ललित गर्ग
दिल्ली
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‘कोरोना’ कहर से समूचा भारत संकट में है और इस संकट को तबलीगी जमात ने बढ़ा दिया,इसकी गलती से कोरोना संक्रमण पीड़ितों व मौतों की संख्या बढ़ी है। जमात के अमीर मौलाना साद की इस अक्षम्य गलती से न केवल संपूर्ण भारतीय मुस्लिम समाज को गंभीर संकट में डाला है,बल्कि साम्प्रदायिक सौहार्द एवं आपसी सदभावना की भारतीय सांझा-संस्कृति को भी धुंधलाया है,जबकि देश का एक बड़ा मुस्लिम समुदाय इस संकट की घड़ी में देश के साथ खड़ा है,अपने- अपने स्तर पर सेवा,सहयोग एवं सहायता के उपक्रम कर रहा है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह मनमोहन वैद्य ने भी हाल ही में स्वीकार किया है कि मुस्लिम समाज में एक वर्ग ऐसा भी है जो सरकार के निर्देशों का पालन कर रहा है,जमात के लोगों की खोज करने में प्रशासन की मदद कर रहा हैं। उन्होंने मुस्लिम समाज में तबलीगी जमात के सदस्यों का विरोध होने की भी सराहना की।
भारत का एक बड़ा मुस्लिम वर्ग कोरोना मुक्ति के अभियान में अपनी सकारात्मक भूमिका निभाते हुए सहयोग कर रहा है। राजस्थान के लाडनूं कस्बे का नूर फाउण्डेशन कोरोना तालाबंदी के दौरान घरों के सर्वे से लेकर जरूरतमंदों तक राशन उपलब्ध करवाने एवं एकांतवास केंद्रों पर अलग-थलग मरीजों की देखभाल करने में अपनी अहम भूमिका अदा कर रहा है। इस फाउण्डेशन के सेवा-प्रकल्पों की न केवल प्रशासनिक स्तर पर प्रशंसा हो रही है,बल्कि मीडिया एवं आमजन के बीच में भी सराहना हो रही है। इस फाउण्डेशन ने एक मिसाल कायम की है। इसने जाति,वर्ण,वर्ग,भाषा, प्रांत एवं धर्मगत संकीर्णताओं से ऊपर उठकर मानव-धर्म को प्राथमिकता दी है।
बात केवल फाउण्डेशन के सेवा-सहयोग प्रकल्पों की नहीं है,बल्कि समूचे मुस्लिम समुदाय की मानवतावादी सोच की है और बात कट्टर एवं अराष्ट्रीय सोच के परिष्कार की है। जयपुर में भी ऐसी ही मानवता की झलक दिखाई दी,जहां मुस्लिम समाज के लोगों ने हिंदू शख्स का अंतिम संस्कार किया।
भारत की संस्कृति विविधता में एकता, सहअस्तित्व एवं समन्वय में विश्वास करती है। यहां बहुत-सी कौम एवं जातियां अपनी-अपनी परम्परा तथा रीति-रिवाजों के साथ आगे बढ़ी हैं। मुस्लिम समाज इस राष्ट्र एवं यहां की सांझा संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। भारत की संस्कृति एवं संस्कार धार्मिक सदभाव एवं समन्वय के पोषक हैं,पर यहां धर्म-समन्वय का अर्थ अपने सिद्धान्तों को ताक पर रखकर अपने आपको विलय करना कतई नहीं है। व्यक्तिगत रुचि,आस्था,मान्यता आदि सदा भिन्न रहेंगी,पर उनमें आपसी टकराव न हो,परस्पर सहयोग,सदभाव एवं सापेक्षता बनी रहे,यह आवश्यक है। एक पारिवारिक ट्रस्ट होते हुए भी इसकी सोच राष्ट्रव्यापी है।
