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सनातनी उदारवादी सन्त कबीरदास

गोपाल चन्द्र मुखर्जी
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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संत कबीरदास जयंती ५ जून विशेष……


विशुद्ध चेतना या सनातन धर्म की मूल नीति से दूर हट कर मनुष्य भ्रांति-मतवाद के शिकार होने लगे एवं अपने-अपने धरम को पालन करने में भयभीत या अक्षम तो चारों ओर कुसंस्कारों से परिपूर्ण सामाजिक अव्यवस्थाएं छाने लगी। समाज के कुछ प्रभावशाली व स्वार्थपरक सम्प्रदाय या गोष्ठी अपने-अपने हितों से प्रेरित होकर अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए चाहत के अनुसार धरम या रीति-नीति को तैयार करते हुए समाज की दुर्बल,निरक्षर श्रेणियों पर अत्याचार एवं अनाचार कर रहा था। तब लोग भयभीत होकर अपने सनातनी धर्म को त्यागकर धर्मान्तरित होने के लिए बाध्य हो रहे थे। साम्प्रदायिक गोष्ठियों में अपने प्रभुत्व के विस्तार में सक्रिय होकर भाईचारा को भूलकर हिंसा का मार्ग अपनाने लगे,जिससे अशान्तिपूर्ण वातावरण से अशान्ति होने लगी थी। इतिहास गवाह है कि जब भी पृथ्वी पर ऐसे स्थिति निर्मित हुई,ठीक उसी समय धरती पर कोई न कोई मुक्त विचार को धारण करने वाले महापुरुष का आविर्भाव हुआ है। ऐसे महापुरुष समाज को कुसंस्कार से मुक्त करते हुए संस्थापित करते हैं। ये पुनर्जागरण की चेतना करते हैं। आश्चर्य का विषय यह परिलक्षित होता है कि इन लोगों में से अधिकांश ही अल्पशिक्षित रहे हैं। और,इन लोगों ने ही कठिन दर्शन शास्त्र की सरलतम व्याख्या की है। समाज को कुसंस्कार के ग्रास से मुक्त किया है।
पूर्व संवत्सर १४५० के आसपास सम्पूर्ण भारत में धर्मीय अस्थिरता,कुसंस्कारों का मायाजाल था,ठीक इस समय में बहु वितर्क के साथ आविर्भूत हुए महामानव ‘सन्त कबीरदास जी।’
इनके जन्म काल,जाति,धरम,पिता-माता के परिचय सब-कुछ को लेकर भिन्न भिन्न मत या वितर्क है,पर कुल मिलाकर उनका जन्म १३९८ ख्री. में लेकिन अन्य मतानुयायी अनुसार संवत्सर १४५१ से १४५५ के बीच हुआ है। अन्य मतानुसार,रामानन्द स्वामी से भूलवशत: प्राप्त आशीर्वाद से एक विधवा ब्राह्मण महिला की गर्भजात संतान कबीरदास जी हैं। कबीरदास जी की जात को लेकर भी वितर्क है। कबीर,नीमा एवं नीरू की सन्तान। नीमा व नीरू जात से जुलाहा रहा,इसलिए कबीर मुसलमान जाति के हैं। प्रश्न यह है कि,संत कबीरदास जी हिंदू या मुस्लिम ?
