्प के न आने पर,
वह उदास फिरता है
अचानक बिजली कौंधती है,
बादल गरजते हैंl
अंधेरा फैलने लगता है,
छोटी बूंदें बड़ा रुप लेती हैं
एक सोंधी महक उठती है,
जिसमें अन्नदाता की जान बसी होती हैl
इस महक में वह खो जाता है,
नई उम्मीदों के साथ
फिर उसी जोश से जुट जाता है।
इस दुनिया पे अन्न लुटाने की खातिर,
हमारा अन्नदाता,हमारा अन्नदाताll

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