गीतेश करंदीकर
मुंबई(महाराष्ट्र)
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बचपन एक सीमा है,
जो एक दिन समाप्त हो जाती है
उस आदमी को मूँछ लाकर,
एक नौजवान बना देती हैl
पहले जो उसे आँख दिखते,
वो अब उससे डरते हैं
बस दर्द इसी बात का रह गया,
बचपन उसे वापस न मिल पाया…l
वो दिन चले गए,
जब उसके गाल खींचे जाते थे
वो पल चले गए,
जब उसे सैर पर ले जाते थेl
मैदान जिस पर वो खेलता,
आज उस पर दूसरे खेलते हैंl
कहानियाँ जो वो सुनता,
आज उसके बच्चे सुनते हैं
बस दर्द इसी बात का रह गया,
बचपन उसे वापस न मिल पाया…l
वो चिंटू जो साइकल न चला पाता,
आज मीलों गाड़ी चला लेता है
वो बच्चा जो कागज़ पर लिखने में कतराता,
आज घंटों संगणक पर उँगलियाँ मार लेता हैl
बस दर्द इसी बात का रह गया,
बचपन उसे वापस न मिल पाया…ll