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जैन धर्म की महती राष्ट्रीय भूमिका

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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चिंतन……..

प्रस्तुत संस्कृति की धारा ने भारतीय जीवन व विचार एवं व्यवस्थाओं को कब कैसे पुष्ट और परिष्कृत किया,इसका यथार्थ मूल्यांकन होकर उसकी वास्तविक रूपरेखा उपस्थित हो जाए तो मालूम होगा कि जैन धर्म अपनी विचार व जीवन संबंधी व्यवस्थाओं के विकास में कभी किसी संकुचित दृष्टि का शिकार नहीं बना। उसकी भूमिका राष्ट्रीय दृष्टि से सदैव उदार और उदात्त रही है। उसका यदि कभी कहीं अन्य धर्मों से विरोध व संघर्ष हुआ है,तो केवल इसी उदार नीति की रक्षा के लिए।
जैनियों ने अपने देश के किसी एक भाग मात्र को कभी अपनी भक्ति का विषय नहीं बनने दिया। यदि उनके अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर विदेह (उत्तर बिहार) में उत्पन्न हुए थे,तो उनका उपदेश व निर्वाण हुआ मगध (दक्षिण बिहार) में। उनसे पूर्व के तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म हुआ उत्तरप्रदेश की बनारस नगरी में;तो वे तपस्या करने गए मगध के सम्मेदशिखर पर्वत पर। उनसे भी पूर्व के तीर्थंकर नेमिनाथ ने अपने तपश्चरण, उपदेश व निर्वाण का क्षेत्र भारत के पश्चिमी प्रदेश काठियावाड़(गुजरात) को बनाया। सबसे प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ का जन्म हुआ अयोध्या में और वे तपस्या करने गए कैलाश पर्वत पर।
इस प्रकार जैनियों की पवित्र भूमि का विस्तार उत्तर में हिमालय,पूर्व में मगध और पश्चिम में काठियावाड़ तक हो गया। इन सीमाओं के भीतर अनेक मुनियों व आचार्यों आदि महापुरुषों के जन्म,तपश्चरण, xdनिर्वाण आदि के निमित्त से उन्होंने देश की पद पद भूमि को अपनी श्रद्धा व भक्ति का विषय बना डाला है। चाहे धर्म-प्रचार के लिए हो और चाहे आत्मरक्षा के लिए,जैनी कभी देश के बाहर नहीं भागे। इस प्रकार उन्होंने दक्षिण भारत को भी अपनी इस श्रद्धांजलि से वंचित नहीं रखा। वहां तामिल के सुदूरवर्ती प्रदेश में भी उनके अनेक बड़े आचार्य व ग्रंथकार हुए हैं,और अनेक स्थान उनके प्राचीन मंदिरों आदि के ध्वंसों से आज भी अलंकृत हैं।
कर्नाटक प्रांत में श्रवणबेलगोला व कारकल आदि स्थानों पर बाहुबलि की विशाल कलापूर्ण मूर्तियाँ आज भी इस देश की प्राचीन कला को गौरवान्वित कर रही हैं। तात्पर्य यह कि समस्त भारत देश,आज की राजनीतिक दृष्टिमात्र से ही नहीं,किंतु अपनी प्राचीनतम धार्मिक परम्परानुसार भी,जैनियों के लिए एक इकाई और श्रद्धाभक्ति का भाजन बना है।
जैनी इस बात का भी कोई दावा नहीं करते कि ऐतिहासिक काल के भीतर उनका कोई साधुओं या गृहस्थों का समुदाय बड़े पैमाने पर कहीं देश के बाहर गया हो और वहां उसने कोई ऐसे मंदिर आदि अपनी धार्मिक संस्थाएं स्थापित की हों,जिनकी भक्ति के कारण उनके देशप्रेम में लेशमात्र भी शिथिलता या विभाजन उत्पन्न हो सके। इस प्रकार प्रान्तीयता की संकुचित भावना एवं देशबाह्य अनुचित अनुराग के दोषों से निष्कलंक रहते हुए जैनियों की देशभक्ति सदैव विशुद्ध,अचल और स्थिर कही जा सकती है। जैनियों ने लोक-भावनाओं के संबंध में भी अपनी वही उदार नीति रखी है। भाषा के प्रश्न को ले लीजिए। वैदिक परम्परा में संस्कृत भाषा का बड़ा आदर रहा है,और उसे ही `दैवी वाक्’ मानकर सदैव उसी में साहित्य-रचना की है।
