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गणतंत्र दिवस और राष्ट्रवाद

प्रो.डॉ. शरद नारायण खरे
मंडला(मध्यप्रदेश)

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गणतंत्र दिवस स्पर्धा विशेष……….

राष्ट्रवाद गणतंत्र का महत्वपूर्ण तत्व है। राष्ट्रवाद का अध्ययन गणतंत्र को समझने की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्रवाद के उदय की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल और बहुमुखी रही है। भारत में अंग्रेजों के आने से पहले देश में ऐसी सामाजिक संरचना थी,जो संसार के किसी भी अन्य देश मे शायद ही कहीं पाई जाती हो। वह पूर्व मध्यकालीन यूरोपीय समाजों से आर्थिक दृष्टि से भिन्न थी। भारत विविध भाषा-भाषी और अनेक धर्मों के अनुयायियों वाले विशाल जनसंख्या का देश है। सामाजिक दृष्टि से हिन्दू समाज,जो देश की जनसंख्या का सबसे बड़ा भाग है,विभिन्न जातियों और उपजातियों में विभाजित रहा है। स्वयं हिन्दू धर्म में किसी विशिष्ट पूजा पद्धति का नाम नहीं है,बल्कि उसमें कितने ही प्रकार के दर्शन और पूजा पद्धतियाँ सम्मिलित है। इस प्रकार हिन्दू समाज अनेक सामाजिक और धार्मिक विभागों में बँटा हुआ है। भारत की सामाजिक,आर्थिक- राजनीतिक संरचना तथा विशाल आकार के कारण यहाँ पर राष्ट्रीयता का उदय अन्य देशों की तुलना में अधिक कठिनाई से हुआ है। शायद ही विश्व के किसी अन्य देश में इस प्रकार की प्रकट भूमि में राष्ट्रवाद का उदय हुआ हो। सर जॉन स्ट्रेची ने भारत के विभिन्नताओं के विषय में कहा है कि भारतवर्ष के विषय में सर्वप्रथम महत्त्वपूर्ण जानने योग्य बात यह है कि भारतवर्ष न कभी राष्ट्र था, और न है,और न उसमें यूरोपीय विचारों के अनुसार किसी प्रकार की भौगोलिक, राजनीतिक,सामाजिक अथवा धार्मिक एकता थी,न कोई भारतीय राष्ट्र और न कोई भारतीय ही था,जिसके विषय में हम बहुत अधिक सुनते हैं। इसी सम्बन्ध मे सर जॉन शिले का कहना है कि यह विचार कि भारतवर्ष एक राष्ट्र है,उस मूल पर आधारित है,जिसको राजनीति शास्त्र स्वीकार नहीं करता और दूर करने का प्रयत्न करता है। भारतवर्ष एक राजनीतिक नाम नही है,वरन् एक भौगोलिक नाम है जिस प्रकार यूरोप या अफ्रीका।
उपरोक्त विचारों से स्पष्ट हो जाता है कि भारत में राष्ट्रवाद का उदय और विकास उन परिस्थितियों में हुआ,जो राष्ट्रवाद के मार्ग में सहायता प्रदान करने के स्थान पर बाधाएँ पैदा करती है। वास्तविकता यह है कि भारतीय समाज की विभिन्नताओं में मौलिक एकता सदैव विद्यमान रही है और समय-समय पर राजनीतिक एकता की भावना भी उदय होती रही है। वी.ए. स्मिथ के शब्दों में वास्तव में भारतवर्ष की एकता उसकी विभिन्नताओं में ही निहित है,जो भारतीय गणतंत्र का आधार है। ब्रिटिश शासन की स्थापना से भारतीय समाज में नए विचारों तथा नई व्यवस्थाओं को जन्म मिला है,इन विचारों तथा व्यवस्थाओं के बीच हुई क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के परिणामस्वरूप भारत में राष्ट्रीय विचारों को जन्म दिया।
वस्तुत:,भारतीय राष्ट्रवाद को समझने के लिए उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि को समझना आवश्यक है। भारत में अंग्रेजों के आने से पहले भारतीय ग्राम आत्मनिर्भर समुदाय थे। वे छोटे-छोटे गणराज्यों के समान थे,जो प्रत्येक बात में आत्मनिर्भर थे। ब्रिटिश पूर्व भारत में ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि और कुटीर उद्योगों पर आधारित थी और सदियों से ज्यों-की-त्यों चली आ रही थी। कृषि और उद्योग में तकनीकी स्तर अत्यन्त निम्न था। समाजिक क्षेत्र में परिवार, जाति पंचायत और ग्रामीण पंचायत सामाजिक नियन्त्रण का कार्य करती थीं। नगरीय क्षेत्र में कुछ नगर राजनीतिक,कुछ धार्मिक तथा कुछ व्यापार की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थी। अधिकतर राज्यों की राजधानी किसी न किसी नगर में थी। नगरों में अधिकतर लघु उद्योग प्रचलित थे। अधिकतर गाँवों और नगरों में परस्पर सांस्कृतिक आदान-प्रदान बहुत कम होता था,क्योंकि यातायात और संदेशवाहन के साधन बहुत कम विकसित थे। इस प्रकार राजनीतिक परिवर्तनों से ग्राम की सामाजिक स्थिति पर बहुत कम प्रभाव पड़ता था। विभिन्न ग्रामों और नगरों के एक दूसरे से अलग-अलग रहने के कारण देश में कभी अखिल भारतीय राष्ट्र की भावना उत्पन्न नहीं हो सकी। भारत में जो भी राष्ट्रीयता की भावना थी, वह अधिकतर धार्मिक और आदर्शवादी एकता की भावना थी,वह राजनीतिक आर्थिक एकता की भावना नहीं थी। लोग तीर्थयात्रा करने के लिए पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण भारत का दौरा अवश्य करते थे,और इससे देश की धार्मिक एकता की भावना बनी हुई थी,किन्तु सम्पूर्ण देश परस्पर संघर्षरत छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था,जिनमें बराबर युद्ध होते रहते थे। दूसरी ओर ग्रामीण समाज इन परिवर्तनों से लगभग अछूते रहते थे।
वास्तव में,भारतीय संस्कृति मुख्य रूप से धार्मिक रही है। इसमें राजनीतिक तथा आर्थिक मूल्यों को कभी इतना महत्त्व नहीं दिया गया,जितना आधुनिक संस्कृति में दिया जाता है। भारतीय संस्कृति की एकता राष्ट्रीय भावना का ही प्रतिरूप है,जो गणतंत्र की सबलता का आधार है।
यही कहूँगा कि,-
राष्ट्रवाद इक भाव है,जो करता है त्याग। देशप्रेम,कर्तव्य का,जो छेड़े नित रागll

