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खुशियों के रंग

उपासना सियाग
फिरोजपुर(पंजाब)
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फागुन संग-जीवन रंग (होली) स्पर्धा विशेष…

त्यौहार का दूसरा नाम होता है खुशियां। कोई भी त्यौहार हो,जैसे-जैसे नज़दीक आने लगता है, मन में अपने-आप ही उल्लास का समावेश होने लगता है। होली तो सभी का प्रिय त्यौहार होता है। होता भी क्यूँ नहीं,इस दिन रंग-पानी खेलने की पूरी छूट होती है,लेकिन होली तो आने को है और नन्हा रघु उदास है। क्यूँ उदास है वह ? क्यूंकि,वह पिछले २ सालों की तरह इस बार भी होली नहीं मनाएगा। मन मसोस रहा है कि इस बार भी घर की छत से ही दूसरे बच्चों को रंग खेलते हुए देखेगा।
उसे याद आ रहा है कि किस तरह वह पंद्रह दिन पहले ही अपने मित्रों के साथ होली में रंग खेलने की योजना बनाने लग जाता था। छोटी कक्षा में था, इसलिए पढ़ाई का भी ज्यादा जोर नहीं था और तब तक परीक्षाएं भी हो जाती थी।
परीक्षाएं तो इस बार भी दो दिन पहले ही ख़त्म हो जाएगी। फिर क्यूँ नहीं खेल सकता वह ?
रघु धूप में रखी चारपाई पर लेटा सोच रहा था। ३ साल पहले होली के दिन जब वह होली खेल कर घर लौटा तो देखा कि उसके माँ-पापा बदहवास से थे। उसकी मम्मी उसके छोटे भाई श्याम को तैयार कर चुकी थी। उसे देखते ही उसे भी जल्दी से स्नानघर की तरफ ले चली और कहा कि जल्दी से नहा ले। वह सोच में पड़ गया कि आज माँ ने उसे नहलाया क्यूँ नहीं। हर बार तो वह खुद रगड़-रगड़ कर उसका रंग छुड़ाती है।
जैसे-तैसे नहा कर बाहर आया तो उसने अपने पापा का रंग लगा-उतरा चेहरा बदरंग-सा दिखा। थोड़ी ही देर में वे अपनी कार में सवार हो कर गाँव की तरफ जा रहे थे। रघु ने पूछा तो माँ ने रोते हुए बताया कि उसके दादा जी नहीं रहे। वह सकते में आ गया। यह तो उसने सोचा ही नहीं था कि कभी ऐसा भी दिन आएगा। वह तो सोचता था कि सभी साथ-साथ ही रहेंगे। कोई छोड़ कर भी जा सकता है। ऐसा तो कभी सोचा ही नहीं था।
गाँव जाकर माहौल देख कर वह और उसका भाई सहम से गए। दादा जी कितना प्यार करते थे सभी को। जब भी उनके पास रहने को आते थे तो घर में उत्सव जैसा माहौल बन जाता था। अब कौन प्यार करेगा उसे…सोच कर मन में हूक-सी उठी, लेकिन जोर से रो नहीं सका। बस सहमा सा रहा। दादा जी को जाते देखता रहा।
कुछ दिन बाद वे सब शहर आ गए। जिंदगी फिर से चल पड़ी अपनी राह पर,लेकिन दादा जी की कमी तो हमेशा ही रहती थी रघु के जीवन और मन में। वह बहुत याद करता था उनको।
‘रघु!’ माँ ने पुकारा तो वह नीचे आँगन में आ गया।
‘माँ,क्या इस बार भी हम होली नहीं मनाएंगे ?’ रघु की आवाज़ में कई सारे भाव एक साथ थे।
‘नहीं बेटा,होली के दिन तेरे दादा जी की मृत्यु हुई थी। इसलिए हम कोई भी त्यौहार और ख़ुशी इस दिन नहीं मनाएंगे।’ माँ ने समझाते हुए कहा।
‘लेकिन माँ! दादा जी भी तो कितना खुश हो कर रंग खेलते थे। आज जब हम नहीं खेलेंगे तो क्या उनकी आत्मा खुश होगी।’ रघु ने अपनी बात रखने की कोशिश की।
‘ओह,ये आत्मा की बातें मुझे नहीं मालूम। जो बड़ों ने परम्परा बना दी,वही मानी जाएगी। ज्यादा बातें बनाना अच्छी बात नहीं है।’ माँ थोड़ा नाराज़ होकर बोली।
‘बातें बनाना क्यूँ नहीं अच्छी बात है। रघु सच ही तो कह रहा है!’ पीछे से आवाज़ आई तो देखा दादी खड़ी है,साथ में उसके पापा भी।
उसके पापा दादी को गाँव से लेकर आए थे। घर में किसी को नहीं पता था। पापा को ऑफिस में ही फोन कर दिया तो वह वहीं से लेने चले गए थे। रघु ,दादी को देख बहुत खुश हुआ। दौड़ कर गले लग गया। दादी ने प्यार से रघु को गले लगा कर कहा कि,’इस बार हम सब होली मनाएंगे। जो परम्परा खुशियों में आड़े आए,वह बदल देनी चाहिए। बच्चे अगर त्यौहार पर ही उदास रहेंगे तो इसके दादा जी की आत्मा कैसे खुश रहेगी।’ कह कर दादी ने अपने बैग से रंग और मिठाइयां निकाल कर दी। रघु और उसका भाई श्याम दोनों ही बहुत खुश थे। ३ साल बाद फिर से होली के रंगों के साथ-साथ खुशियों के रंग भी बिखरेंगे।

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