देशभक्ति केवल भूमिगत ही हो,सो बात नहीं है। जैन तीर्थंकर भगवान् महावीर ने लोकोपकार की भावना से उस समय की सुबोध वाणी अर्द्धमागधी का उपयोग किया, तथा उनके गणधरों ने उसी भाषा में उनके उपदेशों का संकलन किया। उस भाषा और उस साहित्य की ओर जैनियों का सदैव आदर भाव रहा है;तथापि उनकी वह भावना कभी भी लोक भाषाओं के साथ न्याय करने में बाधक नहीं हुई। ‌
जैनाचार्य जब जब धर्म प्रचारार्थ जहां-जहां गए,तब-तब उन्होंने उन्हीं प्रदेशों में प्रचलित लोक-भाषाओं को अपनी साहित्य-रचना का माध्यम बनाया। यही कारण है कि जैन साहित्य में ही भिन्न-भिन्न प्रदेशों की भिन्न- भिन्न कालीन शौरसेनी, महाराष्ट्री,अपभ्रंश आदि प्राकृत भाषाओं का पूरा प्रतिनिधित्व पाया जाता है। ‌हिंदी,गुजराती, तामिल व कन्नड़ आदि आधुनिक भाषाओं का प्राचीनतम साहित्य जैनियों का ही मिलता है। इस प्रकार जैनियों ने कभी भी किसी एक प्रांतीय भाषा का पक्षपात नहीं किया,सदैव देशभर की भाषाओं को समान आदरभाव से अपनाया है।‌
धार्मिक लोक मान्यताओं की भी जैनधर्म में उपेक्षा नहीं की गई। उनका सम्मान करते हुए उन्हें विधिवत् अपनी परम्परा में यथास्थान सम्मिलित कर लिया गया है। राम और लक्ष्मण तथा कृष्ण और बलदेव के प्रति जनता का पूज्य भाव रहा है व उन्हें अवतार-पुरुष माना गया है। ‌जैनियों ने तीर्थंकरों के साथ साथ इन्हें भी त्रेसठ शलाका पुरुषों में आदरणीय स्थान देकर अपने पुराणों में विस्तार से उनके जीवन-चरित्र का वर्णन किया है। इतना ही नहीं,रावण व जरासंघ जैसे जिन अनार्य राजाओं को वैदिक परम्परा के पुराणों में कुछ घृणित भाव से चित्रित किया गया है, उनको भी जैन पुराणों में उच्चता और सम्मान का स्थान देकर अनार्य जातियों की भावनाओं को भी ठेस नहीं पहुंचने दी। इन नारायण के शत्रुओं को भी उन्होंने प्रतिनारायण का उच्चपद प्रदान किया है। रावण को दशमुखी राक्षस न मानकर उसे विद्याधर वंशी माना है।
इस प्रकार जैनपुराणों में जो कथाओं का वैशिष्ट्य पाया जाता है,यह निरर्थक अथवा धार्मिक पक्षपात की संकुंचित भावना से प्रेरित नहीं है। उसका एक महान प्रयोजन यह है कि उसके द्वारा लोक में औचित्य की हानि न हो,और साथ ही आर्य-अनार्य किसी भी वर्ग की जनता को उससे किसी प्रकार की ठेस न पहुंचकर उनकी भावनाओं की भले प्रकार रक्षा हो।
देश में कभी यक्षों और नागों की भी पूजा होती थी,और इनके लिए उनकी मूर्तियां व मंदिर भी बनाए जाते थे। जैनियों ने उनकी हिंसात्मक पूजा विधियों का तो निषेध किया, किन्तु नागादि देवी-देवताओं को अपने तीर्थंकरों के रक्षक रूप में स्वीकार कर उन्हें अपने देवालयों में भी स्थान दिया है। इनका आदर करते हुए जैनियों ने इन्हें एक जाति के देव स्वीकार किया है।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

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