डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली)
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संयुक्त राष्ट्र संघ के ७५ वें अधिवेशन के उद्घाटन पर दुनिया के कई नेताओं के भाषण हुए,लेकिन उन भाषणों में इन नेताओं ने अपने-अपने राष्ट्रीय स्वार्थों को परिपुष्ट किया,पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ ऐसे बुनियादी सवाल उठाए,जो विश्व राजनीति के वर्तमान नक्शे को ही बदल सकते हैं। उन्होंने सुरक्षा परिषद के मूल ढांचे को ही बदलने की मांग रख दी। इस समय दुनिया में अमेरिका और चीन ही २ सबसे शक्तिशाली राष्ट्र हैं। आजकल दोनों एक-दूसरे के विरुद्ध मुक्का ताने हुए हैं। उनके नेता डोनाल्ड ट्रम्प और शी चिन फिंग ने एक-दूसरे को निशाना बनाया। ट्रम्प ने दुनिया में कोरोना
विषाणु फैलाने के लिए चीन को जिम्मेदार ठहराया और चीन ने कहा कि अमेरिका सारी दुनिया मेें राजनीतिक विषाणु फैला रहा है। शी चिन फिंग ने कहा कि चीन की दिलचस्पी न तो गर्म युद्ध में है,और न ही शीत युद्ध में। मोदी ने अपने-आपको इस चीन-अमेरिकी अखाड़ेबाजी से बचाया और सुरक्षा परिषद का विस्तार करने की बात कही। उन्होंने कहा कि जमाना काफी आगे निकल चुका है लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ ७५ साल पहले जहां खड़ा था,वहीं खड़ा है। परिषद के सिर्फ ५ सदस्यों को वीटो
(निषेध) का अधिकार है,यानि उन ५ में से यदि १ सदस्य भी किसी प्रस्ताव या सुझाव को निषेध
कर दे तो वह लागू नहीं किया जा सकता। मतलब उनमें से कोई १ राष्ट्र भी चाहे तो सारी सुरक्षा परिषद को ठप्प कर सकता है। ये ५ राष्ट्र- अमेरिका,चीन,रुस,ब्रिटेन और फ्रांस हैं! इन पांचों को यह निषेधाधिकार क्यों मिला था ?,क्योंकि द्वितीय महायुद्ध (१९३९-४५) में ये राष्ट्र हिटलर,मुसोलिनी और तोजो के खिलाफ एकजुट होकर लड़े थे। जो जीते हुए राष्ट्र थे,उन्होंने बंदरबांट कर ली। संयुक्तराष्ट्र यों तो लगभग २०० राष्ट्रों का विश्व-संगठन है,लेकिन इन ५ शक्तियों के हाथ में वह कठपुतली की तरह है। उसकी परिषद में न तो कोई अफ्रीकी,न लातीन-अमेरिका और न ही कोई सुदूर-पूर्व का देश है। भारत-जैसा दुनिया का दूसरा बड़ा राष्ट्र भी सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य नहीं है। १० अस्थायी सदस्यों में इस वर्ष भारत भी चुना गया है। पांचों महाशक्तियां अपना मतलब गांठने के लिए गोलमाल शब्दों में भारत को स्थायी सदस्य बनाने की बात तो करती हैं,लेकिन होता-जाता कुछ नहीं है। भारत के नेता भी दब्बू हैं। वरना आज तक उन्होंने ये मांग क्यों नहीं की कि,या तो निषेधाधिकार
खत्म करो या ४-५ अन्य राष्ट्र को भी दो। निषेधाधिकार
का कोई सुनिश्चित आधार होना चाहिए। भारत चाहे तो,संयुक्तराष्ट्र के बहिष्कार की भी धमकी दे सकता है। वह अपने साथ दर्जनों राष्ट्रों को जोड़ सकता है।
परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।