हजरत मोहम्मद साहब ने यही उपदेश दिया है कि जो लोग साधन संपन्न होते हैं,उनका कर्तव्य है कि वे निर्धनों और कमजोरों की यथासंभव सहायता करें। उनकी खुशी निरर्थक है यदि उनके सामने कोई कमजोर निर्धन है जिसके पास खाने-पहनने को कुछ न हो। कोरोना के इस संकटकालीन दौैर में जरूरतमंद की सहायता के लिये तत्पर होने का अर्थ है हर मुसलमान का खुदा से संबंधित होना या स्वयं का स्वयं के साथ संबंधित होना। यह अवसर परोपकार एवं परमार्थ की प्रेरणा का विलक्षण अवसर भी है,खुदा तभी प्रसन्न होता है जब उसके जरूरतमद बन्दों की खिदमत की जाए,सेवा एवं सहयोग के उपक्रम किए जाएं। फाउण्डेशन के चेयरमैन डाॅ. गुलाब नबी तबलीगी जमात की घटनाओं को इस्लाम विरोधी मानते हैं। जमात की एक छोटी-सी गलती ने पूरे मुस्लिम समाज को ‘कोरोना आतंकवादी’ का रूप दे दिया। आखिर जमात के अमीर मौलाना साद इस संबंध में क्या सोच रहे थे ? सारी दुनिया में फरवरी से कोरोना विषाणु से फैली महामारी का डंका बज चुका था,चीन में हजारों लोगों की मौत हो चुकी थी। इस महामारी के कदम तेजी से भारत की ओर बढ़ रहे थे। दुनिया को यह पता चल चुका था कि कोरोना का मर्ज एक व्यक्ति के दूसरे व्यक्ति के संपर्क में आने से फैलता है। सर्वोच्च मुस्लिम धर्म-स्थल मक्का और काबा तक बंद हो गए तो फिर क्यों जमात ने धर्म के नाम पर प्रशासनिक पाबंदियों के बावजूद लोगों को गुमराह किया। उनका जीवन संकट में डाला गया एवं समूचे राष्ट्र को संकट में झोंक दिया ? यह प्रश्न मुसलमानों को भी झकझोर रहा है। सत्य यह है कि मुस्लिम समाज का यह कट्टरपंथी धार्मिक नेतृत्व पिछले कुछ दशकों से स्वयं मुस्लिम समाज को जितना नुकसान पहुंचा रहा है,उतना नुकसान कोई और नहीं पहुंचा रहा है। पहले बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी, फिर पर्सनल लॉ बोर्ड और अब तबलीगी जमात वही कर रही है। जब तक मुस्लिम समाज को ऐसे नेतृत्व से छुटकारा नहीं मिलता,तब तक समाज का उद्धार नहीं होने वाला है।
नूर फाउण्डेशन जैसे उदारवादी एवं राष्ट्रवादी उपक्रम मुस्लिम समुदाय पर लगे धब्बों को मिटाने में जुटा है। उसका मानना है कि खुदा के दरबार में सब एक हैं,अल्लाह की रहमत हर एक पर बरसती है। यह कुरान का शाश्वत निर्देश है कि आपदा एवं संकट के दिनों में कोई दुःखी न रहे। डाॅ. नबी का मानना है कि कोरोना महासंकट सम्पूर्ण मानवता पर मंडरा रहा महासंकट है जो हमारे लिये धार्मिकता के साथ नैतिकता और इंसानियत की प्रेरणा का विशिष्ट अवसर भी है। इस अवसर पर जो सच्चा मुसलमान होगा,उसमें अवश्य ही संयम पैदा होगा,पवित्रता का अवतरण होगा और संकीर्णताओं एवं कट्टरता पर काबू पाने की शक्ति पैदा होगी। कोरोना महामारी के कारण हाशिये पर खड़े दरिद्र और दीन-दुःखी,गरीब-लाचार लोगों के दुख-दर्द को हर मुसलमान समझें और अपनी कोशिशों से उनके चेहरों पर मुस्कान लाएं,न कि भारत की सांझा संस्कृति को क्षत-विक्षत करें।