परिचय-प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे का वर्तमान बसेरा मंडला(मप्र) में है,जबकि स्थायी निवास ज़िला-अशोक नगर में हैL आपका जन्म १९६१ में २५ सितम्बर को ग्राम प्राणपुर(चन्देरी,ज़िला-अशोक नगर, मप्र)में हुआ हैL एम.ए.(इतिहास,प्रावीण्यताधारी), एल-एल.बी सहित पी-एच.डी.(इतिहास)तक शिक्षित डॉ. खरे शासकीय सेवा (प्राध्यापक व विभागाध्यक्ष)में हैंL करीब चार दशकों में देश के पांच सौ से अधिक प्रकाशनों व विशेषांकों में दस हज़ार से अधिक रचनाएं प्रकाशित हुई हैंL गद्य-पद्य में कुल १७ कृतियां आपके खाते में हैंL साहित्यिक गतिविधि देखें तो आपकी रचनाओं का रेडियो(३८ बार), भोपाल दूरदर्शन (६ बार)सहित कई टी.वी. चैनल से प्रसारण हुआ है। ९ कृतियों व ८ पत्रिकाओं(विशेषांकों)का सम्पादन कर चुके डॉ. खरे सुपरिचित मंचीय हास्य-व्यंग्य  कवि तथा संयोजक,संचालक के साथ ही शोध निदेशक,विषय विशेषज्ञ और कई महाविद्यालयों में अध्ययन मंडल के सदस्य रहे हैं। आप एम.ए. की पुस्तकों के लेखक के साथ ही १२५ से अधिक कृतियों में प्राक्कथन -भूमिका का लेखन तथा २५० से अधिक कृतियों की समीक्षा का लेखन कर चुके हैंL  राष्ट्रीय शोध संगोष्ठियों में १५० से अधिक शोध पत्रों की प्रस्तुति एवं सम्मेलनों-समारोहों में ३०० से ज्यादा व्याख्यान आदि भी आपके नाम है। सम्मान-अलंकरण-प्रशस्ति पत्र के निमित्त लगभग सभी राज्यों में ६०० से अधिक सारस्वत सम्मान-अवार्ड-अभिनंदन आपकी उपलब्धि है,जिसमें प्रमुख म.प्र. साहित्य अकादमी का अखिल भारतीय माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार(निबंध-५१० ००)है।

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