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अस्मिता पर आंदोलन का कलंक

हेमेन्द्र क्षीरसागर
बालाघाट(मध्यप्रदेश)
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किसान आंदोलन के नाम पर अराजक तत्वों ने गणतंत्र दिवस पर गणतंत्र की संप्रभुत्ता का अपमान करने का कुकर्म किया। कुंठित ‘कलंक कथा’ देश को पीढ़ियों तक शर्मसार करती रहेगी। आलम में दंगाईयों ने बेशर्मी से कई जगह पर पुलिसकर्मियों पर हमला और जमकर तांडव किया। हाथ में डंडे लेकर पुलिसकर्मियों को दौड़ाया गया,तलवारें लहराई गई,ईंट-पत्थर फेंके गए,जनसंपत्त‍ि को काफी नुकसान पहुंचाया गया। मन नहीं भरा तो,देश विरोधी नारे भी लगाए गए। आंदोलन के बहाने इन्होंने सारी निलर्जता की हद पार कर दी। जो हुआ,वह अत्यंत ही दुःखद,अक्षम्य एवं निंदनीय है। विशेषकर ऐतिहासिक स्थल लाल किले पर हुआ कृत्य देश की स्वाधीनता और अखंडता की रक्षा के लिए बलिदान देने वालों का सरासर घोर अपमान है। जिस तरह का ध्वजस्तंभ पर झंडा फहराने जैसा राष्ट्र विरोधी अपराध किया,लोकतंत्र में ऐसी अराजकता के लिए कोई स्थान नहीं है। याद रहे,तिरंगे की जगह कोई नहीं ले सकता। ये लाल क़िले की गरिमा से खिलवाड़ है। लाल क़िले की सिर्फ़ दीवारें लाल नहीं हैं,इसमें सुर्ख़ लहू शामिल है आज़ादी के मतवालों का। इस ऐतिहासिक बुनियाद में एक सोच शामिल है,जिसका नाम हिंदुस्तान है।
बनिस्बत,हमारे प्रजातंत्र का जी खोलकर मखौल उड़ाया गया। प्रजातंत्र के मायने क्या होते हैं,यह समझने-समझाने का वक्त आ गया है। यहां तक कि ट्रैक्टरों से पुलिस वालों को कुचलने के कुत्सित प्रयास भी किए गए। इसमे इन रक्षकों का दोष क्या था,वह भी किसान पुत्र ही हैं।
सभी पिछले एक माह से इस आंदोलन को देख रहे हैं,सुन रहे हैं,समझ रहे हैं,क्या यह देश के गरीब,अन्नदाता का आंदोलन कहा जा सकता है ? जिन्होंने अपने खून,पसीने से सरजमीं को सींचा है,क्या वह अपनी मातृभूमि की अस्म‍िता पर दाग लगा सकते हैं ? कदापि नही ? आखिर! इस आंदोलन की आड़ में देश में उन्माद फैलाकर,अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए कौन-सी शक्त‍ियां अड़ी हुई है!
शासकीय तंत्र ने बहुत ही आत्मविश्वास एवं संयम के साथ प्रजातंत्र का दामन पकड़े रखा और अपनी तरफ से ऐसी कोई कारवाई नहीं की,जिसे गलत कहा जा सके। उकसाने वाले तमाम हथकंडों के बावजूद पुलिस प्रशासन ने जो धैर्य रखा,इसके लिए भारतीय पुलिस के प्रति आज सीना गर्व से चौड़ा हो गया है। अब उस साजिश की पोल खुद ब खुद खुल गई कि किसी भी आंदोलन को कैसे खींचकर उसे कैसे घृणित आंदोलन की शक्ल दी जाती है। सरकार ने उदंडता को भी सर माथे लगाया है। जिन्हें दंड दिया जाना चाहिए,लगता है उन्हें माफ कर दिया। ऐसे कृत्यों के विरोध में सरकार को कानून सम्मत अपनी संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग निसंकोच करना चाहिए।
ऐसा कब तक चलेगा ? अराजक, असामाजिक व अलगाववादी तत्वों को क्यों माफ किया जाना चाहिए ? विरोध करने के लिए विरोध करना कदापि उचित नहीं है। निश्चित रूप से यह प्रजातंत्र तो है ही नहीं। ये ना भूलें कि इन सब पाखंडों को देश भली-भांति देख रहा है। इस आंदोलन की ‘कलंक कथा’ से आंदोलन की मर्यादा टूट गई है! सदियों तक इस दिन को ‘काला दिवस’ के रूप में मनाया जाएगा। देश के ओज में बदनुमा दाग लगाने वाले किसान नेताओं के दावे कहां गए ? आखि‍रकार! क्यों किया गया देश के गौरव को कलंकित ? इसकी जिम्मेदारी लेने का साहस आंदोलन की ओट में मुद्दे,सत्ता और नाम के व्याकुल कतिपय स्वार्थी नेताओं में तो है नहीं! अलबत्ता,एक प्रजातांत्रिक देश में इस सवाल का जवाब अवाम को ही हरहाल में देना पड़ेगा।

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