यह बात भी प्रचलित है कि,शिशु कबीर के नामकरण के समय भी विवाद हुआ। समाज के उच्चवर्गीय लोगों ने विरोध किया। नीच जात में ‘कबीर’ जैसे नाम शिशु के लिए नहीं रख सकते है। फिर भी नीमा-नीरू ने किसी की नहीं सुनी। शिशु का नाम कबीर ही रखा गया। बाद में स्वयं कबीर जी ने कहा-
‘जाति जुलाहा नाम कबीरा
वनि वनि फिरो उदासी।’
उस समय सामाजिक कुरीति एवं कुसंस्कारों के घोर विरोधी रामानन्द स्वामी रहे। युवक कबीर,रामानन्द स्वामी से प्रभावित होकर उनसे दीक्षा लेने गया तो स्वामी जी ने कबीर को मुसलमान समझकर दर्शन ही नहीं दिए। रामानन्द जी हर रोज गंगा नहाने के लिए पंचगंगा घाट में आते हैं,यह जानकर कबीर पंचगंगा के घाट की सीढ़ी पर लेट गए। रामानन्द जी घाट की सीढ़ी उतरने लगे,अनजाने में उस वक्त स्वामी जी के चरण से कबीर का शरीर को स्पर्श हो जाने एवं तत्काल कबीर को पहचान करते हुए घृणित या कबीर के स्पर्श से खुद को अशुद्ध समझते हुए ‘राम राम’ कहे थे। कबीरदास ने उस शब्दों को गुरुमन्त्र मानते हुए स्वामी जी को गुरु के रूप में स्वीकार कर लिया। गुरु के प्रति सम्पूर्ण समर्पित कबीरदास ने गुरु वन्दन किया-
‘सब धरती कागज करू,लेखनी वनराज।
सात समुद्र मसी करू,गुरुगुण लिखा न जाए॥
यह तन बिष की बेलरी,गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले,तो भी सस्ता जान॥’
शान्तिप्रिय,अहिंसक,सत्याश्रयी,सदाचारी, सरल और साधु स्वभाव के धनी ‘राम नाम’ में सदा मगन कबीरदास जी ने निराकार सतनाम परमब्रह्म को अनुभव किया। कबीरदास कहते थे-
‘हरि मोर पिउ,मैं राम की बहुरिया।
हरि जननी मैं बालक तोरा॥’
संत कबीरदास जी के व्यक्तिगत जीवन को लेकर भी वितर्क है। अनेक विद्वानों का कहना है कि संत कबीर शादीशुदा थे। उनके पुत्र का नाम कमल एवं पुत्री का कमाली रहा। कबीर जी अपना पैतृक पेशा या व्यवसाय तन्तुवाय या जुलाहा का काम कर संसार का प्रतिपालन करते थे,लेकिन कबीर पन्थियों के मतानुसार संत कबीर ब्रह्मचारी थे। कमल या कामाथ्य एवं कमाली या लोई (कंबल को भी लोई कहा जाता है) उनके पुत्र-पुत्री नहीं,बल्कि उन सन्त का शिष्य-शिष्या रहा।
दिन-रात रामनाम में मगन संत कबीरदास समाज कल्याण के लिए जात-पात, अन्धविश्वास,धरम के नाम से ढोंगी आचार अनुष्ठानों से लोगों को मुक्त कराने के लिए सहज सरल भाषा से उपदेश दिया करते थे। उदारवादी संत कबीरदास लोकशिक्षा में कहते थे”युग-युग माला फेरने से कुछ नहीं होगा। जरुरत है मन के विचारों में परिवर्तन लाकर मन को फेराना।”
वो कहते हैं-
‘माला फेरत जुग गया फिरा न मन का फेर।
कर का मनका छोड़ दे मन का मन फेर॥
मन का मनका फेर ध्रुव ने फेरी माला।
धरे चतुर्भुज रूप मिला हरि मुरली वाला॥
कहते दास कबीर माला प्रलाद ने फेरो।
धर नरसिंग का रूप बचाया अपना चेरो॥’
धार्मिक कट्टरता के घोर विरोधी उदारवादी संत कबीरदास ने नि:डरता से कहा-
‘हिंदू बरत एकादशी साधे दुध सिंघाड़ा सेती।
अन्न को त्यागे मन को न हट्के पारण करे सगौती॥
दिन को रोजा रहत है,राति हनन गाय।
