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नागालैंड में श्वान माँस पर प्रतिबंध…खाद्य फासीवाद कैसे ?

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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बिग बी को कोरोना,चीनी दबंगई और विकास दुबे मुठभेड़ से परे सुदूर पूर्वोत्तर के राज्य नागालैंड में राज्य सरकार द्वारा कुत्ते (श्वान) के माँस पर प्रतिबंध को लेकर बवाल मचा है। जहां पशु प्रेमियों और पशु हिंसा विरोधियों ने इस फैसले का दिल खोलकर स्वागत किया,वहीं स्थानीय नागा नेता और बुद्धिजीवी इस फैसले का यह कहकर विरोध कर रहे हैं कि यह नागाओं की खाद्य आदतों में बेवजह दखल है। कुछ ने तो इसे सांस्कृतिक साम्राज्यवाद और खाद्य फासीवाद तक की संज्ञा दे डाली। कुछ नागा विचारकों का मानना है कि यह फैसला थोपा हुआ है। इससे पूर्वोत्तरवासियों बनाम मुख्य भूमिवासियों के बीच दूरी और बढ़ेगी। शह यह कि आपके सांस्कृतिक आग्रह हम पर न थोपें। कहने को नागालैंड सरकार ने यह निर्णय पशु प्रेमियों के आव्हान पर लिया है,लेकिन कुछ लोग इसके पीछे राज्य में सत्ता में भागीदार भाजपा के सांस्कृतिक दबाव के रूप में भी देख रहे हैं। नागालैंड में एनडीपीपी-भाजपा की गठबंधन सरकार है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि,श्वान के माँस पर रोक लगाकर यह संदेश देने की गलत कोशिश की जा रही है कि नागा बर्बर लोग हैं,जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है।
जब सारा देश गलवान घाटी और ‍‍बिकरू पुलिस हत्याकांड में उलझा था,तकरीबन उसी वक्त नागालैंड के मुख्‍य सचिव ने ऐलान किया कि प्रदेश में कुत्‍तों के व्यापार के साथ-साथ श्वान के माँस (कच्‍चे और पके हुए) की बिक्री पर भी रोक लगा दी गई है। यह फैसला राज्य मंत्रिमंडल ने पशु क्रूरता कम करने के लिए लिया है। विवाद की शुरूआत तब हुई थी,जब नई दिल्ली के वसंत विहार इलाके में पिछले दिनों कुछ नागा लोगों पर इलाके के कुत्ते पकड़कर खाने का शक जाहिर किया गया था। यह बात सही है कि नागा ही नहीं,पूर्वोत्तर के मिजोरम,मणिपुर और अरूणाचल के कुछ क्षेत्रों में भी कुत्ता शौक से खाया जाता है। शेष भारत के लोगों के लिए हैरानी का विषय इसलिए भी है कि,यहां कुत्ता मनुष्य का वफादार प्राणी और गाहे-बगाहे इंसान को काट लेने के लिए जाना जाता है। उसे ‘खाद्य प्राणियों’ में नहीं गिना जाता,लेकिन नागालैंड व पड़ोसी राज्यों में ऐसा नहीं है। वहां कुत्ते रखवाली के साथ-साथ थाली में परोसने के काम भी आते हैं। उपलब्ध जानकारी के अनुसार नागालैंड में खाने के लिए हर साल करीब ३० हजार कुत्ते काटे जाते हैं। विशिष्ट अवसरों पर इसके पकवान भी बनते हैं। वैसे चीन सहित समूचे पूर्व एशिया में कुत्ते का माँस बेहद चाव से खाया जाता है। कई शहरों में इसकी बड़ी-बड़ीमंडियां हैं। उधर पशुप्रेमियों का आरोप है कि माँस के लिए कुत्तों को निर्ममता से मारा जाता है। यह पशु क्रूरता है। सभ्य समाज में यह अस्वीकार्य है। यह भी कहा गया है कि कुत्ते का माँस मानव शरीर के लिए हानिकारक है। पशु क्रूरता के चलते ही पिछले दिनों मिजोरम सरकार ने भी बाकायदा पशुवध प्रतिबंध विधेयक पारित कर कुत्तों के आयात और उसके माँस की बिक्री पर रोक लगा दी थी,लेकिन नागालैंड में जिस तरह रोक लगाई गई,उसको लेकर कई नाराजी है। विरोध इसलिए नहीं है कि,वो पशु क्रूरता के समर्थक हैं,बल्कि इसलिए है कि इसके बहाने खाद्य आदतों,पसंद और सोच को लादने की कोशिश की जा रही है। हालांकि,इस आदेश के खिलाफ लोग सड़कों पर नहीं उतरे हैं,लेकिन भीतर ही भीतर खदबदाहट है। कुछ लोग श्वान माँस प्रतिबंध को गो माँस पर रोक की रोशनी में भी देखने की कोशिश कर रहे हैं।
नागा चिंतक तुलिप लोंगचार का यह तर्क है कि,पशु अधिकारवादियों के दबाव में जो निर्णय लिया गया है,उसके नतीजे अच्छे नहीं होंगे। तुलिप को आश्चर्य है कि उदारवादी कु्त्ते के मांस को लेकर इतने अनुदारवादी कैसे हो सकते हैं? आखिर हमारी खाद्य संस्कृति को कैसे बदला जा सकता है ? तुलिप तो इसे खाद्य फासीवाद की संज्ञा देते हैं। उनका यह भी मानना है कि,नागालैंड पर धार्मिक और सामाजिक कानूनों को लादना संविधान के अनुच्छेद ३७१(ए) के तहत गैर कानूनी है। एक और नागा समाजशास्त्री रोड्रिक विजुनामाई के अनुसार -‘यह हमें जबरन ‘सभ्य’ बनाने की कोशिश है। वैसे नागालैंड में पिछले दिनों कुछ ऐसे बदलाव देखने को मिले हैं,जिसको लेकर माना जाता है कि नागालैंड के लोग बाकी देश के और करीब आएंगे। २ साल पहले नागालैंड की विधानसभा में एक भाजपा विधायक ने हिंदी में भाषण दिया था,जिस पर काफी हंगामा हुआ था,क्योंकि नागालैंड में नियमानुसार विधानसभा में भाषण और सरकारी काम-काजअंग्रेजीमें अथवानागाअसमी` में ही होता है। दरअसल,नागा उस ‘समावेशीकरण’ के खिलाफ भी हैं,जिससे उनकी अलग संस्कृति और पहचान खत्म होती है।
हालांकि,ये आशंकाएं कुछ अति‍शयोक्तिपूर्ण भी लगती है,क्योंकि श्वान के माँस के विरोध में पूरा नागालैंड उठकर खड़ा नहीं हुआ है। कुछ लोग सरकार के फैसले को सही भी ठहरा रहे हैं। जहां तक खाने के लिए कुत्तों की निर्मम हत्या के विरोध का सवाल है,तो इस पर अंकुश लगना ही चाहिए। जीभ के स्वाद के लिए कुत्तों का मारना उचित नहीं लगता। इसी के साथ यह भी ध्यान रखना होगा कि राज्य सरकार के फैसले का विरोध के पीछे दरअसल इस देश में लोगों की खाद्य आदतों का बहुआयामी होना भी है। हमारे लिए कुत्ते की छवि कुछ और हो सकती है, पर नागालैंडवासी भी उससे सहमत हों,यह जरूरी नहीं है ?

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