यहां खून वै वन्दगी,क्यों कर खुशी खोदाय॥”
मुक्त विचार के धारक संत कबीरदास को प्रशंसा या प्रसिद्धि पसंद नहीं थी। दिनों-दिन उनके भक्त की संख्या में लगातार इज़ाफ़ा होने लगा,तो उन्होंने काशी छोड़ने का मन बना लिया और अनेक देशों के परिभ्रमण के पश्चात मगहर में आकर बस गए।
कबीरदास जी ने साम्प्रदायिक सदभावना का संदेश जीवन के अन्तिम समय तक दिया है। सन १५१८ ख्री. में मगहर में करीबन १२० बरस की आयु में संत कबीरदास जी का देहान्त हुआ है,पर उसमें भी विवाद रहा। संत की नश्वर देह के अन्तिम संस्कार को लेकर हिंदू एवं मुस्लिम भक्तों में विवाद शुरू हुआ। हिन्दू शव को दाह करने के लिए दावा कर रहे थे और मुसलमान इनको सुपुर्देखाक करने का मांग कर रहे थे। तब यहाँ भी चमत्कार हुआ। कबीरदास जी ने प्राण त्यागने के पश्चात भी सांप्रदायिक सदभावनाओं की रक्षा की।चादर से ढके हुए शव से अचानक चादर हट गई और सबने देखा कि संत का शव फूलों में परिणित हो चुका है। विवादरत भक्तों ने उक्त पुष्पों को आपस में प्रेमपूर्ण भाव से बंटवारा कर लिया।
प्रेमपुजारी संत कबीरदास जी कहते थे-
‘ना नारद तब रोई पुकारा।
एक जुलाहे सौ मैं हारा॥
प्रेम तन्तु नित ताना तनाई।
जप तप साधि सैकरा भराई॥’
आज महान संत कबीरदास जी के अवतरण दिवस के अवसर परा श्रद्धांजलि अर्पण करता हूँ।

परिचय-गोपाल चन्द्र मुखर्जी का बसेरा जिला -बिलासपुर (छत्तीसगढ़)में है। आपका जन्म २ जून १९५४ को कोलकाता में हुआ है। स्थाई रुप से छत्तीसगढ़ में ही निवासरत श्री मुखर्जी को बंगला,हिंदी एवं अंग्रेजी भाषा का ज्ञान है। पूर्णतः शिक्षित गोपाल जी का कार्यक्षेत्र-नागरिकों के हित में विभिन्न मुद्दों पर समाजसेवा है,जबकि सामाजिक गतिविधि के अन्तर्गत सामाजिक उन्नयन में सक्रियता हैं। लेखन विधा आलेख व कविता है। प्राप्त सम्मान-पुरस्कार में साहित्य के क्षेत्र में ‘साहित्य श्री’ सम्मान,सेरा (श्रेष्ठ) साहित्यिक सम्मान,जातीय कवि परिषद(ढाका) से २ बार सेरा सम्मान प्राप्त हुआ है। इसके अलावा देश-विदेश की विभिन्न संस्थाओं से प्रशस्ति-पत्र एवं सम्मान और छग शासन से २०१६ में गणतंत्र दिवस पर उत्कृष्ट समाज सेवा मूलक कार्यों के लिए प्रशस्ति-पत्र एवं सम्मान मिला है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-समाज और भविष्य की पीढ़ी को देश की उन विभूतियों से अवगत कराना है,जिन्होंने देश या समाज के लिए कीर्ति प्राप्त की है। मुंशी प्रेमचंद को पसंदीदा हिन्दी लेखक और उत्साह को ही प्रेरणापुंज मानने वाले श्री मुखर्जी के देश व हिंदी भाषा के प्रति विचार-“हिंदी भाषा एक बेहद सहजबोध,सरल एवं सर्वजन प्रिय भाषा है। अंग्रेज शासन के पूर्व से ही बंगाल में भी हिंदी भाषा का आदर है। सम्पूर्ण देश में अधिक बोलने एवं समझने वाली भाषा हिंदी है, जिसे सम्मान और अधिक प्रचारित करना सबकी जिम्मेवारी है।” आपका जीवन लक्ष्य-सामाजिक उन्नयन है।

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